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शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

commercialisation of schooling is main accuse of Pradhyuma

स्कूलों के दुकान बनने से असुरक्षित हुए बच्चे

                                                                                                                                        पंकज चतुर्वेदी



वह सुबह हंसतो-खेलता, अपने खाने का  डिब्बा ले कर स्कूल पहुंचा था, आधे घंटे बाद ही घर फोन पहुंच गया कि बच्चे को चोट लगी है। दौड़ते-भागते माता-पिता स्कूल पुहंचे तो पाया कि सात साल के प्रद्युमन का गला उसके स्कूल के बाथरूम में किसी ने बड़ी ही निमर्मता से काट्र दिया था। दिल्ली से सटे आधुनिक चमक-दमक वाले गुडगाँव के सोहना रोड के मशहूर रायन इंटरनेश्नल स्कूल के कक्षा दो के इस बच्चे से किसकी ऐसी दुश्मनी थी ?  दिल्ली से ही सटे गाजियाबाद के एक स्कूल में इकलौते बच्चे अरमान की मौत के कारणों की जांच के लिए एक माता-पिता .एक महीने से संघर्ष कर रहे हैं। नौ साल का अरमान भी घर से आने स्कूल जीडी गायनका पब्लिक स्कूल के लिए ऐसे ही आनंद से निकला था और कुछ ही देर में उसके घर खबर आई कि पैर फिसलने से सीढ़ी पर गिर कर उसकी मात हो गई। नौ साल के इस बच्चे की मौत में भी कई पैंच हैं। अभी -अभी नोएडा के स्कूल में एक बच्चे को बच्चों द्वारा ही चांटे मारने का वीडियो वायरल हुआ। उससे पहले एक स्कूल में एक शिक्षिका द्वारा एक बच्चे को 140 चांटे मारने व उसका सिर बोड़ पर पटक देने का वीडियो भी चर्चा में रहा था। मध्यप्रदेश के एक स्कूल में  शिक्षक द्वारा बच्चों से पचास-पचास रूपए मंगवाए और जब वे नहीं लाए तो उन्हें सामूहिक मुर्गा बना कर डंडे से पीटा गया। फीस ना लाने पर बच्चे को बंधक बनाने या यूनीफार्म ना पहन कर आने पर लड़की को लउ़कों के शौचालय में खउ़ा कर देने जैसी घटनांए अब आम हैं। ये सभी और ऐसी ही कई घटनाएं स्कूल के परिसर के भीतर अभी एक महीने के भीतर दर्ज हुई हैं। आखिर स्कूल को कभी घर से भी ज्यादा निरापद माना जाता था और आज वह बच्चें के लिए शोषण -प्रताड़ना का खौफ पैदा कर रहा है।



दिल्ली के आरकेपुरम में एक अंध विद्यालय में एक ब्रिटिश नागरिक विकलांग बच्चों का यौन शोषण करता था उसे भी अभी इसी सप्ताह पकड़ कर जेल भ्ेाजा गया। विडंबना देखिए कि इतने गंभीर अपराध पर मीडिया में ना तो विमर्श हुआ और ना ही समाज का प्रतिरोध। कुछ साल पहले दिल्ली की पूसा रोड के एक बड़े स्कूल के तीन बच्चों का यौन षोशण उन्हें स्कूल तक लाने ले जाने का काम करने वाले वेन के चालक द्वारा करने का निर्मम कांड सामने आया। बच्चे अल्प आय परिवार से थे, सो उन लोगों से सड़क पर थोड़ा-बहुत गुस्सा निकाला। पुलिस ने भी आम धाराओं में मुकदमा कायम करने की रस्म अदायगी कर ली। समाज इससे बेखबर रहा कि 1-14  साल के इन मासूमों की मानसिक हालत खराब हो गई और जब पूरा देष बुराई-स्वरूप रावण का पुतला जला रहा था, तब उन बाल गोपालों को मानसिक चिकित्सालय में भर्ती करवाना पड़ा था। पूरे मामले में स्कूल ने अपना यह कह कर हाथ झाड़ लिया कि उन बच्चों के परिवहन की व्यवस्था उनकी अपनी थी और उसका स्कूल से कोई लेना-देना नहीं है।  और अभी पता चला कि उस कांड का आरोपी अदालत से बाइज्जत बरी हो गया। उस घटना को भी हम भूल गए जब गुड़गांव में ही एक बच्चा अपने पिता की पिस्तौल ले कर स्कूल गया था और उसने एक बच्चे को गोली मार दी थी।
असल में ऐसी घटनओं का मूल कारण है स्कूल का घनघौर व्यावसायीकरण होना और इसके एक व्यापार बनने के कारण विद्वालय प्रशासन व शिक्षकों का संवेदनाहीन होना। अभी एनसीआर के एक स्कूल ने 34 ऐसे बच्चों को टीसी दे कर स्कूल के बाहर खड़ा कर दिया, जनके माता-पिता ने स्कूल की विकास फंड के नाम पर नाजायज वसूली को स्वीकार नहीं किया। क्या बीच सत्र में स्कूल से निष्कासित किए गए बच्चे कभी विद्यालय व्यवस्था या शिक्षक को सम्मान से देख पाएंगे?
घूम-फिर कर बात एक बार फिर विद्यालयों के दुकानीकरण पर आ जाती है। शिक्षा का सरकारी सिस्टम जैसे जाम हो गया है। अब छोटे-छोटे गांवों में भी पब्लिक या कानवेंट स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं। कच्ची झोपड़ियों, गंदगी के बीच, बगैर माकूल बैठक व्यवस्था के कुछ बेरोजगार एक बोर्ड लटका कर प्राइमरी स्कूल खोल लेते हैं। इन ग्रामीण स्कूलों के छात्र पहले तो वे लोग होते हैं, जिनका पालक पैसे वाले होते हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना हेठी समझते हैं। फिर कुछ ऐसी अभिभावक, जो खुद तो अनपढ़ होते हैं लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने की महत्वाकांक्षा पाले होते हैं, अपना पेट काट कर ऐसे पब्लिक स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने लगते हैं। कुल मिला कर दोष जर्जर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के सिर पर जाता है। जो आम आदमी का विश्वास पूरी तरह खो चुकी है। लोग भूल चुके हैं कि दसवीं पंचवर्शीय योजना के समापन तक यानी सन 2007 तक षत-प्र्रतिषत बच्चों को प्राथमिक षिक्षा का सपना बुना गया था जिसे ध्वंस्त हुए दस साल बीत चुके हैं। उधर स्कूली शिक्षा खुद वर्गवाद की शिकार है।एक शिक्षक पूरे वेतन और पैंशन वाला है तो ठीक वही काम करने वाला शिक्षा मित्र या अतिथि शिक्षक को घर चलाने के लाले पड़े हैं वहीं निजी स्कूल कितने पर दस्तखत करवा कर कितना वेतन देते हंेउसकी कहानियां हर कस्बे-गांव में सभी जानते हैं। कुल मिला कर जहां ससरकारी स्कूल संसाधनों और नवाचार के लिए प्यासे हैं तो निजी स्कूल चमक-दमक के साथ केवल पैसे के लिए ।
समाजवाद की अवधारणा पर सीधा कुठाराघात करने वाली यह शिक्षा प्रणाली शुरुआत से ही उच्च और निम्न वर्ग तैयार कर रही है, जिसमें समर्थ लोग और समर्थ होते हैं, जबकि विपन्न लोगों का गर्त में जाना जारी रहता हैं। विश्व बैंक की एक रपट कहती है कि भारत में छह से 10 साल के कोई तीन करोड़ बीस लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। रपट में यह भी कहा गया है कि भारत में शिक्षा को ले कर बच्चों-बच्चों में खासा भेदभाव है। लडकों-लड़कियों, गरीब-अमीर और जातिगत आधार पर बच्चों के लिए पढ़ाई के मायने अलग-अलग हैं। रपट के अनुसार 10 वर्ष तक के सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लिए 13 लाख स्कूली कमरे बनवाने होंगे और 740 हजार नये शिक्षकों की जरूरत होगी। सरकार के पास खूब बजट है और उसे निगलने वाले कागजी षेर भी। लेकिन मूल समस्या स्कूली षिक्षा में असमानता की है। ‘प्रथम’ की ताजातरीन रिपोर्ट बताती है कि बच्चों को प्राईवेट स्कूलों में भेजने का प्रचलन गांवों में बढ़ रहा है। सरकारी स्कूल का षिक्षक ज्यादा पढ़ा-लिखा होता है, उसकी नौकरी में वेतन के अलावा कई सुरक्षाएं भी जुड़ी होती हैं, इसके बावजूद आम पालकों का निजी स्कूल पर भरोसा करना असल में सरकारी स्कूल के जर्जर प्रबंधन पर अविष्वास का प्रतीक है। सभी स्कूलों का राश्ट्रीयकरण कर सभी को षिक्षा, समान षिक्षा और स्तरीय षिक्षा का सपना साकार करना बहुत आसान होगा। प्राइवेट स्कूलों की आय की जांच, फीस पर सरकारी नियंत्रण, पाठ्यक्रम, पुस्तकों आदि का एकरूपीकरण, सरकारी स्कूलों को सुविधा संपन्न बनाना, आला सरकारी अफसरों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों की सरकारी स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यता, निजी संस्था के शिक्षकों के सुरक्षित वेतन की सुनिश्चित व्यवस्था सरीखे सुझाव समय-समय पर आते रहे और लाल बस्तों में बंध कर गुम होते रहे हैं।
सरकार में बैठे लोगों को इस बात को आभास होना आवश्यक है कि बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं तथा उन्हें पलने-बढ़ने-पढ़ने और खेलने का अनुकूल वातावरण देना समाज और सरकार दोनों की  नैतिक व विधायी जिम्मेदारी हैं । नेता अपने आवागमन और सुरक्षा के लिए जितना धन व्यय करते हैं, उसके कुछ ही प्रतिशत धन से बच्चों को किलकारी के साथ स्कूल भेजने की व्यवस्था की जा सकती हैं ।


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