पुराने तालाबों की किसे है चिंता
अनुमान के तौर पर मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था और वह भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राय में 39 हजार तालाब होने की बात अंग्रेजों का राजस्व रिकॉर्ड दर्शाता है, लेकिन इनमें यादातर का अस्तित्व अब खत्म हो चुका है। अहम सवाल यह है कि शेष जलाशयों को कैसे बचाया जाए
देश के वित्त मंत्री ने संसद में सालाना बजट पेश करते हुए बताया कि बीते एक साल के दौरान मनरेगा के तहत पांच लाख तालाब खोद दिए गए। आगे फरवरी-2018 तक ऐसे ही पांच लाख तालाब यानी कुल दस लाख तालाब, मनरेगा के तहत खोद दिए जाएंगे। जब इतने जिम्मेदार मंत्री संसद में यह बात बोल रहे हैं तो जाहिर है इस ‘जल-क्रांति’ पर शक का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है। मान लिया जए कि ये वे कुंड हैं जिन्हें खेत में खोदा जा रहा है और उन्हें ‘खेत तालाब’ कह दिया जा रहा है; तो भी यह बरसात के पानी को बचाने के साथ जमीन की नमी बरकरार रखने का शानदार काम है। यदि आने वाले वर्षो में पानी कम भी बरसे तो अब किसान को सूखे की चिंता कम ही होगी। अछी बात है कि किसी सरकार ने लगभग 73 साल पुरानी एक ऐसी रिपोर्ट पर अमल करने की सोची जोकि 1943 के भयंकर बंगाल अकाल में तीन लाख से यादा मौत होने के बाद ब्रिटिश सरकार की ओर से गठित एक आयोग की सिफारिशों में थी। 1944 में आई अकाल जांच आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत जैसे देश में नहरों से सिंचाई के बनिस्पत तालाब खोदने व उनके रखरखाव की यादा जरूरत है। 1943 में ‘ग्रो मोर कैंपेन’ चलाया गया था जोकि बाद में देश की पहली पंचवर्षीय योजना का हिस्सा बना, उसमें भी लघु सिंचाई परियोजनाओं यानी तालाबों की बात कही गई थी। उसके बाद भी कई-कई योजनाएं बनीं। मध्य प्रदेश जैसे राय में ‘सरोवर हमारी धरोहर’ जैसे अभियान चले। लेकिन दिल्ली हो या बेंगलुरु या फिर छतरपुर या लखनऊ सभी जगह विकास के लिए रोपी गई कॉलोनियां, सड़कों, कारखानों, फ्लाई ओवरों को तालाब को समाप्त कर ही बनाया गया। अनुमान के तौर पर मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था और वह भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राय में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का राजस्व रिकॉर्ड दर्शाता है।बुंदेलखंड के सूखे के लिए सबसे यादा पलायन के लिए बदनाम टीकमगढ़ जैसे छोटे से जिले में हजार से यादा तालाब होने और इनमें से 400 से यादा गुम हो जाने का रिकॉर्ड तो अब भी मौजूद है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं, इनमें भी पानी की मात्र न के बराबर है। दिल्ली में अंग्रेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया। देशभर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की वर्ष 2000-01 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से यादा है, आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। इतने तालाब बनवाने का खर्च आज कई लाख करोड़ बैठेगा। सनद रहे ये तालाब मनरेगा वाले छोटे से गड्ढे नहीं हैं, इनमें से अधिकांश कई-कई वर्ग किलोमीटर तक फैले हुए हैं।
वर्ष 2001 में देश की 58 पुरानी झीलों को पानीदार बनाने के लिए केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रलय ने राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना शुरू की थी। इस योजना में कुल 883.3 करोड़ रुपये का प्रावधान था। इसके तहत मध्य प्रदेश की सागर झील, रीवा का रानी तालाब और शिवपुरी झील, कर्नाटक के 14 तालाबों, नैनीताल की दो झीलों सहित 58 तालाबों की गाद सफाई के लिए पैसा बांटा गया। इसमें राजस्थान के पुष्कर का कुंड और धरती पर जन्नत कही जाने वाली श्रीनगर की डल झील भी थी। झील सफाई का पैसा पश्चिम बंगाल और पूवरेत्तर रायों को भी गया। अब सरकार ने मापा तो पाया कि इन सभी तालाबों से गाद निकली गई या नहीं, किसी को इसकी जानकारी नहीं। लेकिन इसमें पानी पहले से भी कम हो गया। केंद्रीय जल आयोग ने जब पड़ताल की तो कई तथ्य सामने आए। कई जगह तो गाद निकाली ही नहीं गई जबकि उसकी ढुलाई पर पैसा खर्च हो गया। कुछ जगह गाद निकाल कर किनारों पर ही छोड़ दी, जोकि अगली बारिश में फिर तालाब में गिर गई। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और मरम्मत के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया। राय सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमे तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं। मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी जबकि तालाब पर्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है। सबसे बड़े सवाल खड़े हुए खेत-तालाब योजना पर। इस योजना में उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछली गर्मी में कुल एक लाख पांच हजार का व्यय माना और इसका आधा सरकार ने जमा किया। कहा गया कि आधा किसान वहन करता है। रिवई पंचायत, महोबा से कानपुर जाने वाले मुख्य मार्ग पर है और इसमें तीन गांव आते हैं। यहां खेतों में अभी तक 25 तालाब बने। इनमें से अधिकांश तालाब गांव के रसूखदार लोगों के खेत में हैं।
तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिश का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आने और जाने की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का ख्याल रखना जरूरी होता है। राजस्थान के लापोरिया में कई तालाब बनाने वाले लक्ष्मण सिंह का कहना है कि इस संरचना को तालाब नहीं कहते हैं। इस तरह की आकृति भले ही तात्कालिक रूप से जमीन की नमी बनाए रखने या सिंचाई में काम आए, लेकिन इसकी आयु यादा नहीं होती। दूसरा, यदि पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोदें तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, दल-दल बनाएगा और फिर उससे न केवल जमीन की उर्वरकता नष्ट होगी, बल्कि उसमें पाए जाने वाले प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे। कल्पना करें, पांच लाख तालाब। यदि एक तालाब एक एकड़ का है तो, घट रही खेती की जमीन में पांच लाख एकड़ की सीधे कमी हो जाएगी। शुरुआत में भले ही अछे परिणाम आएं, लेकिन यदि नमी, दलदल, लवण बहने का सिलसिला अगर पंद्रह साल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है। दीर्घकालीन जल-प्रबंधन के लिए पारंपरकि जल संरचनओं को सहेजना होगा।
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