बुन्देलखंड : सिर्फ पानी ही समाधान नहीं
कई दशकों की ही तरह इस बार भी गरमी शुरू होते ही बुंदेलखंड में जल संकट, पलायन और बेबसी की खबरें हवा में तैरने लगी है। कोई अलग राज्य को ही इसका एकमात्र हल मान रहा है तो कोई सरकारी उपेक्षा का उलाहना दे रहा है। यह तो अब तय हो गया है कि हजारों करोड़ के स्पेशल पैकेज से बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही। यदि समस्या नहीं रही तो विशेष पैकेज या ज्यादा बजट की मांग कैसे हो सकेगी? यदि पलायन नहीं होगा तो दिल्ली, पंजाब आदि में निर्माण कार्य में सस्ते मजदूर कैसे मिलेंगे? अब यहां के बाशिंदों को ही तय करना होगा कि वे कैसा बुंदेलखंड चाहते हैं? असल में यहां का पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। बुंदेलखंड में अभी से जल संकट चरम पर है, जबकि अगली बारिश अभी बहुत दूर है। हालांकि, पिछले मौसम में यहां इंद्रदेव ने अच्छी कृपा बरसाई थी, खेतों में भी अच्छी पैदावार हुई है, लेकिन मार्च के अंत तक मवेशियों को छुट्टा छोड़ना पड़ा, क्योंकि गांव-मजरे के जल-स्रेत चुक गए। जंगल से बंदर से लेकर तेंदुए तक बस्ती की ओर आ रहे हैं क्योंकि उनके प्राकृतिक पर्यावास में पानी खतम हो रहा है। शहरी नल-जल योजनाएं चित्त हो गई व हैंडपंप रीते। असल में हमारे नीतिकार यह समझ नहीं पा रहे हैं कि बुंदेलख्ांड का संकट अकेले पानी की कमी का नहीं है, वहां का संपूर्ण पर्यावरणीय चक्र लगातार अल्प वष्ा के कारण नष्ट हो गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के बाशिंदे शामिल हैं। इन सभी पक्षों के क्षरण को थामने के एकीकृत प्रयास के बगैर यहां के हालत सुधरेंगे नहीं, चाहे यहां के सभी नदी-तालाब पानी से लबालब भी हो जाएं। बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है-चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैया और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए हैं। बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह चार दशक पहले की सीमा तय हरने वालें पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाले पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया। पहाड़ उजड़े तो उसकी तली में सजे तालाबों में पानी कहां से अता व उनको रीत रहना ही था। इस तरह गांवों की अर्थ व्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बुंदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां न तो कल-कारखाने हैं और न ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। चूंकि बारिश न होने के कारण कहीं घास तो बची नहीं है सो अनुमान है कि इन मवेशियों के लिए हर महीने 67 लाख टन भूसे की जरूरत है। इनके लिए पीने के पानी की व्यवस्था का गणित अलग ही है। यह केवल एक जिले का हाल नहीं है, दो राज्यों में विस्तारित समूचे बुंदेलखंड के 12 जिलों में दूध देने वाले चौपायों के हालात भूख-प्यास व कोताही के हैं। कभी बुंदेलखंड के 45 फीसद हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर 10 से 13 प्रतिशत रह गई है। पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का पोषण रोक कर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों, जंगलों और गौचर का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्पत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नये सिरे से नहीं बनाया गया तो ना तो सूरत बदलेगी और ना ही सीरत।
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