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रविवार, 4 दिसंबर 2016

Clod waves and shelter less peoples

                         बेघरों को कौन देगा आसरा

दिल्ली में रात का तापमान धीरे-धीरे गिर रहा है। फुटपाथों और फ्लाई ओवरों की ओट में रात काटते हजारों लोग दिल्ली की खुशहाली के दावों की पोल खोलते दिखेंगे। शायद यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि देश की राजधानी दिल्ली में हर साल भूख, लाचारी, बीमारी से कोई तीन हजार ऐसे लोग गुमनामी की मौत मर जाते हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं होती है। दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राय सरकारों को तत्काल बेघरों को आसरा मुहैया करवाने के लिए कदम उठाने के आदेश दिए थे। इससे तीन साल पहले 30 नवंबर 2011 को दिल्ली हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीष ए.के. सीकरी और राजीव सहाय एडला की पीठ ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया था कि बेघर लोगों के लिए ‘नाइट-शेल्टर’ की कोई ठोस योजना तैयार कर अदालत में पेश की जाए। पीठ ने यह भी कहा कि एक तरफ तो राय सरकार कहती है कि सरकारी रैनबसेरों में रहने को लोग नहीं आ रहे हैं, दूसरी ओर वे आए दिन देखते हैं कि लोग ठंड में रात बिताते रहे है। आज भी हालात जस के तस हैं। यह तस्वीर देश की राजधानी की है। जरा कल्पना करें सुदूर इलाकों में ये बेघर किस तरह ठंड के तीन महीने काटते होंगे?
लोकतंत्र की प्राथमिकता में प्रत्येक नागरिक को ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ मुहैया करवाने की बात होती रही है। जाहिर है कि मकान को इंसान की मूलभूत जरूरत में शुमार किया जाता है। लेकिन सरकार की नीतियां तो मूलभूत जरूरत ‘सिर पर छत’ से कहीे दूर निकल चुकी हैं। आज मकान आवश्यकता से अधिक ‘रियल एस्टेट’ का बाजार बन गया है और घर-जमीन जल्दी-जल्दी पैसा कमाने का जरिया। जमीन व उस पर मकान बनाने के खर्च किस तरह बढ़ रहे हैं, यह अलग जांच का मुद्दा है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से दिल्ली एवं कई अन्य नगरों में सौंदर्यीकरण के नाम पर लोगों को बेघरबार करने की जो मुहिम शुरू हुई हैं, वे भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा के विरूद्ध है। एक तरफ जमीन की कमी और आवास का टोटा है तो दूसरी ओर सुंदर पांच सितारा होटल बनाने के लिए सरकार व निजी क्षेत्र सभी तत्पर हैं। कुल मिला कर बेघरों की बढ़ती संख्या आने वाले दिनों में कहीं बड़ी समस्या का रूप ले सकती हैं। एक तरफ झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी ओर उन्हें शहर से दूर खदेड़ा जा रहा है। जबकि उनकी रोजी-रोटी इस महानगर में है। इसी का परिणाम है कि हर रोज हजारों लोग कई किलोमीटर दूर अपने आशियाने तक जाने के बनिस्पत फुटपाथ पर सोना बेहतर समझते हैं। ना तो वे भिखारी हैं और ना ही चोर-उचक्के। उनमें से कई अपनी हुनर के उस्ताद हैं। फिर भी समाज की निगाह में वे अविश्वसनीय और संदिग्ध हैं। कारण उनके सिर पर छत नहीं है। सरकारी कोठियों में चाकचौबंद सुरक्षा के बीच रहने वाले हमारे खद्दरधारियों को शायद ही जानकारी हो कि दिल्ली में हजारों ऐसे लोग हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं है। यहां याद करें कि दिल्ली की एक -तिहाई से अधिक यानी 40 लाख के लगभग आबादी झुग्गी बस्तियों में रहती है। इसके बावजूद ऐसे लोग भी बकाया रह गए हैं, जिन्हें झुग्गी भी मयस्सर नहीं है। ऐसे लोगों की सही-सही संख्या की जानकारी किसी भी सरकारी विभाग को नहीं है। जनसंख्या गणना के समय भी इन निराश्रितों को अलग से नहीं गिना गया या यों कहें कि उन्हें कहीं भी गिना ही नहीं गया। एक्षन एड आश्रय अधिकार अभियान नामक एक गैरसरकारी संगठन के मुताबिक दिल्ली की लगभग एक फीसदी यानी डेढ़ लाख आबादी खुले आसमान तले ठंड, गरमी, बरसात ङोलती है। इनमें से 40 हजार ऐसे हैं जिन्हें तत्काल मकान की आवश्यकता है। इसके विपरीत सरकार द्वारा चलाए जा रहे 198 रैन बसेरों की बात करें तो उनकी क्षमता लगभग 16 हजार है। दिल्ली शहरी आश्रय बोर्ड द्वारा संचालित इन रैन बसेरों में 84 स्थाई हैं तो 111 पोर्टा केबिन में और एक टेंट में संचालित है।
जब लाखों लोगों के लिए झुग्गियों में जगह है तो ये क्यों आसमान तले सोते हैं? यह सवाल करने वाले पुलिस वाले भी होते हैं। इस क्यों का जवाब होता है, पुरानी दिल्ली की पतली-संकरी गलियों में पुश्तों से थोक का व्यापार करने वाले कुशल व्यापारियों के पास। झुग्गी लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा। फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा, समय लगेगा और झुग्गी का किराया देना होगा सो अलग। राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्रैफिक पर पाबंदी के बाद लाल किले के सामने फैले चांदनी चौक से पहाड़गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढ़ांडा व चूना मंडी तक के थोक बाजार में सामान के आवागमन का जरिया मजदूरों के कंधे व रेहड़ी ही रह गए हैं। यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अल्लसुबह। ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं। फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है? मुफ्त का चौकीदार। अब सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीं, यानी अपनी बचत भी सेठजी के पास ही रखेगा। एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई। वेरानीक ड्यूपोंट के एक अन्य सर्वे से स्पष्ट होता है कि इन बेघरों में से 23.9 प्रतिशत लोग ठेला खींचते हैं व 19.8 की जीविका का साधन रिक्शा है। इसके अलावा ये रंगाई-पुताई, कैटरिंग, सामान की ढुलाई, कूड़ा बीनने, निर्माण कार्य में मजदूरी जैसे काम करते हैं। कुछ बेहतरीन सुनार, बढ़ई भी है। इनमें भिखारियों की संख्या 0.25 भी नहीं थी। ये सभी सुदूर रायों से काम की तलाश में यहां आए हुए हैं।
दिल्ली में ऐसे लोगों के लिए 64 स्थाई रैन बसेरे बना रखे हैं, जबकि 46 प्रस्तावित हैं। इनमें से 10 को दिल्ली नगर निगम और शेष 15 को गैरसरकारी संस्थाएं संचालित कर रही हैं। पिछले साल भी कड़ाके की ठंड के दौरान अस्थाई रैनबसेरों को उजाड़ने का मामला हाईकोर्ट में गया था और ऐसे 84 केंद्रों को बंद करने पर अदालत ने रोक लगा दी थी। इसके बावजूद सरकार ने इनको संचालित करने वाले एनजीओ का अनुदान बदं कर दिया, यानी उन्हें बंद कर दिया। अब अदालत इस मसले पर भी सुनवाई कर रही है। इनमें से अधिकांश पुरानी दिल्ली इलाके में ही हैं। ठंड के दिनों में कुछ अस्थाई टेंट भी लगाए जाते हैं। सब कुछ मिला कर इनमें बामुश्किल दो हजार लोग आसरा पाते हैं। बाकी लोग पेट में घुटने मोड़ कर रात बिताने को मजबूर हैं।

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