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शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

keep children away from fear with books and confidence

इस भय को विश्वास  व पुस्तकों से दूर करें।
पंकज चतुर्वेदी



गुड़गांव के एक नामी स्कूल में सात साल के मासूम प्रद्युमन की जिस तरह न्रशंस  हत्या हुई, उससे बच्चों में भय व पालकों में आशंका स्वाभाविक है। ऐसी घटनाओं पर गुस्सा लाजिमी है, देा के प्रत्येक पालक के दर्द में साथ खड़ा होना भी जरूरी है, सबक लेना व एहतिहात बरतना ही चाहिए, लेकिन जिस तरह से कुछ लोगों ने इसको ले कर बच्चों के मन में खौफ पैदा किया, वह निहायत गैरजिम्मेदाराना है। बहुत से अखबार और मीडिया चैनल बाकायदा मुहिम चलाए है कि अमुक स्कूल में सुरक्षा के साधन नहीं है, कहीं पर बंदूकधारी गार्ड को दिखा कर सुरक्षा को पुख्ता कहा जा रहा है। स्कूल के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरा लगाए जाने पर जोर दिया जा रहा है। जब पूरा देष अपने गुस्से का इजहार कर रहा था तब दिल्ली के गांधीगनर में एक पांच साल की बच्ची  के साथ स्कूल का ही चौकीदार नीच हरकत कर रहा था। जब सरकार देश  के स्कूलो को सुरक्षा के इंतजामात की फेहरिस्त दे रही थी, तभी राजस्थान के सीकर जिले के एक स्कूल में स्कूल संचालक व शिक्षक  एक 12वीं की बच्ची के साथ कुकर्म कर उसका गर्भपात करवा कर मरने के लिए छोड़ भाग गए थे। जाहिर है कि ना ही जनाक्रोश और ना ही सुरक्षा के इंतजामों की सलाह-सूचियां स्कूल में बच्चें के निरापद रहने की गारंटी है और ना ही इससे ऐसे नृषंस अपराधियों की कुत्सित मानसिकता का दमन हो रहा है।


गुड़गांव की घटना को मीडिया में बहुत कवरेज मिला और उससे बने माहौल से ग्रस्त माता-पिता अपने बच्चों को ज्यादा प्यार जता कर दुआ कर रहे हैं कि ऐसा हमारे यहां ना हो। भावनात्मक स्तर पर यह भले ही स्वाभाविक लगे, लेकिन दूरगामी सोच और बाल मनोविज्ञान की द्रष्टि  सोचें तो हम बच्चे को बस्ता, होमवर्क, बेहतर परिवहन, परीक्षा में अव्वल आने, खेल के लिए समय ना मिलने, अपने मन का ना कर पाने, दोस्त के साथ वक्त ना बिता देने जैसे अनगिनत दवाबों के बीच एक ऐसा अनजाना भय दे रहे हैं जो षायद उसके साथ ताजिंदगी रहे।  यह जान लें कि जो षिक्षा या किताबें या सीख, बच्चों को आने वाली चुनौतियों से जूझने और विशम परिस्थितियों का डट कर मुकाबला करने के लायक नहीं बनाती हैं, वह रद्दी से ज्यादा नहीं हैं।
आज जिन परिवारों की आय बेहद सीमित भी है, वे अपना पेट काट कर बच्चें को बेहतर स्कूल में भेज रहे हैं। वहीं देष में लाखों स्कूल ऐसे हैं जहां, षिक्षक, कमरे, ब्लेक बोर्ड, षौचालय, आवागमन के साधन, बिजली, लायब्रेरी, बैठने की टाटपट्टी व फर्नीचर और तो और मास्टरजी को बैठने को कुर्सी नहीं हैं। निजी स्कूलों का बामुष्किल 20 फीसदी ही बच्चों को बेहतर माहौल दे पा रहा है। बच्चे पुस्तकों, अपनी जिज्ञासा के सटीक जवाब, स्कूल व पाठ्य पुस्तकों की घुटन के छटपटाते हैं। ऐसे में हम माहौल बना रहे हैं कि स्कूल में बंदूक वाला या तगड़ा सा सुरक्षा गार्ड क्यों नहीं है। और जरा यह भी सोच लें कि जब कोई स्कूल या समाज या परिवार के भीतर का ही आ कर ऐसा कुकर्म करेगा तो एक-47 लेकर बैठा चौकीदार क्या कर लेगा। याद करें तीन साल पहले बंगलौर जैसे बड़े षहर में छोटी बच्चियों के साथ दुश्कर्म स्कूल के भीतर, स्कूल के स्टाफ द्वारा ही किये जाने के मामले पर भी खूब हंगामा हुआ था, लेकिन बाद में उसी स्कूल में अपने बच्चों की भर्ती के लिए लोग संत्री-मंत्री से सिफारिष करते दिखे।

स्कूल में शिक्षकों द्वारा ही बच्चों का यौन शोषण  क्या किसी आतंकवदी घटना से कम निर्मम है ? स्कूल में बच्चे अपने ही षिक्षक द्वारा की गई निर्मम पिटाई से  जिंदगीभर के लिए अपाहिज हो जाते हैं, ट्यूश न या ऐसे ही निजी स्वार्थ के चलते बच्चों से स्कूल में भेदभाव होता है, तो क्या ऐसे असमानता , अत्याचार के हल दरवाजे पर खड़ा बंदूक वाला या पुलिसवाला तलाश  सकता है??
यह संभव नहीं है कि देश  के हर बच्चे, हर स्कूल के साथ अत्याधुनिक शस्त्रों , कैमरों से लैस सुरक्षा गारद लगा दी जाए। बस हमारा खुफिया तंत्र मजबूत हो और निगरानी में चौकसी बरती जाए। इससे भी ज्यादा आज जरूरत इस बात की है कि बच्चों को ऐसी तालीम व किताबें मिलें जो उन्हें वक्त आने पर रास्ता भटकने से बचा सकें। जरा विचार करें कि हमारे ही देश  के कई पढ़े-लिखें युवाओं को नाम आतंकवादी घटनाओं में आ रहा है और हम केवल उन पर आपराधिक मुकदमें, जेल में डाल कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान रहे हैं । आए रोज देष के ऐसे उच्च शि क्षा प्राप्त युवाओं के किस्से सामने  आ रहे हैं जो आईएसआईएस, नक्सली, बोडो आंदोलन से जुड़ रहे हैं। जाहिर है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा में ही कुछ कमी रह गई कि वे एक अच्छे नागरिक नहीं बन पाए जो देष की संविधान व कानून की मूल भावना को समझ पाता। । हकीकत में तो समय यह विचार करने का है कि आखिर हमारी तालीम में ऐसी कौन सी कमी रह गई कि हमारे मुल्क में ही पैदा हुआ युवा किसी विदेशी के हाथों की कठपुतली बनकर अपने ही देश  के खिलाफ काम करने लगा। हमारी किताबें भले ही तकनीकी तौर पर युवाओं को अंतरराष्ट्रीय  स्तर का बना रही हों, लेकिन हमारे लफ्ज यह नहीं बता पा रहे हैं कि जब कोई धर्म, आस्था, संस्कार के नाम पर भड़काए तो क्या करना चाहिए। आज स्कूलों में भी कैमरा, डंडा या बंदूक की नहीं, अपितु ऐसी सीख की जरूरत है कि जब ये बच्चे बड़े हो तो उन्हें कोई तालीबान या आईएस बरगला ना पाए। उनकी अनुभवी निगाहें लोगों के स्पर्श और प्यार करने की असली मंशा
को भांप सके।
संवेदना, श्रद्धांजलि, घटनाओं के  प्रति जागरूकता एक बच्चें के व्यक्तित्व निर्माण के बड़े कदम हैं, लेकिन इनके माध्यम से उसे भयभीत करना, कमजोर करना और तात्त्कालिक  कदम उठाना एक बेहतर भविश्य का रास्ता तो नहीं हो सकता। यदि वास्तव में हम चाहते हैं कि भविष्य  में गुड़गांव-गांधीनगर(दिल्ली) या सीकर  जैसी घटनाएं ना हों तो हमारी शि क्षा, व्यवस्था, सरकार व समाज को यह आश्वस्त  करना होगा कि भविष्य  में कोई ऐसा शि क्षक, या क्लीनर नहीं बनेगा , क्योंकि उसके बचपन में स्कूल, पुस्तकें, ज्ञान, स्नेह, खेल, सकारात्मकता का इतना भंडार होगा कि वह पथ भ्रष्ट  हो ही नहीं सकता। भय हर समय भागने की ओर प्रशस्त  करता है और भगदड़ हर समय असामयिक घटनाओं का कारक होती है। विषम  हालात में एक दूसरे की मदद करना, साथ खड़ा होना, डट कर मुकाबला करना हमारी सीख का हिस्सा होना चाहिए, नाकि आंसू, लाचारी, किसी देश  या धर्म या जाति के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए मोमबत्ती, भाषण  या शोक  सभाएं।

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