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गुरुवार, 26 जनवरी 2017

election reforms for transparent democracy


कैसे निश्चित हो चुनावी शुचिता

पांच राज्यों में विधानसभा के चुनावों की प्रक्रिया शुरू होते ही राजनेताओं की जुबान फिसलने लगी है। चुनाव तो राय की सरकार चुनने के लिए है,लेकिन मसला कभी मंदिर तो कभी आरक्षण, कभी गाय और उससे आगे निजी आरोप। चुनाव के प्रचार अभियान ने साबित कर दिया है कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव न केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि सियासी दल एक दूसरे के खिलाफ शुचिता के उलाहने देते हुए दिख रहे हैं। असल में, समूचे कुएं में ही भांग घुली हुई है। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई है। विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं।
वास्तव में, यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र थी, यह चरम बिंदू है, जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है। देश का मतदाता अभी अपने वोट की कीमत और विभिन्न निर्वाचित संस्थआों के अधिकार व कर्तव्य जानता ही नहीं है। लोकसभा चुनाव में मुहल्ले की नाली और नगरपालिका चुनाव में पाकिस्तान के मुद्दे उठाए जाते हैं। चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि उन्हें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से, दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते हैं। यदि राष्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैसियत सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, न कि केवल जाति विशेष के। कैबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को लेकर निर्वाचित प्रतिनिधियों का उनको मिले कुछ वोटों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक वोट भी जुटाने को मजबूर करेगा। कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राशि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र के लिए नया खतरा वह पार्टियां बन रही हैं, जो कि राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने के उद्देश्य से अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं। ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्रत्याशी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रशासनिक दिक्कतें व खर्च भी बढ़ता है। ऐसे प्रत्याशी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं। सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘बेवजह उम्मीदवारों’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है। इसके बावजूद चुनाव सुधारों की बात कोई भी राजनीतिक दल नहीं करता है। करे भी क्यों? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं। जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं। ऐसे उम्मीदवार गाड़ियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं। किसी जाति-धर्म या क्षेत्र विशेष के मतों को किसी के पक्ष में एकजुट होने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूटनीति बन गई है।
चुनाव में बड़े राजनीतिक दल भले ही मुद्दा आधारित चुनाव का दावा करते हों, लेकिन हकीकत यह है कि देश के आधे से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों पर निर्भर करता है। ऐसे भी लोगों की संख्या कम नहीं है, जो कि स्थानीय प्रशासन या राजनीति में अपना रसूख दिखाने भर के लिए पर्चा भरते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जब मात्र नामांकन दाखिल कर कुछ लोग लाखों के वारे-न्यारे कर लेते हैं। बहुत से राजनीतिक दल राष्ट्रीय या राय स्तर की मान्यता पाने के लिए तय मत-प्रतिशत पाना चाहते हैं। इस फिराक में वह आंख बंद कर प्रत्याशी मैदान में उतार देते हैं। जेल में बंद अपराधियों का जमानत पाने या फिर कारावास की चारदीवारी से बाहर निकलने के बहाने या फिर मुकदमों के गवाहों और तथ्यों को प्रभावित करने के लिए चुनाव में पर्चा भरना भी एक आम हथकंडा है। विडंबना है कि राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में किसी अन्य दल से आयातित उम्मीदवार आकर चुनाव लड़ जाता है और ग्लैमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों की बदौलत जीत भी जाता है। ऐसे में, सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की संख्या बढ़ी है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राय में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नव-सामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा। इस कदम से सदन में कॉरपोरेट दुनिया के बनिस्पत आम आदमी के सवालों को अधिक जगह मिलेगी। लिहाजा आम आदमी संसद से अपने सरोकारों को समङोगा और ‘कोउ नृप हो हमें क्या हानि’ सोच कर वोट ना देने वाले मध्य वर्ग की मानसकिता भी बदलेगी।
इस समय चुनाव कराना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर यदि पूरे साल देश में कहीं जिला पंचायत के तो कहीं विधानसभा के चुनाव होते रहते हैं। इससे सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही है, सरकार और सरकारी मशीनरी के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम भी आचार संहिता के कारण रुके रहते हैं। ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव (कम से कम दो तो अवश्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एक साथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता को तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी; के आधार पर पांच साल के लिए हो। सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश भी स्थाई और मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच रायों में कम से कम दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोड़ा मंडी’ की रोक का सशक्त जरिया बन सकता है।

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