विकिरण का दंश झेल रहे लोगों से बेपरवाही
रावतभाटा यानी राजस्थान में परमाणु शक्ति से बिजली बनाने का संयत्र लगा है, लेकिन एटमी ताकत को बम में बदलने के लिए जरूरी तत्व जुटाने का भी यह मुख्य जरिया है। इस बिजली घर से पांच किमी दूर स्थित तमलाव गांव में बोन ट्यूमर, थायराइड ग्लैंड, सिस्टिक ट्यूमर जैसी बीमारियां हर घर की कहानी है। केंद्र के कर्मचारियों और वहां रहने वालों के बच्चे टेढ़े-मेढ़े हाथ-पांव और अविकसित अंग पैदाइशी होना आम बात हो गई है। यहां तक कि पशुओं की संख्या भी कम होती जा रही है। बकरियों में विकलांगता और गर्भपात की घटनाएं बढ़ी हैं...
कुछ साल पहले जापान फुकुशिमा परमाणु बिजली संयंत्र के रिसाव से पैदा हुए हालातों को भारत अब बिसरा चुका है। हमारे शहर जिस बिजली से जगमगा रहे हैं, जिन कल-कारखानों से हमारी अर्थव्यवसथा संचालित हो रही है, उसके लिए बिजली उत्पादन के लिए संचालित परमाणु शक्ति आधारित बिजलीघर देश की बड़ी आबादी को तिल-तिल मरने को मजबूर किए हुआ है। भारत में देश के भाग्यविधाता उन लाखों लोगों के प्रति बेखबर हैं, जोकि देश को परमाणु-संपन्न बनाने की कीमत पीढि़यों से विकिरण की त्रासदी सह कर चुका रहे हैं।
एटमी ताकत पाने के तीन प्रमुख पद हैं- यूरेनियम का खनन, उसका प्रसंस्करण और फिर विस्फोट या परीक्षण। लेकिन जिन लोगों की जान-माल की कीमत पर इस ताकत को हासिल किया जा रहा है, वे नारकीय जीवन काट रहे हैं! परमाणु ऊर्जा से बनने वाली बिजली का उपभोग करने वाले नेता व अफसर तो दिल्ली या किसी शहर में सुविधा संपन्न जीवन जी रहे हैं, परंतु हजारों लोग ऐसे भी हैं, जो इस जुनून की कीमत अपना जीवन देकर चुका रहे हैं। जिस जमीन पर परमाणु ताकत का परीक्षण किया जाता रहा है, वहां के लोग पेट के खातिर अपने ही बच्चों को अरब देशों में बेच रहे हैं। जिन इलाकों में एटमी ताकत के लिए रेडियो एक्टिव तत्व तैयार किए जा रहे हैं, वहां की अगली पीढ़ी तक का जीवन अंधकार में दिख रहा है। जिस जमीन से परमाणु बम का मुख्य मसाला खोदा जा रहा है, वहां के बाशिंदे तो जैसे मौत का हर पल इंतजार ही करते हैं।
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के जादुगोड़ा में भारत की पहली और एकमात्र यूरेनियम की खान है। यहां से अयस्क का खनन किया जाता है और उसे परिशोधन के लिए हजार किमी दूर हैदराबाद भेजा जाता है। इस प्रक्रिया में शेष बचे जहरीले कचरे को एक बार फिर जादुगोड़ा लाकर आदिवासी गांवों के बीच दफनाया जाता है। यूरेनियम कारपोरेशन ऑफ इंडिया यानी युसिल लाख दावा करे कि खनन या कचरे का जनजीवन पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। पर हकीकत यह है कि पिछले तीन-चार सालों में यहां एक सैकड़ा से अधिक असामयिक मौतें हुई हैं। खुद युसिल का रिकार्ड बताता है कि यूरेनियम खनन और उसके कचरे के निबटारे में लगे औसतन 15 लोग हर साल मारे जा रहे हैं। ये सभी मौतें टीबी, ल्यूकेमिया, कैंसर जैसी बीमारियों से होती हैं और इसके मूल में रेडियो विकिरण ही था। उसके बाद कंपनी ने रिकार्ड को उजागर करना ही बंद कर दिया है, लेकिन गैरसरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि साल का अंक बढ़ने के साथ-साथ मौत के आंकड़े भी बढ़ रहे हैं। सिंहभूम जिले के सिविल सर्जन ने विकिरण से प्रभावित कई लोगों की पहचान भी की है। इलाके के आदिवासी विकिरण-मुक्त जीवन के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। पिछले कई सालों से आंदोलन, लाठीचार्ज, धरने, गिरफ्तारियां, उत्पीड़न यहां के बाशिंदों की नियति बन गया है। जब कोई मौत होती है तो गुस्सा भड़कता है।
विकिरण जीव कोशिकाओं को क्षति ग्रस्त करता है। इससे आनुवांशिकी कोशिकाओं में भी टूट-फूट होती है। आने वाली कई पीढि़यों तक अप्रत्याशित बीमारियों की संभावना बनी रहती है।शौर्य भूमि पोखरण में भव्य स्मृति स्थल बनाने के लिए करोड़ों का खर्चा करने के लिए आतुर लोगों ने कभी यह जानने की जुर्रत नहीं की कि तपती मरूभूमि में जनजीवन होता कैसा है। परीक्षण-विस्फोट से डेढ़ सौ मकान पूरी तरह बिखर गए थे। सालभर के लिए पानी इकट्ठा रखने वाले ‘टांकों’ के टांके टूट गए। उसके एवज में सरकार ने जो मुआवजा बांटा था, उससे एक कमरा भी खड़ा नहीं होना था। धमाके के बाद जब इलाके में नाक से खून बहने और अन्य बीमारियों की खबरें छपीं तो खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री ने किसी भी तरह के विकिरण कुप्रभाव न होने के बयान दिए थे। जबकि भूगर्भीय परीक्षण के बाद रेडियोधर्मी जहर के रिसाव की मात्रा और उसके असर पर कभी कोई जांच हुई ही नहीं है। राजस्थान विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता डॉ. अग्रवाल ने पाया था कि 1974 में विस्फोट के बाद पोखरण व करीबी गांवों में कैंसर के रोगियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। पोखरण क्षेत्र सरकारी उपेक्षा का किस हद तक शिकार है, इसकी बानगी है कि यहां पेट पालने के लिए लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं। पोखरण और इसकी पड़ोसी पंचायत शिव के कोई एक दर्जन गांव-ढ़ाणियों से हर साल सैकड़ों बच्चे ऊंट दौड़ के लिए खाड़ी देशों को जाते हैं। ये बच्चे 12 से 14 साल उम्र और 30-35 किलो वजन के होते हैं। इनका वजन नहीं बढ़े, इसके लिए उन्हें खाना-पीना कम दिया जाता है। जैसलमेर जिले के भीखोडोई, फलसूंड, बंधेव, फूलोसर व राजमथाई और बाडमेर के उंडू , कानासर, आरंग, रतेउ, केसुआ आदि गांवों के लड़के अरब देशों को गए हैं। ये गरीब मुसलमान, सुतार, राजपूत और जाट बिरादरी के हैं। अपने घरों के लिए पेट का जुगाड़ बने ये बच्चे जब विदेश से लौटे तो पैसा तो खूब लाए पर असामान्य हो गए। वे तुतलाने और हकलाने लगे। कई बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हो गए। हर समस्या की तरह इस पर भी सरकार का तो यही कहना है कि इलाके से कोई बच्चा नहीं गया है। पर वास्तविकता को यी बात उजागर करती है कि अकेले पोखरण से हर साल 30 से 50 पासपोर्ट बन रहे हैं। जेसलमेर जिले में हर साल डेढ़ हजार पासपोर्ट बन रहे हैं।जय जवान-जय किसान के साथ जय विज्ञान के नारे की प्रासंगिकता पोखरण के इस पहलू से संदिग्ध हो जाती है। इस घोर रेगिस्तान में न तो उद्योग-धंधे खुल सकते हैं और न ही व्यापार की संभावनाएं हैं। ऊपर से एक तरफ प्रकृति की मार है तो दूसरी ओर जय विज्ञान का आतंक। आखिर किस बात का गौरव है?यह विडंबना ही है कि भारत में इन तीनों स्तर पर जनजीवन भगवान भरोसे हैं। षायद इस बात का आकलन किसी ने किया ही नहीं कि परमाणु ताकत से बिजली बनाकर हम जो कुछ पैसा बचाएंगे या कमाएंगे; उसका बड़ा हिस्सा जनस्वास्थ्य पर खर्च करना होगा या फिर इससे अधिक धन का हमारा मानव संसाधन बीमारियों की चपेट में होगा। आने वाली पीढ़ी के लिए ऊर्जा के साधन जोड़ने के नाम पर एटमी ताकत की तारीफ करने वाले लोगों को यह जान लेना चाहिए कि क्षणिक भावनात्मक उत्तेजना से जनता को लंबे समय तक बरगलाया नहीं जा सकता है। यदि हमारे देश के बाशिंदे बीमार, कुपोषित और कमजोर होंगे तो लाख एटमी बिजली घर या बम भी हमें सर्वशक्तिमान नहीं बना सकते हैं।
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