बाल मन और
जिज्ञासा एक-दूसरे के पूरक शब्द ही हैं। वहीं जिज्ञासा का सीधा संबंध
कौतुहल से है। उम्र बढ़ने के साथ ही अपने परिवेश की हर गुत्थी को सुलझाने की
जुगत लगाना बाल्यावस्था की मूल-प्रवृत्ति है। भौतिक सुखों व बाजारवाद की
बेतहाशा दौड़ के बीच दूषित हो रहे सामाजिक परिवेश और बच्चों की नैसर्गिक
जिज्ञासु प्रवृत्ति पर बस्ते के बोझ के कारण एक बोझिल-सा माहौल पैदा हो गया
है। ऐसे में बच्चों को दुनिया की रोचक जानकारी सही तरीके से देना राहत भरा
कदम होता है। पुस्तकें इसका सहज, सर्वसुलभ और सटीक माध्यम हैं। भले ही
शहरी बच्चों का एक वर्ग इंटरनेट व अन्य माध्यमों से ज्ञानवान बन रहा है, पर
आज भी देश के आम बच्चे को ज्ञान, मनोरंजन, और भावी चुनौतियों का मुकाबला
करने के काबिल बनाने के लिए जरूरी पुस्तकों की बेहद कमी है।
आज बच्चे बड़े अवश्य हो रहे हैं, पर
अनुभव जगत के नाम पर एक बड़े शून्य के बीच। पूरे देश के बच्चों से जरा चित्र
बनाने को कहें। तीन-चौथाई बच्चे पहाड़, नदी, झोपड़ी और उगता सूरज उकेर
देंगे। बाकी बच्चे टीवी पर दिखने वाले डिज्नी चैनल के कुछ चरित्रों के
चित्र बना देंगे। यह बात साक्षी है कि स्पर्श, ध्वनि, दृष्टि के बुनियादी
अनुभवों की कमी, बच्चों की नैसर्गिक क्षमताओं को किस हद तक खोखला बना रही
है।
1857 की क्रांति के वक्त अफगानिस्तान से लेकर कन्याकुमारी तक की साक्षरता दर महज एक फीसदी थी। आजादी के समय भी हमारी साक्षरता दर दयनीय ही थी। आज हमारे यहां शिक्षा भी एक क्रांति के रूप में आई है। यह हम सभी मानेंगे कि अब गांव में स्कूल खुलना उतना ही बड़ा विकास का काम माना जाता है, जितना सड़क बनना या अन्य कोई काम। पर बच्चों पर स्कूल में पढ़ाई का बोझ बढ़ता जा रहा है- ऐसी पढ़ाई का बोझ, जिसका बच्चों की जिंदगी, भाषा और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है। ऐसी पढ़ाई समाज के क्षय को रोक नहीं सकती, उसे बढ़ावा ही दे सकती है।
भारत में बाल साहित्य की पुस्तकों का इतिहास दो सौ वर्षों का नहीं हुआ है। वैसे 14वीं सदी में अमीर खुसरो ने पहेलियां लिखी थीं, जिनका लक्षित वर्ग बच्चों को माना गया था। 1817 में कोलकाता में कुछ ईसाई मिशनरियों ने बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया था। राजा शिव प्रसाद सिंह सितारे हिंद ने 1867 में बच्चों के लिए कहानियां लिखीं और 1876 में लड़कों के लिए कहानियां नाम से अपने संग्रह प्रकाशित करवाए थे। कहा जा सकता है कि आधुनिक मुद्रण में बच्चों की हिंदी में पहली किताबें वही थीं।
शुरुआती दिनों में हमारा बाल साहित्य पंचतंत्र, हितोपदेष, जातक, पौराणिक व दंतकथाओं तक ही सीमित रहा। कहा गया कि बाजार उभार में है, सो प्रकाशक ऐसा सुरक्षित रास्ता पकड़ना चाहते हैं जहां उन्हें घाटा न लगे। इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया के दरवाजे एक-दूसरे के लिए खोल दिए। टीवी, इंटरनेट क्रांति ने सूचना का प्रवाह इतना तीव्र कर दिया कि भारत जैसे देश की बाल पीढ़ी लड़खड़ा-सी गई, पर उसका एक फायदा बाल पुस्तकों को जरूर हुआ- उसकी विषयवस्तु और गुणवत्ता आदि में सुधार आया।
मगर यह विडंबना है कि हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखने से बचते हैं, जबकि मराठी, बांग्ला में ऐसा नहीं है। आज जरूरी है कि बच्चों की पठन अभिरुचि में बदलाव, उनकी अपेक्षाओं, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य आदि को ध्यान में रखकर आंचलिक क्षेत्रों तक शोध हों, लोगों को अंग्रेजी ही नहीं, भारत की अन्य भाषाओं में बाल साहित्य पर हो रहे काम की जानकारी मिले तथा हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखें।
1857 की क्रांति के वक्त अफगानिस्तान से लेकर कन्याकुमारी तक की साक्षरता दर महज एक फीसदी थी। आजादी के समय भी हमारी साक्षरता दर दयनीय ही थी। आज हमारे यहां शिक्षा भी एक क्रांति के रूप में आई है। यह हम सभी मानेंगे कि अब गांव में स्कूल खुलना उतना ही बड़ा विकास का काम माना जाता है, जितना सड़क बनना या अन्य कोई काम। पर बच्चों पर स्कूल में पढ़ाई का बोझ बढ़ता जा रहा है- ऐसी पढ़ाई का बोझ, जिसका बच्चों की जिंदगी, भाषा और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है। ऐसी पढ़ाई समाज के क्षय को रोक नहीं सकती, उसे बढ़ावा ही दे सकती है।
भारत में बाल साहित्य की पुस्तकों का इतिहास दो सौ वर्षों का नहीं हुआ है। वैसे 14वीं सदी में अमीर खुसरो ने पहेलियां लिखी थीं, जिनका लक्षित वर्ग बच्चों को माना गया था। 1817 में कोलकाता में कुछ ईसाई मिशनरियों ने बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया था। राजा शिव प्रसाद सिंह सितारे हिंद ने 1867 में बच्चों के लिए कहानियां लिखीं और 1876 में लड़कों के लिए कहानियां नाम से अपने संग्रह प्रकाशित करवाए थे। कहा जा सकता है कि आधुनिक मुद्रण में बच्चों की हिंदी में पहली किताबें वही थीं।
शुरुआती दिनों में हमारा बाल साहित्य पंचतंत्र, हितोपदेष, जातक, पौराणिक व दंतकथाओं तक ही सीमित रहा। कहा गया कि बाजार उभार में है, सो प्रकाशक ऐसा सुरक्षित रास्ता पकड़ना चाहते हैं जहां उन्हें घाटा न लगे। इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण ने पूरी दुनिया के दरवाजे एक-दूसरे के लिए खोल दिए। टीवी, इंटरनेट क्रांति ने सूचना का प्रवाह इतना तीव्र कर दिया कि भारत जैसे देश की बाल पीढ़ी लड़खड़ा-सी गई, पर उसका एक फायदा बाल पुस्तकों को जरूर हुआ- उसकी विषयवस्तु और गुणवत्ता आदि में सुधार आया।
मगर यह विडंबना है कि हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखने से बचते हैं, जबकि मराठी, बांग्ला में ऐसा नहीं है। आज जरूरी है कि बच्चों की पठन अभिरुचि में बदलाव, उनकी अपेक्षाओं, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य आदि को ध्यान में रखकर आंचलिक क्षेत्रों तक शोध हों, लोगों को अंग्रेजी ही नहीं, भारत की अन्य भाषाओं में बाल साहित्य पर हो रहे काम की जानकारी मिले तथा हिंदी के बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें