My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 9 सितंबर 2017

How bastar has been forbidding his dialects

गोलियों से छलनी बस्तर की बोलियां


                                                                                                                                                   पंकज  चतुर्वेदी


बोलियां कैसे गुमती हैं? उसे समझने के लिए बस्तर पर्याप्त है। हिंसा-प्रतिहिंसा के बीच लोगों का पलायन और नई जगह बसे कि उनकी पारंपरिक बोली पहले कम हुई और फिर गुम हुई। एक बोली के लुप्त होने का अर्थ उसके सदियों पुराने संस्कार, भोजन, कहानियां, खानपान सभी का गुम हो जाना। बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर में आंध्र प्रदेश से सटे सुकमा जिले में दोरला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी बोली है दोरली। बस्तर में द्रविड़ परिवार की बोलियां भी हैं, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी समझने में दिक्कत महसूस करता है। दोरली बोलने वाले वैसे ही बहुत कम हुआ करते थे, पिछली जनगणना में शायद बीस हजार। पुलिस व नक्सली दोनों तरफ से पिसने वाले आदिवासी पलायन कर आंध्रप्रदेश (अब तेलंगाना के वारंगल जिले में चले गए। जब वे लौटे तो उनके बच्चों की दोरली में तेलुगू का घालमेल हो चुका था।

प्रसिद्ध नृशास्त्री ग्रियर्सन की सन‍् 1938 में लिखी गई पुस्तक ‘माड़िया गोंड्स अॉफ बस्तर’ की भूमिका में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख है जो कि बस्तर की 36 बोलियों को समझता-बूझता था। जाहिर है कि आज से अस्सी साल पहले वहां कम से कम 36 बोलियां तो थीं ही। सभी जनजातियों की अपनी बोली, प्रत्येक हस्तशिल्प या कार्य करने वाले की अपनी बोली। राजकाज की भाषा हल्बी थी जबकि जंगल में गोंडी का बोलबाला था। गोंडी का अर्थ कोई एक बोली समझने का भ्रम ना पालें—घोटुल मुरिया की अलग गोंडी तो दंडामी और अबूझमाड़िया की गोंडी में अलग किस्म के श्ाब्द। उत्तरी गोंडी में अलग भेद। राज गोंडी में छत्तीसगढ़ी का प्रभाव ज्यादा है। इसका इस्तेमाल गोंड राजाओं द्वारा किया जाता था। सन‍् 1961 की जनगणना में इसको बोलने वालों की संख्या 12,713 थी और आज यह घटकर 500 के लगभग रह गई है। चूंकि बस्तर भाषा के आधार पर गठित तीन राज्यों महाराष्ट्र, ओड़िसा, तेलंगाना से घिरा हुआ है, सो इसकी बोलियां छूते राज्य की भाषा से अछूती नहीं हैं। दक्षिण बस्तर में भोपालपट्टनम, कोंटा आदि क्षेत्रों में दोरली बोली जाती है जिसमें तेलंगांना आंध्रप्रदेश से लगे होने के कारण तेलुगू का प्रभाव दिखता है तो दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा दण्डामी बोली का क्षेत्र हैं। जगदलपुर, दरभा, छिन्द्गढ़ धुरवी बोली का बोलबाला है वहीं कोंडागांव क्षेत्र के मुरिया अधिकतर हल्बी बोलते हैं। नारायणपुर घोटुल मुरिया और माड़िया क्षेत्र है। बस्तर और ओडिशा राज्य के बीच सबरी नदी के किनारे धुरवा जनजाति की बहुलता है। जगदलपुर का नेतानार का इलाका, दरभा और सुकमा जिले के छिंदगढ़ व तोंगपाल क्षेत्र में धुरवा आदिवासी निवास करते हैं। इस जनजाति की बोली धुरवी है। इसी तरह नारायणपुर ब्लॉक में निवासरत अबूझमाड़िया माड़ी बोली बोलते हैं। इन दोनों जनजातियों की आबादी मिलाकर भी 50 हजार से अधिक नहीं है। नई पीढ़ी में इन बोलियों का प्रचलन धीरे-धीरे घट रहा है। बस्तर के बारे में कहा जाता है कि यहां हर 20 किलोमीटर में बोलियां बदलने लगती हैं। गोंडी, हल्बी, भतरी, धुरवी, माड़ी, दोरली, परजा, गदबी आदि यहां की प्रमुख बोलियां हैं।

बस्तर के हिंसक संघर्ष से सबसे बड़ा संकट यहां की आदिवासी अस्मिता के बीज यानी बोलियों के समक्ष खड़ा हो गया है। एक तरफ बाजार का प्रवेश तो दूसरी ओर विस्थापन का दंश तो तीसरी तरफ आधुनिक शिक्षा का दबाव—देखते ही देखते कई बोलियां अतीत हो गईं, कई के व्याकरण गड़बड़ा गए और कई ने अपना मूल स्वरूप ही खो दिया। साठ के दशक तक यहां कोई 36 बोलियां थीं। सन‍् 1910 में धुरबा जनजाति ने अपनी संस्कृति की रक्षा के सवाल पर अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाए थे। उस विद्रोह को अंग्रेजों ने इस निर्ममता से कुचला कि शौर्य का प्रतीक धुरबा अादिवासियों का जल-जंगल-जमीन का हक समाप्त हो गया। आज ध्ाुरबा श्ाहरों में मजदूर बनकर रह गया है और धुरबी बोली इलाके की संकटग्रस्त बोली बन गई है। धुरबी पर जब बाहरी प्रभाव पड़ा तो कुछ अलग ही बोली उपजी जिसे परजी कहा गया। यह बोली भी धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। बस्तर की बोलयां तीन परिवारों में बंटी हैं—आर्यन, द्रविड़ और मुंडारी। मुंडारी समुदाय की बोली गदबा लगभग विलुप्त हो गई है। आर्य कुल की बोली में सबसे ज्यादा प्रचलन हल्बी का है। उसके बाद भतरी। नोताकानी, मिरगानी, चंडारी जैसी बोलियां खड़ी हिंदी और हल्बी के प्रचलन में पहले घुली-मिलीं, फिर उन्हीं में समा गईं। बस्तर में बाहर से आए बंजारों की भी अपनी बोली है—लम्मान या लम्माणी। लगता है कि यह बोली अब उनकी आखिरी पीढ़ी में ही बची है। कुल मिलाकर देखें तो आज बस्तर के श्ाहर-कस्बों में हल्बी और भतरी ही बची है। जबकि दुर्गम आंचलिक क्षेत्रों में गोंडी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।
जान लें कि बस्तर में बाहरी यानी नेपाली से लेकर मैथिल और बुंदेली से लेकर गुजराती तक सदियों से बस्तर में जा कर बसते रहे और वहां की लोक संस्कृति में ‘तर’ कर बस्तरिया बनते रहे। हां, इन लोगाें ने कभी लोकजीवन में घुसपैठ या उनके इलाकों में दखल का प्रयास नहीं किया। वैश्वीकरण के चलते अधिक से अधिक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की प्रवृत्ति ने आदिवासियों और सरकार के बीच टकराव उत्पन्न किया और उसके गर्भ से नक्सली उपजे। नक्सलवाद अब आतंक बनकर रह गया। सुरक्षा बलों द्वारा स्थापित कालोनियां में पहले उनका भोजन बदलता है, फिर रहन-सहन और फिर बोली बदल जाती है। पलायन, मशीनीकरण और बाजार के विस्तार से कई हस्तशिल्प भी लुप्त हो गए, जिसके साथ उनकी बोलियां भी गायब हुईं। लोहारी, पनका, घड़वा, पारधी, कसेर जैसी छोटी-छोटी जातियों की बोलियां भी इस आंधी में या तो समाप्त हो गईं या फिर किसी करीबी बोली में संगम कर एकसार हो गईं।
हाल ही में केंद्रीय भाषा संस्थान, मैसूर द्वारा जगदलपुर यानी बस्तर के संभागीय मुख्यालय में आयोजित हल्बी भाषा के संरक्षण के लिए दो दिवसीय गोष्ठी, जिसमें मात्र 14 लोग ही आए। विडंबना है कि जो लोग भी पलायन कर श्ाहर आ रहे हैं उनके लिए भाषा का सवाल महज रोजगार की प्राप्ति का जरिया है और इस तरह वे सहजता से अपनी सांस्कृतिक अस्तित्व की पहचान, अपनी पारंपरिक बोली को बिसरा देते हैं। गत 40 साल में ही बस्तर ने ऐसी कई संस्कृतियों को बोली के रास्ते बिसरा दिया। आज जरूरत है कि तत्काल बस्तर में बोलियों का एक संग्रहालय बनाया जाए, जिसमें गुम हो चुकी या संकटग्रस्त बोलियों को आॅडियो, वीडियो और मुद्रित स्वरूप में संरक्षित किया जाए। इसके साथ ही स्थानीय बोलियों में साहित्य लेखन और पठन को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनाएं जिला व राज्य स्तर पर तैयार की जाएं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...