My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 4 जून 2017

Global warming threat to earth

तापमान से संकट में अस्तित्व 

इन दिनों नौतपा चल रहा है। कहते हैं कि ये दिन जितने तपते हैं, उतने ही मेघ बरसते हैं। लेकिन असलियत तो यह है कि नौतपा से पंद्रह दिन पहले ही देश के बड़े हिस्से का मिजाज 48 डिग्री तक पहुंच गया। नौतपा में तो पूरे देश में बरसात हो रही है। गत पंद्रह दिनों से कभी तेज धूप होती है तो कहीं बादल व बूंदाबांदी और अचानक ठंड-सी लगने लगती है। जरा गंभीरता से अपने अतीत के पन्नों का पलट कर देखें तो पाएंगे कि मौसम की यह बेईमानी बीते एक दशक से कुछ ज्यादा ही समाज को तंग कर रही है।

हाल ही में अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा ने भी कहा है कि फरवरी महीने में ही तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि ने पूर्व के महीनों के रिकार्ड को तोड़ दिया है। नासा के आंकड़ों के अनुसार, यह पर्यावरण के लिए उत्पन्न होनेवाले खतरे के संकेत हैं। बीते शनिवार को डाटा जारी होने के बाद उनका अध्ययन कर भूमिगत तापमान पर अपने ब्लाग में जेफ मास्टर्स और बाब हेनसन ने लिखा है कि यह मानव उत्पादित ग्रीन हाउस गैसों के नतीजतन वैश्विक तापमान में लंबे समय में वृद्धि की चेतावनी है। मार्च की शुरुआत में प्रारंभिक नतीजों से यह सुनिश्चत हो गया है कि तापमान में वृद्धि के रिकार्ड टूटने जा रहे हैं। 1951 से 1980 के मध्य की आधार अवधि की तुलना में धरती की सतह और समुद्र का तापमान फरवरी में 1.35 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है। जबकि इस जनवरी में ही आधार अवधि का रिकार्ड टूट चुका है।आखिर ऐसा क्यों हो रहा है और इस बदलाव के कारण धरती किस दिशा में जा रही है, इसके लिए जरा भारत के आदिग्रंथ महाभारत के एक हिस्से को बांचते हैं। करीब पांच हजार वर्ष पूर्व के ग्रंथ महाभारत में ‘वनपर्व’ में महाराजा युधिष्ठिर का मार्कंडेय ऋषि से मार्मिक संवाद दर्ज है। युधिष्ठिर मार्कंडेय ऋषि से विनम्रता पूर्वक पूछते हैं- ‘महामुने, आपने युगों के अंत में होनेवाले अनेक महाप्रलय के दृश्य देखे हैं, मैं आपके श्रीमुख से प्रलयकाल का निरूपण करने वाली कथा सुनना चाहता हूं।’ इसमें ऋषि जवाब देते हैं- ‘हे राजन, प्रलय काल में सुगंधित पदार्थ नासिका को उतने गंधयुक्त प्रतीत नहीं होंगे। रसीले पदार्थ स्वादिष्ट नहीं रह जाएंगे। वृक्षों पर फल और फूल बहुत कम हो जाएंगे और उन पर बैठने वाले पक्षियों की विविधता भी कम हो जाएगी। वर्षाऋतु में जल की वर्षा नहीं होगी। ऋतुएं अपने-अपने समय का परिपालन त्याग देंगी।

वन्य जीव, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक निवास के बजाय नागरिकों के बनाए बगीचों और विहारों में भ्रमण करने लगेंगे। संपूर्ण दिशाओं में हानिकारक जंतुओं और सर्पों का बाहुल्य हो जाएगा। वन-बाग और वृक्षों को लोग निर्दयतापूर्वक काट देंगे।’ कृषि और व्यापार पर टिप्पणी करते हुए मार्कंडेय ऋषि कहते हैं- ‘भूमि में बोए हुए बीज ठीक प्रकार से नहीं उगेंगे। खेतों की उपजाऊ शक्ति समाप्त हो जाएगी। लोग तालाब-चरागाह, नदियों के तट की भूमि पर भी अतिक्रमण करेंगे। समाज खाद्यान्न के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाएगा।’ वे आगे कहते हैं- ‘हे राजन, एक स्थिति ऐसी भी आएगी कि जनपद जन-शून्य होने लगेंगे। गरीब लोग और अधिकांश प्राणी भूख से बिलबिलाकर मरने लगेंगे। चारों ओर प्रचंड तापमान संपूर्ण तालाबों, सरिताओं और नदियों के जल को सुखा देगा। लंबे काल तक पृथ्वी पर वर्षा होनी बंद हो जाएगी। प्रचंड तेज वाले सात सूर्य उदित होंगे और जो कुछ भी धरती पर शेष रहेगा, उसे वे भस्मीभूत कर देंगे।’ फिर लौटकर अपने मूल सवाल पर आते हैं कि फरवरी के तापमान में खतरनाक स्तर पर वृद्धि आखिर क्यों हुई? इस माह वैश्विक तापमान में 1.35 सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई। धरती की सतह का इस तरह गरम होना चिंताजनक है और हालात मार्कंडेय ऋषि द्वारा किए गए वर्णन के ही रहे हैं। तापमान ऊर्जा का प्रतीक तो है, लेकिन इसके संतुलन बिगड़ने का अर्थ है हमारे अस्तित्व पर संकट। यह तो सभी जानते हैं कि वायुमंडल में सभी गैसों की मात्रा तय है और 750 अरब टन कार्बन कार्बन डायआक्साइड के रूप में वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्रा बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन व धरती के गरम होने जैसेे प्रकृतिनाशक बदलाव हम झेल रहे हैं। कार्बन की मात्रा में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या ज्वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिश की संभावना बढ़ने का कारक भी है कार्बन की बेलगाम मात्रा। धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़, प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानी पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। आज विश्व में अमेरिका सबसे ज्यादा एक करोड़ तीन लाख 30 हजार किलो टन कार्बन डायआक्साइड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है। उसके बाद कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं । जापान, जर्मनी, दक्षिण कोरिया आदि औद्योगिक देशों में भी कार्बन उत्सर्जन दस टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख 70 हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डायआक्साइड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 2030 तक तीन गुना यानी अधिकतम पांच टन तक जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देखकर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकतर ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए।कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने के लिए हमें एक तो स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देना होगा। हमारे देश में रसोई गैस की तो कमी है नहीं, हां सिलेंडर बनाने के लिए जरूरी स्टील, सिलेंडर वितरण के लिए आंचलिक क्षेत्रों तक नेटवर्क को विकसित करना और गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस उपलब्ध करवाना ही बड़ी चुनौती है। कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थों की बिक्री, घटिया सड़कें व आटो पाट्र्स की बिक्री तथा छोटे कस्बों तक यातायात जाम होने की समस्या है। देश में बढ़ता कचरे का ढेर व उसके निबटान की माकूल व्यवस्था न होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की बड़ी बाधा है। सनद रहे कि कूड़ा जब सड़ता है तो उससे बड़ी मात्रा में मिथेन, कार्बन मोनो व डायआक्साइड गैसें निकल कर वायुमंडल में कार्बन के घनत्व को बढ़ाती हैं। साथ ही बड़े बांध, सिंचाई नहरों के कारण बढ़ते दलदल भी कार्बन डायआक्साइड पैदा करते हैं।कार्बन की बढ़ती मात्रा से दुनिया का गरम होने के कारण दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं का न्यौता है। जाहिर है कि इससे जूझना सारी दुनिया का फर्ज है, लेकिन भारत में मौजूद प्राकृतिक संसाधन व पारपंरकि ज्ञान इसका सबसे सटीक निदान है। छोटे तालाब व कुएं, पारंपरिक मिश्रित जंगल, खेती व परिवहन के पुराने साधन, कुटीर उद्योग का सशक्तीकरण कुछ ऐसे प्रयास हैं जो बगैर किसी मशीन या बड़ी तकनीक या फिर अर्थ व्यवस्था को प्रभावित किए बिना ही कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं और इसके लिए हमें पश्चिम से उधार में लिए ज्ञान की जरूरत भी नहीं है।धरती के गरम होने से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं ग्लेशियर। ये हमारे लिए उतने ही जरूरी है जितना साफ हवा या पानी। तापमान बढ़ने से इनका गलना तेजी से होता है। इसी के चलते कार्बन उत्सर्जन में तेजी आती है और इससे एक तो धरती का तापमान नियंत्रण प्रणाली पर विपरीत प्रभाव होता है, दूसरा नदियों व उसके जरिए समुद्र में जल का स्तर बढ़ता है। जाहिर है, जल स्तर बढ़ने से धरती पर रेत का फैलाव होता है, साथ ही कई इलाकों के डूबने की संभावना भी होती है। ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणामस्वरूप धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब पुस्तकों, सेमीनार व चेतावनियों से बाहर निकल कर आम लेागों के बीच जानी जरूरी हैं। साथ ही इसके नाम पर डराया भी नहीं जाए, बल्कि इससे जूझने के तरीके बताए जाने चाहिए।

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