अर्धसैनिक बलों को तनावमुक्त करना जरूरी है
पंकज चतुर्वेदी
इन दिनों देश के कई अर्धसैनिक बलों व सेना के जवानों के ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं जिनमें उनके भोजन, काम करने के हालात आदि पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि जवानों के साथ यह सब सतत कई दशकों से हो रहा है और इसका किसी सरकार विशेश से कोई वास्ता नहीं है। गौर करें कि बीते दस सालों में फौज के 1018 जवान व अफसर खुदकुशी कर चुके हैं। थल सेना के 119 जवानों ने सन 119 में खुदकुशी कर ली थी , यह आंकड़ा सन 2010 में 101 था। सन 2010 से 2012 के बीच बीएसएफ के 302 जवानों ने आत्महत्या कर ली। आईआईएम के एक षोध में बताया गया है कि हर रोज औसतन पचास जवान नौकरी छोड़ रहे हैं व इसका मूल कारण तनाव है। इसके सबसे ज्यादा जवान बीएसएफ के होते हैं ।
हाल ही में बिहार के नक्सल प्रभावित जिले औरंगाबाद में सीआईएसएफ के एक जवान ने अपने ही चार साथियों को गोली से उड़ा दिया। यदि बंदूक में कारतूस नहीं फंसता तो यह आंकड़ा और ज्यादा हो सकता था। यह नृशंस कांड करने वाले जवान ने छुट्टी के लिए अर्जी दी थी, जिसे नामंजमर कर दिया गया था व उस पर उसी के साथी कुछ तंज कस रहे थे। इससे उत्तेजित हो कर वह जवान अपना आपा खो बैठा। आंकड़े गवाह हैं कि बीते एक दशक में अपने ही लोगों के हाथों या आत्महत्या में मरने वाले सुरक्षाकर्मियों की संख्या देशद्रोहियों से मोर्चा लेने में षहीदों से ज्यादा दूसरी तरफ फौज व सुरक्षा बलों में काबिल अफसरों की कमी, लोगों को नौकरी छोड़ कर जाना और क्वाटर गार्ड या फौजी जेलों में आरोपी कर्मियों की संख्या में इजाफा, अदालतों में मुकदमेंबाजी दिनो-दिन बढ़ रही हैं।
लोग भूल गए होंगे कि मई 2001 में एक फौजी सिपाही सुबाराम को फांसी की सजा सुनाई गई थी क्योंकि उसने अपने अफसर को गोली मार दी थी। असल में सुबाराम अपने साथियों की हत्या करने वाले आतंकवादियों को पनाह देने वालों को हाथों-हाथ सजा देना चाहता था, जबकि राजनीतिक आदेशों से बंधे अफसरों ने ऐसा करने से रोका था। उसके सब्र का बांध टूटा व उसने खुद के अफसर को ही मार डाला। पिछले कुछ सालों के दौरान सीमावर्ती और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ऐसी घटनांए होना आम बात हो गई है जिसमें कोई उन्मादी सिपाही अपने साथियों को मार देता है या फिर खुद की जीवनलीला समाप्त कर लेता है। इन घटनाओं से आ रही दूरगामी चेतावनी की घंटी को अंग्रेजी कायदेां मे ंरचे-पगे फौजी आलाकमान ने कभी सलीके से सुनने की कोशिश ही नहीं की, जबकि फौजी के षौर्य और बलिदान से छितरे खून को अपना वोट बैंक में बदलने को तत्पर नेता इसे जानबूझ कर अनसुना करते हैं। सेना व अर्ध सैनिक बल के आला अफसरों पर लगातार विवाद होना, उन पर घूसखोरी के आरोप,सीमा या उपद्रवग्रस्त इलाकों में जवानों को माकूल सुविधाएं या स्थानीय मदद ना मिलने के कारण उनके साथियों की मौतों, सिपाही स्तर पर भर्ती में घूसखोरी की खबरों आदि के चलते अनुशासन की मिसाल कहे जाने वाले हमारे सुरक्षा बल(जिनमें फौज व अर्ध सैनिक बल षामिल हैं) का मनोबल गिरा है।
बीते दस सालों में फौज के 1018 जवान व अफसर खुदकुशी कर चुके हैं। थल सेना के 119 जवानों ने सन 119 में खुदकुशी कर ली थी , यह आंकड़ा सन 2010 में 101 था। केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के 42 जवानों ने 2011 में और 28 ने 2010 में आत्म हत्या की थी। बीएसएफ में यह आंकड़ा 39 और 29(क्रमशः 2011 व 2010) रही है। इंडो तिब्बत सीमा बल यानी आईटीबीपी में 3 और पांच लोगों ने क्रमशः सालों में आत्म हत्या की। वहीं अपने साथी को ही मार देने के औसतन बीस मामले हर साल सभी बलों में मिल कर सामने आ रहे हैं। ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दस साल पहले एक जांच दल बनाया था जिसकी रिपोर्ट जून -2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं । इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप , शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी-2009 से दिसंबर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस यानि सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्म हत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी 100 से पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं खुद से ही जूझ रही है। सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं , ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाशा- संस्कार की जानकारी होती है और ना ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया हे। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व षोशण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहा दुश्मन अद्श्य है, हर दूसरे इंसान पर षक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों मैं। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है।
सनद रहे सेना कभी आक्रमण के लिए और अर्धसैनिक बल निगरानी व सुरक्षा के लिए हुआ करते थे, लेकिन आज फौज की तैनाती और आपरेशन में राजनैतिक हितों के हावी होने का परिणाम है कि कश्मीर में फौज व अर्ध्य सैनिक बल चौबीसों घंटे तनावग्रस्त रहते हें। एक तरफ अफसरों के मौखिक आदेश हैं तो दूसरी ओर बेकाबू आतंकवादी, तीसरी तरफ सियासती दांवपेंच हैं तो चौथी ओर घर-परिवार से लगातार दूर रहने की चिंता। यही नहीं यदि कियी जवान से कुछ गलती या अपराध हो जाए तो उसके साथ न्याय यानी कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया भी गौरतलब हैं। पहले से तय हो जाता हे कि मूुजरिम ने अपराध किया है और उसे कितनी सजा देनी है। इधर फौजी क्वाटर गार्ड में नारकीय जीवन बिताता है तो दूसरी ओर उसके परिवार वालों को खबर तक नहीं दी जाती। नियमानुसार अरोपी के परिवाजन को ‘चार्ज षीट’ के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि वे उसके बचाव की व्यवस्था कर सकें। लेकिन अधिकांश मामलों में सजा पूरी होने तक घर वालों को सूचना ही नहीं दी जाती है। उल्लेखनीय है कि अधिकांश जवान दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से बेहद कम आय वाले परिवारों से आते हैं।
सुदूर इलाकों में अपने अर्धसैनिक बलों के पदस्थापना वाले स्थानों पर मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राजय से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसल होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों ने उनका शिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ ‘इयर फोन‘ लगा कर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट मे ंयह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असरुक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख ना जान पाने की दर्द भी उनको ंभीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और ना ही जवान के पास उसके लिए समय है।
देश में अभी भी फौजी व अर्ध सैनिक बलों की वर्दी के प्रति विश्वास बचा हुआ है , षायद इस लिए के आम फौजी समाज से ज्यादा घुल-मिल नहीं पाता है और ना ही अपना दर्द बयां कर पाता है। वहां की अंदरूनी कहानी कुछ और है। किसी भी बल की आत्मा कहे जाने वाला सिपाही-वर्ग अपने ही अफसर के हाथों षोशण व उत्पीडन का शिकार होता हे। देहरादून, महु, पुणे, चंडीगढ़ जैसी फौजी बस्तियों में सेना के आला रिटायर्ड अफसरों की कोठियों के निर्माण में रंगरूट यानी नयी भर्ती वाला जवान ईंट-सीमेंट की तगारियों ढोते मिल जाएगा। जिस सिपाही को देश की चौकसी के लिए तैयार किया जाता है वह डेढ सौ रूप्ए रोज के मजदूरों की जगह काम करने पर मजबूर होता है। रक्षा मंत्रालय हर साल कई-कई निर्देश सभी यूनीटों में भेजता है कि फौजी अफसर अपने घरों में सिपाहियों को बतौर बटमेन( घरेलू नौकर) ना लगाएं, फिर भी बीस-पच्चीस हजार का वेतन पाने वाले दो-तीन जवान हर अफसर के घर सब्जी ढोते मिल जाते हैं। ऐसे ही हालता अर्ध सैनिक बलों के भी है।।
आमतौर पर जवानों को अपने घर-परिवार को साथ रखने की सुविधा नहीं होती हे। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि गैर अधिकारी वर्ग के अस्सी फीसदी सुरक्षाकर्मी छावनी इलाकों में घुटनभरे कमरे में मच्छरदानी लगी एक खटिया, उसके नीचे रखा बड़ा सा बक्सा में ही अपना जीवन काटते हैं उसके ठीक सामने अफसरों की ‘‘पांच सितारा मैस’’ होती है। सेना व अर्ध सैनिक मामलों को राश्ट्रहित का बता कर उसे अतिगोपनीय कह दिया जाता है और ऐसी दिक्कतों पर अफसर व नेता सार्वजनिक बयान देने से बचते हैं। जबकि वहां मानवाधिकारों और सेवा नियमों का जम कर उल्लंघन होता रहता है। आज विभिन्न हाई कोर्ट में सैन्य बलों से जुड़े आठ हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं। अकेले सन 2009 में सुरक्षा बलों के 44 हजार लोगों द्वारा इस्तीफा देने, जिसमें 36 हजार सीआरपीएफ व बीएसएफ के हैं, संसद में एक सवाल में स्वीकारा गया है।
साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर मुल्क के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जागरूकता व सतर्कता की जरूरत है। जवानों को नियमित अवकाश और अफसरों से संवाद का बेहतर अवसर मिले, घर से दूर अकेले रह रहे जवानों के परिवारों को यदि उनके गांव कस्बे में कोई दिक्कत हो तो स्थानीय प्रशासन संवेदनशीलता से उससे निबटे, जवानों को चौकसी, बचाव व हमले के अत्याधुनिक उपकरण व प्रशिक्षण मिले , उनके मनोरंजन, चिकित्सा की त्वरित व सटीक व्यवस्था हो तो हमारा जवान हर तरह की चुनौती से दुगने साहस के साथ जूझ लेगा।
पंकज चतुर्वेदी
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पंकज चतुर्वेदी
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हाल ही में बिहार के नक्सल प्रभावित जिले औरंगाबाद में सीआईएसएफ के एक जवान ने अपने ही चार साथियों को गोली से उड़ा दिया। यदि बंदूक में कारतूस नहीं फंसता तो यह आंकड़ा और ज्यादा हो सकता था। यह नृशंस कांड करने वाले जवान ने छुट्टी के लिए अर्जी दी थी, जिसे नामंजमर कर दिया गया था व उस पर उसी के साथी कुछ तंज कस रहे थे। इससे उत्तेजित हो कर वह जवान अपना आपा खो बैठा। आंकड़े गवाह हैं कि बीते एक दशक में अपने ही लोगों के हाथों या आत्महत्या में मरने वाले सुरक्षाकर्मियों की संख्या देशद्रोहियों से मोर्चा लेने में षहीदों से ज्यादा दूसरी तरफ फौज व सुरक्षा बलों में काबिल अफसरों की कमी, लोगों को नौकरी छोड़ कर जाना और क्वाटर गार्ड या फौजी जेलों में आरोपी कर्मियों की संख्या में इजाफा, अदालतों में मुकदमेंबाजी दिनो-दिन बढ़ रही हैं।
लोग भूल गए होंगे कि मई 2001 में एक फौजी सिपाही सुबाराम को फांसी की सजा सुनाई गई थी क्योंकि उसने अपने अफसर को गोली मार दी थी। असल में सुबाराम अपने साथियों की हत्या करने वाले आतंकवादियों को पनाह देने वालों को हाथों-हाथ सजा देना चाहता था, जबकि राजनीतिक आदेशों से बंधे अफसरों ने ऐसा करने से रोका था। उसके सब्र का बांध टूटा व उसने खुद के अफसर को ही मार डाला। पिछले कुछ सालों के दौरान सीमावर्ती और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ऐसी घटनांए होना आम बात हो गई है जिसमें कोई उन्मादी सिपाही अपने साथियों को मार देता है या फिर खुद की जीवनलीला समाप्त कर लेता है। इन घटनाओं से आ रही दूरगामी चेतावनी की घंटी को अंग्रेजी कायदेां मे ंरचे-पगे फौजी आलाकमान ने कभी सलीके से सुनने की कोशिश ही नहीं की, जबकि फौजी के षौर्य और बलिदान से छितरे खून को अपना वोट बैंक में बदलने को तत्पर नेता इसे जानबूझ कर अनसुना करते हैं। सेना व अर्ध सैनिक बल के आला अफसरों पर लगातार विवाद होना, उन पर घूसखोरी के आरोप,सीमा या उपद्रवग्रस्त इलाकों में जवानों को माकूल सुविधाएं या स्थानीय मदद ना मिलने के कारण उनके साथियों की मौतों, सिपाही स्तर पर भर्ती में घूसखोरी की खबरों आदि के चलते अनुशासन की मिसाल कहे जाने वाले हमारे सुरक्षा बल(जिनमें फौज व अर्ध सैनिक बल षामिल हैं) का मनोबल गिरा है।
बीते दस सालों में फौज के 1018 जवान व अफसर खुदकुशी कर चुके हैं। थल सेना के 119 जवानों ने सन 119 में खुदकुशी कर ली थी , यह आंकड़ा सन 2010 में 101 था। केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल यानी सीआरपीएफ के 42 जवानों ने 2011 में और 28 ने 2010 में आत्म हत्या की थी। बीएसएफ में यह आंकड़ा 39 और 29(क्रमशः 2011 व 2010) रही है। इंडो तिब्बत सीमा बल यानी आईटीबीपी में 3 और पांच लोगों ने क्रमशः सालों में आत्म हत्या की। वहीं अपने साथी को ही मार देने के औसतन बीस मामले हर साल सभी बलों में मिल कर सामने आ रहे हैं। ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दस साल पहले एक जांच दल बनाया था जिसकी रिपोर्ट जून -2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं । इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप , शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी-2009 से दिसंबर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस यानि सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्म हत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी 100 से पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं खुद से ही जूझ रही है। सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं , ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाशा- संस्कार की जानकारी होती है और ना ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया हे। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा-निर्देश पर ही काम करते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व षोशण की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है। बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहा दुश्मन अद्श्य है, हर दूसरे इंसान पर षक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास, अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश। इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों मैं। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है।
सनद रहे सेना कभी आक्रमण के लिए और अर्धसैनिक बल निगरानी व सुरक्षा के लिए हुआ करते थे, लेकिन आज फौज की तैनाती और आपरेशन में राजनैतिक हितों के हावी होने का परिणाम है कि कश्मीर में फौज व अर्ध्य सैनिक बल चौबीसों घंटे तनावग्रस्त रहते हें। एक तरफ अफसरों के मौखिक आदेश हैं तो दूसरी ओर बेकाबू आतंकवादी, तीसरी तरफ सियासती दांवपेंच हैं तो चौथी ओर घर-परिवार से लगातार दूर रहने की चिंता। यही नहीं यदि कियी जवान से कुछ गलती या अपराध हो जाए तो उसके साथ न्याय यानी कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया भी गौरतलब हैं। पहले से तय हो जाता हे कि मूुजरिम ने अपराध किया है और उसे कितनी सजा देनी है। इधर फौजी क्वाटर गार्ड में नारकीय जीवन बिताता है तो दूसरी ओर उसके परिवार वालों को खबर तक नहीं दी जाती। नियमानुसार अरोपी के परिवाजन को ‘चार्ज षीट’ के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि वे उसके बचाव की व्यवस्था कर सकें। लेकिन अधिकांश मामलों में सजा पूरी होने तक घर वालों को सूचना ही नहीं दी जाती है। उल्लेखनीय है कि अधिकांश जवान दूरस्थ ग्रामीण अंचलों से बेहद कम आय वाले परिवारों से आते हैं।
सुदूर इलाकों में अपने अर्धसैनिक बलों के पदस्थापना वाले स्थानों पर मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राजय से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसल होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों ने उनका शिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ ‘इयर फोन‘ लगा कर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट मे ंयह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असरुक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख ना जान पाने की दर्द भी उनको ंभीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और ना ही जवान के पास उसके लिए समय है।
देश में अभी भी फौजी व अर्ध सैनिक बलों की वर्दी के प्रति विश्वास बचा हुआ है , षायद इस लिए के आम फौजी समाज से ज्यादा घुल-मिल नहीं पाता है और ना ही अपना दर्द बयां कर पाता है। वहां की अंदरूनी कहानी कुछ और है। किसी भी बल की आत्मा कहे जाने वाला सिपाही-वर्ग अपने ही अफसर के हाथों षोशण व उत्पीडन का शिकार होता हे। देहरादून, महु, पुणे, चंडीगढ़ जैसी फौजी बस्तियों में सेना के आला रिटायर्ड अफसरों की कोठियों के निर्माण में रंगरूट यानी नयी भर्ती वाला जवान ईंट-सीमेंट की तगारियों ढोते मिल जाएगा। जिस सिपाही को देश की चौकसी के लिए तैयार किया जाता है वह डेढ सौ रूप्ए रोज के मजदूरों की जगह काम करने पर मजबूर होता है। रक्षा मंत्रालय हर साल कई-कई निर्देश सभी यूनीटों में भेजता है कि फौजी अफसर अपने घरों में सिपाहियों को बतौर बटमेन( घरेलू नौकर) ना लगाएं, फिर भी बीस-पच्चीस हजार का वेतन पाने वाले दो-तीन जवान हर अफसर के घर सब्जी ढोते मिल जाते हैं। ऐसे ही हालता अर्ध सैनिक बलों के भी है।।
आमतौर पर जवानों को अपने घर-परिवार को साथ रखने की सुविधा नहीं होती हे। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि गैर अधिकारी वर्ग के अस्सी फीसदी सुरक्षाकर्मी छावनी इलाकों में घुटनभरे कमरे में मच्छरदानी लगी एक खटिया, उसके नीचे रखा बड़ा सा बक्सा में ही अपना जीवन काटते हैं उसके ठीक सामने अफसरों की ‘‘पांच सितारा मैस’’ होती है। सेना व अर्ध सैनिक मामलों को राश्ट्रहित का बता कर उसे अतिगोपनीय कह दिया जाता है और ऐसी दिक्कतों पर अफसर व नेता सार्वजनिक बयान देने से बचते हैं। जबकि वहां मानवाधिकारों और सेवा नियमों का जम कर उल्लंघन होता रहता है। आज विभिन्न हाई कोर्ट में सैन्य बलों से जुड़े आठ हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं। अकेले सन 2009 में सुरक्षा बलों के 44 हजार लोगों द्वारा इस्तीफा देने, जिसमें 36 हजार सीआरपीएफ व बीएसएफ के हैं, संसद में एक सवाल में स्वीकारा गया है।
साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर मुल्क के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनशील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जागरूकता व सतर्कता की जरूरत है। जवानों को नियमित अवकाश और अफसरों से संवाद का बेहतर अवसर मिले, घर से दूर अकेले रह रहे जवानों के परिवारों को यदि उनके गांव कस्बे में कोई दिक्कत हो तो स्थानीय प्रशासन संवेदनशीलता से उससे निबटे, जवानों को चौकसी, बचाव व हमले के अत्याधुनिक उपकरण व प्रशिक्षण मिले , उनके मनोरंजन, चिकित्सा की त्वरित व सटीक व्यवस्था हो तो हमारा जवान हर तरह की चुनौती से दुगने साहस के साथ जूझ लेगा।
पंकज चतुर्वेदी
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