विडंबना है कि उच्च स्तर पर बैठे लोगों ने महाराष्ट्र की एनटीपीसी परियोजनाओं से कुछ नहीं सीखा। महाराष्ट्र में 16,500 मेगावाट के करीब 14 संयंत्र ऐसे हैं, जो कोयले पर आधारित हैं। इनमें से 13,000 मेगावाट के प्लांट जल-संकट वाले इलाकों में हैं और उनमें से अधिकांश पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है। महागेंसो परली प्लांट तो पानी की कमी के कारण सन 2015 में ही बंद हो गया था, जबकि रायचूर का केपीसीएच प्लांट अप्रैल से ठप्प पड़ा है। कोयला से बिजली बनाने के प्लांट किसान की सिंचाई के हिस्से का पानी निचोड़ते हैं, साथ ही प्लांट से निकला बेकार पानी जल के संसाधनों को दूषित भी करता है। जिस बुंदेलखंड में जल संकट के चलते 40 फीसदी आबादी घर छोड़कर पलायन कर चुकी हो, वहां बरेठी के प्लांट का आखिर क्या भविष्य है?
केन और बेतवा को जोड़कर इलाके की बरसाती या पहाड़ी नदियों का पानी यमुना के जरिये समुद्र में मिलने से रोकने की महत्वाकांक्षी योजना केन-बेतवा नदी का जोड़ किसी के गले नहीं उतर रहा है। तमाम जानकार दो अलग-अलग स्वभाव की नदियों को जोड़ने का विरोध कर रहे हैं। इसका मुख्य बांध पन्ना टाइगर रिजर्व के डोंदन गांव में बनना है। इस बांध और उससे निकली नहरों के कारण सवा पांच हजार हेक्टेयर जंगल समाप्त हो जाएंगे। कई गांव पूरी तरह डूबेंगे और फसल देने वाली जमीन के जलमग्न होने का तो हिसाब ही नहीं है। केन-बेतवा लिंक परियोजना में चार बांध का प्रस्ताव हैं। केन नदी पर प्रस्तावित ढोढन बांध की ऊंचाई 77 मीटर होगी, जिसकी जलग्रहण क्षमता 19,633 वर्ग किलोमीटर होगी। इससे यहां बसे सुकुवाहा, भावरखुवा, घुगारी, वसोदा, कुपी, शाहपुरा, डोंदन, पल्कोहा, खरयानी, मेनारी जैसे गांवों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। बांध से 221 किलोमीटर लंबी मुख्य नहर उत्तर प्रदेश के बरुआ सागर में जाकर मिलेगी। इस नहर से 1074 एमसीएम पानी प्रतिवर्ष भेजा जाएगा, जिसमें से 659 एमसीएम पानी बेतवा नदी में पहुंचेगा। देश भर की बड़ी सिंचाई परियोजनाएं बताती हैं कि बड़े बजट वाली बड़ी योजनाएं साल-दर-साल अपनी लागत बढ़ाती हैं। जब वे काम करने लायक होती हैं, तब तक जलवायु, जनसंख्या, भौगोलिक परिस्थितियां, सब कुछ बदल जाती हैं और अरबों रुपये पानी में जाते दिखते हैं।
हमारा तंत्र यह तय नहीं कर पा रहा है कि जल संकट से जूझ रहे इलाकों में किस तरह के काम-धंधे, रोजगार या खेती हो। मराठवाड़ा में अब ज्यादा पानी मांगने वाली गन्ने की खेती से लोग तौबा कर चुके हैं, तो बुंदेलखंड में लोग सोयाबीन बोने से बच रहे हैैं। अब बारी है सरकारी समझदारी की कि बेहिसाब पानी पीकर चुटकी भर परिणाम देने वाली परियोजनाओं पर फिर से विचार हो।
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