चेहरा बदलें सरकारी स्कूलों का
पंकज चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कई फैसलों में से एक ‘ सरकारी कर्मचारियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ें’ को बेहद क्रांतिकारी कहा जा रहा है। हालांकि अगस्त-15 में इलाहबाद हााईकोर्ट ने ऐसा ही एक आदेष दिया था। कहा जा रहा है कि यह शिक्षा-जगत में बदलाव का बड़ा फैसला है। इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि मनमानी फीस वसूल और, अभिभावकों के शोषण की असहनीय बुराईयों के बावजूद भी निजी या पलिक स्कूल आम लोगों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व बेहतर माहौल के प्रति विश्वास जगाने में सफल रहे हैं। यह भी सच है कि जब सरकारी स्कूल स्तरीय व गुणवत्ता वाली षिक्षा देने में असफल रहे, तभी ये निजी स्कूलों की दुकानों को मनमानी का अवसर मिला। यह भी मानना होगा कि देश को निरक्षरता के अंधकार से निकालकर साक्षरता की रोशनी दिखाने में भी ऐसे स्कूलों की महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। हालांकि सरकारी स्कूल के शिक्षक की शैक्षिक योग्यता व प्रशिक्षण , और वेतन किसी भी नामी-गिरामी स्कूल के शिक्षक के बीस ही होते हैं, इसके बावजूद सरकारी स्कूल के शिक्षक का प्रभामंडल निजी स्कूलों की तुलना में फीका होता है। इसके मुख्य दो कारण हैं- सरकार स्कूलों में मूलभूत सुविधाआंे का अभाव व दूसरा सरकरी शिक्षक की ड्यूटी में शिक्षण के अलावा बहुत कुछ होना।
यह कटु सत्य है कि देषभर के सरकारी स्कूलो में बैठक व्यवस्था, ब्लेक बोर्ड, षौचालय , साफ पानी बिजली जैसी सुविध्आों का ही नहीं, बैठने लायक कमरों, छात्रों की तुलना में षिक्षकों की संख्या का भी अभाव है। जरा गौर करंे कि अभी जो बच्चे निजी स्कूल में जा रहे हैं वे मजबूरी में सरकारी स्कूल में चले गए तो वहां प्रत्येक कक्षा में निर्धरित छात्र संख्या के बंधन के चलते सीधा असर उन गरीब या समाज के उस वर्ग के बच्चों पर पड़ेगा जिनकी पहली पीढ़ी स्कूल आ रही है। अच्छा वेतन लेने वाले सरकारी कर्मचारी यदि निजी स्कूल के खर्च उठा सकते हैं, जबकि सरकारी स्कूल में आज पढ़ रहे बच्चे निजी स्कूल में नहीं जा सकते, ऐसे में तो यह आदेष गरीब षिक्षा आकांक्षियों पर भारी ही पड़ेगा। मध्यप्रदेष के छतरपुर जिले के कर्री कस्बे के हाई स्कूल में बीते तीन सालों से गणित का केवल एक ही षिक्षक है और उसके जिम्म्ेंा है कक्षा नौं व 10 के कुल 428 छात्र। क्लास रूम इतने छोटे हैं कि 50 से ज्यादा बच्चे आ नहीं सकते और षिक्षक हर दिन पांच से ज्यादा पीरियेड पढ़ा नहीं सकता। जाहिर है कि बड़ी संख्या में बच्चे गणित षिक्षण से अछूते रह जाते हैं। जिला मुख्यालय में बैठे लोग भी जानते हैं कि उस षाला का अच्छा रिजल्ट महज नकल के भरोसे आता है। ऐसे ‘‘कर्री’’ देष के हर जिले, राज्य में सैंकड़ों-हजारों में हैं।
वहीं समाज के एक वर्ग द्वारा गरियाए जा रहे निजी स्कूलों में कम से कम यह हालात तो नहीं हैं। यह बेहद आदर्श स्थिति है कि देश में समूची स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए व यूरोप जैसे विकसित देशों की तरह आवास के निर्धारित दायरे में रहने वाले बच्चे का निर्धारित स्कूल में जाना अनिवार्य हो। कोई भी स्कूल निजी नहीं होगा व सभी जगह एकसमान टेबल-कुर्सी, भवन, पेयजल, शौचालय, पुस्तकें आदि होंगी। सभी जगह दिन का भोजन भी स्कूल में ही होगा । डेढ साल पहले शायद माननीय अदालत इस तथ्य से वाकिफ होगी ही कि सुदूर ग्रामीण अंचलों की बात दूर की है, देश की राजधानी दिल्ली में ही कई ऐसे सरकारी स्कूल हैं जहां ब्लेक बोर्ड व पहुंच-मार्ग या भवन जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। मुख्यंमत्री जी को यह भी पता होगा कि उप्र में ही पैतंीस प्रतिशत से ज्यादा शिक्षकों के पद रिक्त हैं और यदि सभी स्वीकृत पद पर शिक्षक रख भी दिए जाएं तो सरकारी स्कूल में शिक्षक-छात्र अनुपात औसतन एक शिक्षक पर 110 बच्चों का होगा। यह विडंबना है कि हमारी व्यवस्था इस बात को नहीं समझ पा रही है कि पढ़ाई या स्कूल इस्तेमाल लायक सूचना देने का जरिया नहीं हैं, वहां जो कुछ भी होता है , सीखा जाता है उसे समझना व व्याहवारिक बनाना अनिवार्य है। हम स्कूलों में भर्ती के बड़े अभियान चला रहे हैं और फिर भी कई करोड़ बच्चों से स्कूल दूर है। जो स्कूल में भर्ती हैं, उनमें से भी कई लाख बच्चे भले ही कुछ प्रमाण पत्र पा कर कुछ कक्षाओं में उर्तीण दर्ज हों लेकिन हकीकत में ज्ञान से दूर हैं। ऐसे में जो अभिभावक व्यय वहन कर सकते हैं , उन्हें उन स्कूलों में अपने बच्चें को भेजने केे लिए बाध्य करना जोकि सरकारी सहायता के कारण उन लोगों की ज्ञान-स्थली हैं जो समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं, असल में जरूरतमंदों का हक मारना होगा।
यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि केंद्रीय विद्यालय, नवोदय, सैनिक स्कूल ,सर्वोदय या दिल्ली के प्रतिभा विकास विद्यालय सहित कई हजार ऐसे सरकारी स्कूल हैं जहां बच्चों के प्रवेश के लिए पब्लिक स्कूल से ज्यादा मारामारी होती है। जाहिर है कि मध्य वर्ग को परहेज सरकारी स्कूल से नहीं , बल्कि वहां की अव्यवस्था और गैर-शैशिक परिवेश से हैं। विडंबना है कि सरकार के लिए भी सरकारी स्कूल का शिक्षक बच्चों का मार्गदर्शक नहीं होता, उसके बनिस्पत वह विभिन्न सरकारी येाजनाओं का वाहक या प्रचारक होता है। उसमें चुनाव से ले कर जनगणना तक के कार्य, राशन कार्ड से ले कर पोलिया की दवा पिलाने व कई अन्य कार्य भी शािमल हैं। फिर आंकड़ों में एक शिक्षान्मुखी-कल्याणकारी राज्य की तस्वीर बताने के लिए नए खुले स्कूल, वहां पढने वाले बच्चों की संख्या, मिड डे मील का ब्यौरा बताने का माध्यम भी स्कूल या शिक्षक ही है। काश स्कूल को केवल स्कूल रहने दिया जाता व एक नियोजित येाजना के तहत स्कूलों की मूलभूत सुविधाएं विकसित करने का कार्य होता। गौरतलब है कि देश में हर साल कोई एक करोड़ चालीस लाख बच्चे हायर सेकेंडरी पास करते हैं लेकिन कालेज तक जाने वाले महज 20 लाख होते है। यदि प्राथमिक शिक्षा से कालेज तक की संस्थाओं का पिरामिड देखें तो साफ होता है कि उत्तरोतर उनकी संख्या कम होती जाती है। केवल संख्या में ही नहीं गुणवत्ता, उपलब्धता और व्यय में भी। गांव-कस्बों में ऐसे लेाग बड़ी संख्या में मिलते हैं जो सरकारी स्कूलों की अव्यवस्था और तंगहाली से निराश हो कर अपने बच्चों को निजी स्कूलो ंमें भेजते हैं, हालांकि उनकी जेब इसके लिए साथ नहीं देती है। दुखद यह भी है कि षिक्षा का असल उद्देष्य महज नौकरी पाना, वह भी सरकारी नौकरी पाना बन कर रह गया हे। जबकि असल में षिक्षा का इरादा एक बेहतर नागरिक बनाना हेाता है जो अपने कर्तवय व अधिकारों के बारे में जागरूक हो, जो अपने जीवन-स्तर को स्वच्छता-स्वास्थ्य-संप्रेश्ण की दृश्टि से बेहतर बनाने के प्रयास स्वयं करे। यही नहीं वह अपने पारंपरिक रोजगार या जीवकोपार्जन के तरीके को विभिन्न षसकीय योजनओं व वैज्ञानिक दृश्टिकोण से संपन्न व समृद्ध करे। विउंबना हे कि गांव के सरकारी सक्ल से हायर सेकेडरी पास बच्चा बैंक में पैसा जमा करने की पर्ची भरने में झिझकता है। इसका असल कारण उसके स्कूल के परिवेष में ही उन तत्तवों की कमी होना है, जिस उद्देष्य की पूर्ति के लिए उसे षिक्षित किया जा रहा है।
यह देश के लिए गर्व की बात है कि समाज का बड़ा वर्ग अब पढ़ाई का महत्व समझ रहा है, लेाग अपनी बच्चियों को भी स्कूल भेज रहे हैं, गांवंो में विकास की परिभाषा में स्कूल का होना प्राथमिकता पर है। ऐसे में स्कूलों में जरूरतों व शैक्षिक गुणवत्ता पर काम कर के सरकारी स्कूलों का श्री या सम्मान वापिस पाया जा सकता है। यह बात जान लें कि किसी को जबरिया उन स्कूलों में भेजने के आदेश एक तो उन लोगों के हक पर संपन्न लोगों का अनाधिकार प्रवेश होंगे जिनकी पहली पीढ़ी स्कूल की तरफ जा रही है। साथ ही शिक्षा के विस्तार की योजना पर भी इसका विपरीत असर होगा। निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक हो, सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर बढ़े, स्कूल के शिक्षक की प्राथमिकता केवल पठन-पाठन हो, इसके लिए एक सशक्त तंत्र आवश्यक है ना कि अफसर, नेताओं के बच्चों का सरकरी स्कूल में प्रवेश की अनिवार्यता। लेकिन यह भी अनिवार्य है कि धीरे-धीरे समाज के ही संपन्न लोग किसी निजी स्कूल में लाखों का डोनेषन दे कर अपने बच्चे को भर्ती करवाने के बनिस्पत अपने करीब के सरकारी स्कूल में उस लाखों के दान से मूलभूत सुविधाएं विकसित करने की पहल करें और फिर अपने बच्चों को वहां भर्ती करवाएं।
पंकज चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेष के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कई फैसलों में से एक ‘ सरकारी कर्मचारियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ें’ को बेहद क्रांतिकारी कहा जा रहा है। हालांकि अगस्त-15 में इलाहबाद हााईकोर्ट ने ऐसा ही एक आदेष दिया था। कहा जा रहा है कि यह शिक्षा-जगत में बदलाव का बड़ा फैसला है। इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता कि मनमानी फीस वसूल और, अभिभावकों के शोषण की असहनीय बुराईयों के बावजूद भी निजी या पलिक स्कूल आम लोगों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व बेहतर माहौल के प्रति विश्वास जगाने में सफल रहे हैं। यह भी सच है कि जब सरकारी स्कूल स्तरीय व गुणवत्ता वाली षिक्षा देने में असफल रहे, तभी ये निजी स्कूलों की दुकानों को मनमानी का अवसर मिला। यह भी मानना होगा कि देश को निरक्षरता के अंधकार से निकालकर साक्षरता की रोशनी दिखाने में भी ऐसे स्कूलों की महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। हालांकि सरकारी स्कूल के शिक्षक की शैक्षिक योग्यता व प्रशिक्षण , और वेतन किसी भी नामी-गिरामी स्कूल के शिक्षक के बीस ही होते हैं, इसके बावजूद सरकारी स्कूल के शिक्षक का प्रभामंडल निजी स्कूलों की तुलना में फीका होता है। इसके मुख्य दो कारण हैं- सरकार स्कूलों में मूलभूत सुविधाआंे का अभाव व दूसरा सरकरी शिक्षक की ड्यूटी में शिक्षण के अलावा बहुत कुछ होना।
यह कटु सत्य है कि देषभर के सरकारी स्कूलो में बैठक व्यवस्था, ब्लेक बोर्ड, षौचालय , साफ पानी बिजली जैसी सुविध्आों का ही नहीं, बैठने लायक कमरों, छात्रों की तुलना में षिक्षकों की संख्या का भी अभाव है। जरा गौर करंे कि अभी जो बच्चे निजी स्कूल में जा रहे हैं वे मजबूरी में सरकारी स्कूल में चले गए तो वहां प्रत्येक कक्षा में निर्धरित छात्र संख्या के बंधन के चलते सीधा असर उन गरीब या समाज के उस वर्ग के बच्चों पर पड़ेगा जिनकी पहली पीढ़ी स्कूल आ रही है। अच्छा वेतन लेने वाले सरकारी कर्मचारी यदि निजी स्कूल के खर्च उठा सकते हैं, जबकि सरकारी स्कूल में आज पढ़ रहे बच्चे निजी स्कूल में नहीं जा सकते, ऐसे में तो यह आदेष गरीब षिक्षा आकांक्षियों पर भारी ही पड़ेगा। मध्यप्रदेष के छतरपुर जिले के कर्री कस्बे के हाई स्कूल में बीते तीन सालों से गणित का केवल एक ही षिक्षक है और उसके जिम्म्ेंा है कक्षा नौं व 10 के कुल 428 छात्र। क्लास रूम इतने छोटे हैं कि 50 से ज्यादा बच्चे आ नहीं सकते और षिक्षक हर दिन पांच से ज्यादा पीरियेड पढ़ा नहीं सकता। जाहिर है कि बड़ी संख्या में बच्चे गणित षिक्षण से अछूते रह जाते हैं। जिला मुख्यालय में बैठे लोग भी जानते हैं कि उस षाला का अच्छा रिजल्ट महज नकल के भरोसे आता है। ऐसे ‘‘कर्री’’ देष के हर जिले, राज्य में सैंकड़ों-हजारों में हैं।
वहीं समाज के एक वर्ग द्वारा गरियाए जा रहे निजी स्कूलों में कम से कम यह हालात तो नहीं हैं। यह बेहद आदर्श स्थिति है कि देश में समूची स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए व यूरोप जैसे विकसित देशों की तरह आवास के निर्धारित दायरे में रहने वाले बच्चे का निर्धारित स्कूल में जाना अनिवार्य हो। कोई भी स्कूल निजी नहीं होगा व सभी जगह एकसमान टेबल-कुर्सी, भवन, पेयजल, शौचालय, पुस्तकें आदि होंगी। सभी जगह दिन का भोजन भी स्कूल में ही होगा । डेढ साल पहले शायद माननीय अदालत इस तथ्य से वाकिफ होगी ही कि सुदूर ग्रामीण अंचलों की बात दूर की है, देश की राजधानी दिल्ली में ही कई ऐसे सरकारी स्कूल हैं जहां ब्लेक बोर्ड व पहुंच-मार्ग या भवन जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। मुख्यंमत्री जी को यह भी पता होगा कि उप्र में ही पैतंीस प्रतिशत से ज्यादा शिक्षकों के पद रिक्त हैं और यदि सभी स्वीकृत पद पर शिक्षक रख भी दिए जाएं तो सरकारी स्कूल में शिक्षक-छात्र अनुपात औसतन एक शिक्षक पर 110 बच्चों का होगा। यह विडंबना है कि हमारी व्यवस्था इस बात को नहीं समझ पा रही है कि पढ़ाई या स्कूल इस्तेमाल लायक सूचना देने का जरिया नहीं हैं, वहां जो कुछ भी होता है , सीखा जाता है उसे समझना व व्याहवारिक बनाना अनिवार्य है। हम स्कूलों में भर्ती के बड़े अभियान चला रहे हैं और फिर भी कई करोड़ बच्चों से स्कूल दूर है। जो स्कूल में भर्ती हैं, उनमें से भी कई लाख बच्चे भले ही कुछ प्रमाण पत्र पा कर कुछ कक्षाओं में उर्तीण दर्ज हों लेकिन हकीकत में ज्ञान से दूर हैं। ऐसे में जो अभिभावक व्यय वहन कर सकते हैं , उन्हें उन स्कूलों में अपने बच्चें को भेजने केे लिए बाध्य करना जोकि सरकारी सहायता के कारण उन लोगों की ज्ञान-स्थली हैं जो समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं, असल में जरूरतमंदों का हक मारना होगा।
यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि केंद्रीय विद्यालय, नवोदय, सैनिक स्कूल ,सर्वोदय या दिल्ली के प्रतिभा विकास विद्यालय सहित कई हजार ऐसे सरकारी स्कूल हैं जहां बच्चों के प्रवेश के लिए पब्लिक स्कूल से ज्यादा मारामारी होती है। जाहिर है कि मध्य वर्ग को परहेज सरकारी स्कूल से नहीं , बल्कि वहां की अव्यवस्था और गैर-शैशिक परिवेश से हैं। विडंबना है कि सरकार के लिए भी सरकारी स्कूल का शिक्षक बच्चों का मार्गदर्शक नहीं होता, उसके बनिस्पत वह विभिन्न सरकारी येाजनाओं का वाहक या प्रचारक होता है। उसमें चुनाव से ले कर जनगणना तक के कार्य, राशन कार्ड से ले कर पोलिया की दवा पिलाने व कई अन्य कार्य भी शािमल हैं। फिर आंकड़ों में एक शिक्षान्मुखी-कल्याणकारी राज्य की तस्वीर बताने के लिए नए खुले स्कूल, वहां पढने वाले बच्चों की संख्या, मिड डे मील का ब्यौरा बताने का माध्यम भी स्कूल या शिक्षक ही है। काश स्कूल को केवल स्कूल रहने दिया जाता व एक नियोजित येाजना के तहत स्कूलों की मूलभूत सुविधाएं विकसित करने का कार्य होता। गौरतलब है कि देश में हर साल कोई एक करोड़ चालीस लाख बच्चे हायर सेकेंडरी पास करते हैं लेकिन कालेज तक जाने वाले महज 20 लाख होते है। यदि प्राथमिक शिक्षा से कालेज तक की संस्थाओं का पिरामिड देखें तो साफ होता है कि उत्तरोतर उनकी संख्या कम होती जाती है। केवल संख्या में ही नहीं गुणवत्ता, उपलब्धता और व्यय में भी। गांव-कस्बों में ऐसे लेाग बड़ी संख्या में मिलते हैं जो सरकारी स्कूलों की अव्यवस्था और तंगहाली से निराश हो कर अपने बच्चों को निजी स्कूलो ंमें भेजते हैं, हालांकि उनकी जेब इसके लिए साथ नहीं देती है। दुखद यह भी है कि षिक्षा का असल उद्देष्य महज नौकरी पाना, वह भी सरकारी नौकरी पाना बन कर रह गया हे। जबकि असल में षिक्षा का इरादा एक बेहतर नागरिक बनाना हेाता है जो अपने कर्तवय व अधिकारों के बारे में जागरूक हो, जो अपने जीवन-स्तर को स्वच्छता-स्वास्थ्य-संप्रेश्ण की दृश्टि से बेहतर बनाने के प्रयास स्वयं करे। यही नहीं वह अपने पारंपरिक रोजगार या जीवकोपार्जन के तरीके को विभिन्न षसकीय योजनओं व वैज्ञानिक दृश्टिकोण से संपन्न व समृद्ध करे। विउंबना हे कि गांव के सरकारी सक्ल से हायर सेकेडरी पास बच्चा बैंक में पैसा जमा करने की पर्ची भरने में झिझकता है। इसका असल कारण उसके स्कूल के परिवेष में ही उन तत्तवों की कमी होना है, जिस उद्देष्य की पूर्ति के लिए उसे षिक्षित किया जा रहा है।
यह देश के लिए गर्व की बात है कि समाज का बड़ा वर्ग अब पढ़ाई का महत्व समझ रहा है, लेाग अपनी बच्चियों को भी स्कूल भेज रहे हैं, गांवंो में विकास की परिभाषा में स्कूल का होना प्राथमिकता पर है। ऐसे में स्कूलों में जरूरतों व शैक्षिक गुणवत्ता पर काम कर के सरकारी स्कूलों का श्री या सम्मान वापिस पाया जा सकता है। यह बात जान लें कि किसी को जबरिया उन स्कूलों में भेजने के आदेश एक तो उन लोगों के हक पर संपन्न लोगों का अनाधिकार प्रवेश होंगे जिनकी पहली पीढ़ी स्कूल की तरफ जा रही है। साथ ही शिक्षा के विस्तार की योजना पर भी इसका विपरीत असर होगा। निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक हो, सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर बढ़े, स्कूल के शिक्षक की प्राथमिकता केवल पठन-पाठन हो, इसके लिए एक सशक्त तंत्र आवश्यक है ना कि अफसर, नेताओं के बच्चों का सरकरी स्कूल में प्रवेश की अनिवार्यता। लेकिन यह भी अनिवार्य है कि धीरे-धीरे समाज के ही संपन्न लोग किसी निजी स्कूल में लाखों का डोनेषन दे कर अपने बच्चे को भर्ती करवाने के बनिस्पत अपने करीब के सरकारी स्कूल में उस लाखों के दान से मूलभूत सुविधाएं विकसित करने की पहल करें और फिर अपने बच्चों को वहां भर्ती करवाएं।
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