फिर सूखे की ओर बढ़ रहा है बुंदेलखंड
बीते कई दशकों की ही तरह इस बार भी गरमी शुरू होते ही बुंदेलखंड में जल संकट, पलायन और बेबसी की खबरें हवा में तैरने लगी हैं। कोई अलग राज्य को ही इसका एकमात्र हल मान रहा है तो कोई सरकारी उपेक्षा का उलाहना दे रहा है। यह तो अब तय हो गया है कि हजारों करोड़ के स्पेशल पैकेज से बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही। कई बार तो भारत-भाग्य-विधाता की मंशा पर ही शक होता है कि वे इस इलाके के विकास या सूखा-संकट के निराकरण के लिए कटिबद्ध हैं या नहीं। यदि समस्या नहीं रही तो विशेष पैकेज या ज्यादा बजट की मांग कैसे हो सकेगी? यदि पलायन नहीं होगा तो दिल्ली, पंजाब आदि में निर्माण कार्य में सस्ते मजदूर कैसे मिलेंगे। अब यहां के वाशिंदों को ही तय करना होगा कि वे कैसा बुंदेलखंड चाहते हैं। यह जान लें कि यहां पानी तो इतना ही बरसेगा, यह भी जान लें कि आधुनिक इंजीनियरिंग व तकनीक यहां कारगर नहीं है। असल में यहां सूखा पानी का नहीं है, पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। बुंदेलखंड में अभी से जल संकट चरम पर है, जबकि अगली बारिश में अभी कम से कम पचास दिन बकाया हैं। हालांकि पिछले मौसम में यहां इंद्रदेव ने अच्छी कृपा बरसाई थी, खेतों में भी अच्छी पैदावार हुई है, लेकिन इस साल मार्च के अंत तक मवेशियों को छुट्टा छोड़ना पडा़, क्योंकि गांव-मजरे के जलस्रोत चुक गए। जंगल से बंदर से लेकर तेंदुए तक बस्ती की ओर आ रहे हैं, क्योंकि उनके प्राकृतिक पर्यावास में पानी खत्म हो रहा है। शहरी नल-जल योजनाएं चित्त हो गईं व हैंडपंप रीते। जनता या तो पलायन कर रही है या हल्ला और अफसरान इसके लिए अधिक बजट के कागज बना रहे हैं। असल में हमारे नीतिकार यह समझ नहीं पा रहे हैं कि बुंदेलख्ंाड का संकट अकेले पानी की कमी का नहीं है, वहां का संपूर्ण पर्यावरणीय चक्र लगातार अल्पवर्षा के कारण नष्ट हो गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के वाशिंदे शामिल हैं। इन सभी पक्षों के क्षरण को थामने के एकीकृत प्रयास के बगैर यहां के हालत सुधरेंगे नहीं, चाहे यहां के सभी नदी-तालाब पानी से लबालब भी हो जाएं।
बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है- चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए। बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह चार दशक पहले पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाले पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया। आज जहां पहाड़ होना था, वहां गहरी खाइयां हैं। पहाड़ उजड़े तो उसकी तली में सजे तालाबों में पानी कहां से आता व उनको रीत रहना ही था।
इस तरह गांवों की अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे, बंुदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। सूखे से बेहाल बुंदेलखंड का एक जिला है छतरपुर। यहां सरकारी रिकार्ड में 10 लाख 32 हजार चौपाए दर्ज है,ं जिनमें से सात लाख से ज्यादा तो गाय-भैंस ही हैं। तीन लाख के लगभग बकरियां हैं। चूंकि बारिश न होने के कारण कहीं घास तो बची नहीं है, सो अनुमान है कि इन मवेशियों के लिए हर महीने 67 लाख टन भूसे की जरूरत है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। यह केवल एक जिले का हाल नहीं है, दो राज्यों में विस्तारित समूचे बुंदेलखंड के 12 जिलों में दूध देने वाले चौपायों के हालात भूख-प्यास व कोताही के हैं। आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिन से चारा न मिलने या पानी न मिलने या फिर इसके कारण भड़क कर हाईवे पर आने से होने वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेशी मर रहे हैं। आने वाले गर्मी के दिन और भी बदतर होंगे, क्योंकि तापमान भी बढ़ेगा। मवेशी न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार होते हैं, बल्कि उनके खुरों से जमीन का बंजरपन भी समाप्त होता है। सूखे के कारण पत्थर हो गई भूमि पर जब गाय के पग पड़ते हैं तो वह जल सोखने लायक भुरभुरी होती है। विडंबना है कि समूचे बुंदेलखंड में सार्वजनिक गौचर भूमियों पर जमकर कब्जे हुए और आज गौपालकों के सामने उनका पेट भरने का संकट है, तभी इन दिनों लाखोंलाख गाएं सड़कों पर आवारा घूम रही हैं। जब तक गौचर, गाय और पशु पालक को संरक्षण नहीं मिलेगा, बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही।
कभी बुंदेलखंड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है। छतरपुर सहित कई जिलों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी भी दो सौ किलोमीटर दूर से मंगवानी पड़ रही है। यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंड़ो की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखें। ये आदिवासी वनोपज से जीविकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईंधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई। ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्पवर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे। संयुक्त बुदेलखंड कोई 1.60 लाख वर्गकिमी क्षेत्रफल में फैला है, जिसकी आबादी तीन करोड़ से अधिक हैं। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदाने हैं, जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता है। दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं, उसमें अधिकांश में गारा-गुम्मा यानी मिट्टी और ईंट का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं। शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं। जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्षा से अधिक कर उगाह कर देता है, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता है। बुंदेलखंड के पन्ना में हीरे की खदानें हैं, यहां का ग्रेनाइट दुनियाभर में धूम मचाए है। यहां की खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट का पत्थर, रेत-बजरी के भंडार हैं। इलाके के गांव-गांव में तालाब हैं, जहां कि मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है। आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं।
लुटियन की दिल्ली की विशाल इमारतें यहां के आदमी की मेहनत की साक्षी हैं। खजुराहो, झांसी, ओरछा जैसे पर्यटन स्थल सालभर विदेशी घुमक्कड़ों को आकर्षित करते हैं। अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड मिलाकर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा करवाते हैं, लेकिन इलाके के विकास पर इसका दस फीसदी भी खर्च नहीं होता है।बुंदेलखंड की असली समस्या अल्पवर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढि़यों से होता रहा है। पहले यहां के वाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं... सभी को। यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पहाड़ कटने से रोकना, पारंपरिक बिरादरी के पेड़ों ंवाले जंगलों को सहेजना, पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना...महज ये पांच उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोककर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जलसंकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जलस्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।यदि बंुदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों, जंगलों और गौचर का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हटकर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहंुचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में बेतवा, केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं, जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांधकर या नदियों को पारंपरिक तालाबों से जोड़कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रुपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बंुदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। अब चाहे राज्य अलग बने या नहीं, यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनया गया तो न तो सूरत बदलेगी और न ही सीरत।
बीते कई दशकों की ही तरह इस बार भी गरमी शुरू होते ही बुंदेलखंड में जल संकट, पलायन और बेबसी की खबरें हवा में तैरने लगी हैं। कोई अलग राज्य को ही इसका एकमात्र हल मान रहा है तो कोई सरकारी उपेक्षा का उलाहना दे रहा है। यह तो अब तय हो गया है कि हजारों करोड़ के स्पेशल पैकेज से बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही। कई बार तो भारत-भाग्य-विधाता की मंशा पर ही शक होता है कि वे इस इलाके के विकास या सूखा-संकट के निराकरण के लिए कटिबद्ध हैं या नहीं। यदि समस्या नहीं रही तो विशेष पैकेज या ज्यादा बजट की मांग कैसे हो सकेगी? यदि पलायन नहीं होगा तो दिल्ली, पंजाब आदि में निर्माण कार्य में सस्ते मजदूर कैसे मिलेंगे। अब यहां के वाशिंदों को ही तय करना होगा कि वे कैसा बुंदेलखंड चाहते हैं। यह जान लें कि यहां पानी तो इतना ही बरसेगा, यह भी जान लें कि आधुनिक इंजीनियरिंग व तकनीक यहां कारगर नहीं है। असल में यहां सूखा पानी का नहीं है, पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। बुंदेलखंड में अभी से जल संकट चरम पर है, जबकि अगली बारिश में अभी कम से कम पचास दिन बकाया हैं। हालांकि पिछले मौसम में यहां इंद्रदेव ने अच्छी कृपा बरसाई थी, खेतों में भी अच्छी पैदावार हुई है, लेकिन इस साल मार्च के अंत तक मवेशियों को छुट्टा छोड़ना पडा़, क्योंकि गांव-मजरे के जलस्रोत चुक गए। जंगल से बंदर से लेकर तेंदुए तक बस्ती की ओर आ रहे हैं, क्योंकि उनके प्राकृतिक पर्यावास में पानी खत्म हो रहा है। शहरी नल-जल योजनाएं चित्त हो गईं व हैंडपंप रीते। जनता या तो पलायन कर रही है या हल्ला और अफसरान इसके लिए अधिक बजट के कागज बना रहे हैं। असल में हमारे नीतिकार यह समझ नहीं पा रहे हैं कि बुंदेलख्ंाड का संकट अकेले पानी की कमी का नहीं है, वहां का संपूर्ण पर्यावरणीय चक्र लगातार अल्पवर्षा के कारण नष्ट हो गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के वाशिंदे शामिल हैं। इन सभी पक्षों के क्षरण को थामने के एकीकृत प्रयास के बगैर यहां के हालत सुधरेंगे नहीं, चाहे यहां के सभी नदी-तालाब पानी से लबालब भी हो जाएं।
बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है- चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखंड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए। बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह चार दशक पहले पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाले पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया। आज जहां पहाड़ होना था, वहां गहरी खाइयां हैं। पहाड़ उजड़े तो उसकी तली में सजे तालाबों में पानी कहां से आता व उनको रीत रहना ही था।
इस तरह गांवों की अर्थव्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे, बंुदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। सूखे से बेहाल बुंदेलखंड का एक जिला है छतरपुर। यहां सरकारी रिकार्ड में 10 लाख 32 हजार चौपाए दर्ज है,ं जिनमें से सात लाख से ज्यादा तो गाय-भैंस ही हैं। तीन लाख के लगभग बकरियां हैं। चूंकि बारिश न होने के कारण कहीं घास तो बची नहीं है, सो अनुमान है कि इन मवेशियों के लिए हर महीने 67 लाख टन भूसे की जरूरत है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। यह केवल एक जिले का हाल नहीं है, दो राज्यों में विस्तारित समूचे बुंदेलखंड के 12 जिलों में दूध देने वाले चौपायों के हालात भूख-प्यास व कोताही के हैं। आए रोज गांव-गांव में कई-कई दिन से चारा न मिलने या पानी न मिलने या फिर इसके कारण भड़क कर हाईवे पर आने से होने वाली दुर्घटनाओं के चलते मवेशी मर रहे हैं। आने वाले गर्मी के दिन और भी बदतर होंगे, क्योंकि तापमान भी बढ़ेगा। मवेशी न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार होते हैं, बल्कि उनके खुरों से जमीन का बंजरपन भी समाप्त होता है। सूखे के कारण पत्थर हो गई भूमि पर जब गाय के पग पड़ते हैं तो वह जल सोखने लायक भुरभुरी होती है। विडंबना है कि समूचे बुंदेलखंड में सार्वजनिक गौचर भूमियों पर जमकर कब्जे हुए और आज गौपालकों के सामने उनका पेट भरने का संकट है, तभी इन दिनों लाखोंलाख गाएं सड़कों पर आवारा घूम रही हैं। जब तक गौचर, गाय और पशु पालक को संरक्षण नहीं मिलेगा, बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही।
कभी बुंदेलखंड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है। छतरपुर सहित कई जिलों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी भी दो सौ किलोमीटर दूर से मंगवानी पड़ रही है। यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंड़ो की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखें। ये आदिवासी वनोपज से जीविकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईंधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई। ठेकेदारों ने जमकर जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्पवर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे। संयुक्त बुदेलखंड कोई 1.60 लाख वर्गकिमी क्षेत्रफल में फैला है, जिसकी आबादी तीन करोड़ से अधिक हैं। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदाने हैं, जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता है। दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं, उसमें अधिकांश में गारा-गुम्मा यानी मिट्टी और ईंट का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं। शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं। जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्षा से अधिक कर उगाह कर देता है, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता है। बुंदेलखंड के पन्ना में हीरे की खदानें हैं, यहां का ग्रेनाइट दुनियाभर में धूम मचाए है। यहां की खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट का पत्थर, रेत-बजरी के भंडार हैं। इलाके के गांव-गांव में तालाब हैं, जहां कि मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। इस क्षेत्र के जंगलों में मिलने वाले अफरात तेंदू पत्ता को ग्रीन-गोल्ड कहा जाता है। आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं।
लुटियन की दिल्ली की विशाल इमारतें यहां के आदमी की मेहनत की साक्षी हैं। खजुराहो, झांसी, ओरछा जैसे पर्यटन स्थल सालभर विदेशी घुमक्कड़ों को आकर्षित करते हैं। अनुमान है कि दोनों राज्यों के बुंदेलखंड मिलाकर कोई एक हजार करोड़ की आय सरकार के खाते में जमा करवाते हैं, लेकिन इलाके के विकास पर इसका दस फीसदी भी खर्च नहीं होता है।बुंदेलखंड की असली समस्या अल्पवर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढि़यों से होता रहा है। पहले यहां के वाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं... सभी को। यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पहाड़ कटने से रोकना, पारंपरिक बिरादरी के पेड़ों ंवाले जंगलों को सहेजना, पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना...महज ये पांच उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोककर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जलसंकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जलस्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।यदि बंुदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों, जंगलों और गौचर का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हटकर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहंुचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में बेतवा, केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं, जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांधकर या नदियों को पारंपरिक तालाबों से जोड़कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रुपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बंुदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। अब चाहे राज्य अलग बने या नहीं, यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनया गया तो न तो सूरत बदलेगी और न ही सीरत।
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