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बुधवार, 10 मई 2017

Reality check of Swachchhta abhiyaan at Railway tracks

इन पटरियों से दूर है स्वच्छता अभियान का सफर

कहते हैं कि भारतीय रेल में इंसान नहीं, बल्कि देश के सुख-दुख, समृद्धि-गरीबी, मानसिकता- मूल व्यवहार जैसी कई मनोवृत्तियां सफर करती हैं। भारतीय रेल 66 हजार किलोमीटर से भी अधिक के रास्तों के साथ दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है, जिसमें हर रोज 12,000 से अधिक यात्री रेल और कोई 7,000 मालगाड़ियां शामिल हैं। अनुमान है कि इस नेटवर्क में हर रोज कोई दो करोड़, 30 लाख यात्री सफर करते हैं तथा 26.5 लाख टन सामान की ढुलाई होती है। यह पूरी प्रणाली एक बानगी है कि हमारे देश में स्वच्छता अभियान नारों-संकल्पों से आगे बढ़कर वास्तविकता के धरातल पर कहां खड़ा है? दुखद है कि यह नेटवर्क पूरे देश की रेल पटरियों के किनारे गंदगी, कूड़े और सिस्टम की उपेक्षा की तस्वीर प्रस्तुत करता है। कई जगह तो प्लेटफॉर्म भी अतिक्रमण, अवांछित गतिविधियों व कूड़े का ढेर बने हुए हैं।
देश की राजधानी दिल्ली से आगरा के रास्ते दक्षिणी राज्यों, सोनीपत-पानीपत के रास्ते पंजाब, गाजियाबाद की तरफ से पूर्वी भारत, गुड़गांव के रास्ते जयपुर की ओर जाने वाले किसी भी रेलवे ट्रैक को दिल्ली शहर के भीतर ही देख लें, तो जाहिर हो जाएगा कि देश का असली कचराघर तो रेल पटरियों के किनारे ही है। सनद रहे कि ये सभी रास्ते विदेशी पर्यटकों के लोकप्रिय रूट हैं और जब दिल्ली में प्रवेश से 50 किलोमीटर पहले से ही पटरियों की दोनों तरफ कूड़े, गंदे पानी, बदबू का अंबार दिखता है, तो उनकी निगाह में देश की कैसी छवि बनती होगी? इन रास्तों पर रेलवे ट्रैक से सटी हुई झुग्गियां, दूर-दूर तक खुले में शौच जाते लोग उन विज्ञापनों को मुंह चिढ़ाते हैं, जिनमें स्वच्छता अभियान की उपलब्धियों के गुणगान होते हैं।
रेल पटरियों के किनारे की कई-कई हजार एकड़ भूमि अवैध अतिक्रमण की चपेट में है। इन पर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त भू-माफिआयों का कब्जा है, जो वहां रहने वाले गरीब, मेहनतकश लोगों से वसूली करते हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोगों के जीविकोपार्जन का जरिया कूड़े बीनना या कबाड़ी का काम करना ही है। ये पूरे शहर का कूड़ा जमा करते हैं, उसमें से अपने काम का सामान छांटकर बेच देते हैं और बाकी को रेल पटरियों के किनारे ही फेंक देते हैं, जहां धीरे-धीरे गंदगी के टीले बन जाते हैं।
पटरियों के किनारे जमा कचरे में खुद रेलवे का भी बड़ा योगदान है। खासकर शताब्दी, राजधानी जैसी उन गाड़ियों में, जिसमें ग्राहक को अनिवार्य रूप से तीन से आठ तक भोजन परोसने होते हैं। इनका पूरा भोजन पैक्ड और एक बार इस्तेमाल होने वाले बर्तनों में ही होता है। लेकिन अपना मुकाम आने से पहले खान-पान की व्यवस्था संभालने वाले कर्मचारी बचा भोजन, बोतल, पैकिंग सामग्री के बड़े-बड़े थप्पे चलती ट्रेन से पटरियों के किनारे ही फेंक देते हैं। यदि हर दिन एक रास्ते पर दस डिब्बों से ऐसा कचरा फेंका जाए, तो जाहिर है कि एक साल में उस वीराने में प्लास्टिक जैसी नष्ट न होने वाली चीजों का अंबार लग जाएगा। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसे बहुत से कूड़े को तो कचरा बीनने वाले जमा करके रीसाइक्लिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके व खाने-पीने की चीजें कुछ समय में सड़-गल जाती हैं। इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है। यह समस्या सिर्फ महानगरों के आस-पास ही नहीं, पूरे ट्रैक पर लगभग हर जगह होती है। यहां तक कि गांवों और जंगलों में भी।
राजधानी दिल्ली हो या फिर दूरस्थ कस्बे के रेलवे प्लेटफॉर्म, निहायत गंदे, भीड़भाड़ भरे, अव्यवस्थित और अवांछित लोगों से भरे होते हैं, जिनमें भिखारी से लेकर अवैध वेंडर और यात्रियों को विदा करने आए रिश्तेदारों से लेकर भांति-भांति के लोग होते हैं। जितने की सफाई क्षमता है, उससे ज्यादा भीड़ यहां जुटती है। इतनी भीड़ रेलवे की सफाई के सीमित संसाधनों को तहस-नहस कर देती है। कुछ साल पहले बजट में ‘रेलवे स्टेशन विकास निगम’ के गठन की घोषणा की गई थी, जिसने रेलवे स्टेशन को हवाई अड्डे की तरह चमकाने के सपने दिखाए थे। कुछ स्टेशनों पर काम हुआ भी, मगर जिन पटरियों पर रेल दौड़ती है, जिन रास्तों से यात्री रेलवे व देश की सुंदर छवि देखने की कल्पना करता है, उसके उद्धार के लिए रेलवे के पास न तो कोई रोड-मैप है और न ही कोई परिक
ल्पना।

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