हम मूलरूप से हिंसक ही हैं !
पंकज चतुर्वेदी
अल्सुबह लोग राजघट पहुँच जाएंगे, वहां रामधुन बज रही होगी, फूल चढेंगे, कुछ जलसे, नारे, रैली......इस तरह कुछ और रस्म अदायगी होगी और याद किया जाएगा कि आज वह इंसान पैदा हुआ था जो हिंसा का शिका र हो कर गोलोकवासी हो गया था और जिसके बारे में कहा जाता है कि उनकी अहिंसा की नीति के बल पर देश को आजादी मिली। भारत की आजादी की लड़ाई या समाज के बारे में देश -दुनिया की कोई भी किताब या नीति पढ़े ंतो पाएंगे कि हमारा मुल्क अहिंसा के सिद्धांत चलता है। एक वर्ग जो अपने पर ‘‘पिलपिले लोकतंत्र’ का आरोप लगवा कर गर्व महसूस करता है, खुद को गांधीवादी बताता है तो दूसरा वर्ग जो गांधी को देष के लिए अप्रासंगिक और बेकार मानता है वह भी ‘देष की गांधीवादी’(?) नीतियों को आतंकवाद जैसी कई समस्याओं का कारक मानता है। असल में इस मुगालते का कभी आकलन किया ही नहीं गया कि क्या हम गांधीवादी या अहिंसक हैं?
आए रोज की छोटी-बड़ी घटनाएं गवाह हैं कि हम भी उतने ही हिंसक और अषांति प्रिय हैं जिसके लिए हम पाकिस्तान या अफगानिस्तान या अमेरिका को कोसते हैं। भरोसा ना हो तो अभी आज का अखबार देख लें, छोटे-छोटे विवादों में रिश्तों की हत्या, बदला लेने के लिए साजिशें , किसी की मौत पर जश्न , युद्धोन्मादी बयानात जैसी घटनाएं सुर्खियों में रंगी। आम इंसान का मूल स्वभाव इसे उभरता है। जाहिर है कि बदला पूरा होने की बात करना हमारे मूल हिंसक स्वभाव का ही प्रतीक है।
यह सवाल क्यों खड़ा कर रहा हूं ? इंसानियत या इंसान को कटघरे में खड़ा करने के लिए नहीं , बल्कि इस लिए कि यदि एक बार हम मान लेगें कि हमारे साथ कोई समस्या है तो उसके निदान की अनिवार्यता या विकल्प पर भी विचार करेंगे। जब सिद्धांततः मानते हैं कि हम तो अहिंसक या शान्ति प्रिय समाज हैं तो यह स्वीकार नहीं कर रहे होते हैं कि हारे समाज के सामने कोई गूढ समस्या है जिसका निदान महति है। अफजल गुरू या कसाब की फांसी पर आतिशबाजी चलाना, या मिठाई बांटना उतना ही निंदनीय है जितना उनको मुकर्रर अदालती सजा के अमल का विरोध । जब समाज का कोई वर्ग अपराधी की फांसी पर ख़ुशी मनाता है तो एकबारगी लगता है कि वह उन निर्दोष लोगों की मौत और उनके पीछे छूट गए परिवार के स्थाई दर्द की अनदेखी कर रहा है। ऐसा इसी लिए होता है क्योंकि समाज का एक वर्ग मूलरूप् से हिंसा-प्रिय है। देष में आए रोज ऐसे प्रदर्षन, धरने, षादी-ब्याह, धार्मिक जुलूस देखे जा सकते हैं जो उन आत्ममुग्ध लोगों के षक्ति प्रदर्षन का माध्यम होते हैं और उनके सार्वजनिक स्थान पर बलात अतिक्रमण के कारण हजारों बीमार, मजबूर, किसी काम के लिए समय के के साथ दौड़ रहे लोगों के लिए षारीरिक-मानसिक पीड़ादायी होते हैं। ऐसे नेता, संत, मौलवी बेपरवाह होते हैं उन हजारों लेगों की परेषानियों के प्रति। असल में हमारा समाज अपने अन्य लोगों के प्रति संवेदनषील ही नहीं है क्योंकि मूलरूप से हिंसक-कीड़ा हमारे भीतर कुलबुलाता है। ऐसी ही हिंसा, असंवेदनषीलताऔर दूसरों के प्रति बेपरवाही के भाव का विस्तार पुलिस, प्रषासन और अन्य सरकारी एजेंसियो में होता है। हमारे सुरक्षा बल केवल डंडे - हथियार की ताकत दिखा कर ही किसी समस्या का हल तलाषते हैं।
हकीकत तो यह है कि गांधीजी षुरूआत से ही जानते थे कि हिंसा व बदला इंसान का मूल स्वभाव है व वह उसे बदला नहीं जा सकता। सन 1909 में ही , जब गांधीजी महात्मा गांधी नहीं बने थे, एक वकील ही थे, इंग्लैंड से अफ्रीका के अपनी समुद्री यात्रा के दौरान एक काल्पनिक पाठक से बातचीत में माध्यम से ‘हिंद स्वराज’’ में लिखते हैं (द कलेक्टेड वर्कस आफ गांधी, प्रकाषन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, खंड 10 पेज 27, 28 और 32) - ‘‘ मैंने कभी नही कहा कि हिंदू और मुसलमान लड़ेंगे ही नही। साथ-साथ रहने वाले दो भाईयों के बीच अक्सर लड़ाई हो जाती है। कभी-कभी हम अपने सिर भी तुड़वाएंगे ही। ऐसा जरूर होना नहीं चाहिए, लेकिन सभी लेग निश्पक्ष नहीं होते .....।.’’ देष के ‘अहिंसा-आयकान’ गांधीजी अपने अंतिम दिनों के पहले ही यह जान गए थे कि उनके द्वारा दिया गया अहिंसा का पाठ महज एक कमजोर की मजबूरी था। तभी जैसे ही आजादी और बंटवारे की बात हुई समग्र भारत में दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा कत्लेआम हो गया। जून-जुलाई 1947 में गांधीजी ने अपने दैनिक भाशण में कह दिया था -‘‘ परंतु अब 32 वर्श बाद मेरी आंख खुली है। मैं देखता हूं कि अब तक जो चलती थी वह अहिंसा नहीं है, बल्कि मंद-विरोध था। मंद विरोध वह करता है जिसके हाथ में हथियार नहीं होता। हम लाचारी से अहिंसक बने हुए थे, मगर हमारे दिलों में तो हिंसा भरी हुई थी। अब जब अंग्रेज यहां से हट रहे हैं तो हम उस हिंसा को आपस में लड़ कर खर्च कर रहे हैं।’’ गांधीजी अपने आखिरी दिनों इस बात से बेहद व्यथित, हताष भी थे कि वे जिस अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को देष से निकालने का दावा करते रहे थे , वह उसे आम लोगों में स्थापित करने में असफल रहे थे। कैसी विडंबना है कि जिस हिंसा को ले कर गांधी दुखी थे, उसी ने उनकी जान भी ली। जिस अहिंसा के बल पर वे स्वराज पाने का दावा कर रहे थे, जब स्वराज आया तो दुनिया के सबसे बड़े नरसंहार, विस्थाप, भुखमरी व लाखों लाषों को साथ लेकर आया।
षायद हमें उसी दिन समझ लेना था कि भारत का समाज मूल रूप से हिंसक है, हमारे त्योहर-पर्व में हम तलवारें चला कर , हथियार प्रदर्षित कर खुष होते हैं। हमारे नेता सम्मान में मिली तलवारें लहरा कर गर्व महसूस करते हैं। हर रोज बाघा बॉर्डर पर आक्रकामक तेवर दिखाकर लोगों में नफरत की आड़ में उत्साह भरना सरकार की नीति है। आम लोग भी कार में खरोंच, गली पर कचरे या एकतरफा प्यार में किसी की हत्या रकने में संकोच नहीं करता है। अपनी मांगों को समर्थन में हमारे धरने-प्रदर्षन दूसरों के लिए आफत बन कर आते हैं,लेकिन हम इसे लोकतंत्र का हिस्सा जता कर दूसरों की पीड़ा में अपना दवाब होने का दावा करते हैं।
हम आजादी के बाद 70 सालों में छह बड़े युद्ध लड़ चुके हैं जिनमें हमारे कई हजार सैनिक मारे जा चुके हैं। हमारे मुल्क का एक तिहाई हिस्सा सषस्त्र अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में हैं जहां सालाना तीस हजार लोग मारे जाते हैं, जिनमें सुरक्षा बल भी षामिल हैं। देष में हर साल पैंतीस से चालीस हजार लोग आपसी दुष्मनियों में मर जाते हैं जो दुनिया के किसी देष में हत्या की सबसे बड़ी संख्या होती है। हमारा फौज व आंतरिक सुरक्षा का बजट स्वास्थ्य या षिक्षा के बजट से बहुत ज्यादा होता है।
सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर हम यह क्यों मान लें कि हम हिंसक समाज हैं ? हमें स्वीकार करना होगा कि असहिश्णुता बढ़ती जा रही है। यह सवाल आलेख के पहले हिस्से में भी था। यदि हम यह मान लेते हैं तो हम अपनी षिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, कानून में इस तरह की तब्दीली करने पर विचार कर सकते है जो हमारे विषाल मानव संसाधन के सकारात्मक इस्तेमाल में सहायक होगी। हम गर्व से कह सकेंगे कि जिस गांधी के जिस अहिंसा के सिद्धांत को नेल्सन मंडेला से ले कर बराक हुसैन ओबामा तक सलाम करते रहे हैं; हिंदुस्तान की जनता उस पर अमल करना चाहती है। हमारी षिक्षा, नीतियों, महकमों में गांधी एक तस्वीर से आगे बढ़कर क्रियान्वयन स्तर पर उभरे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी हिंसक प्रवृति को अप रोग मानें। वैसे भी गांधी के नषा का तिजारत ना करने, अनाज व कपास पर सट्टा ना लगाने जैसी नीतियों पर सरकार की नीतियां बिल्कुल विपरीत हैं तो फिर आज अहिंसा की बात करना एक नारे से ज्यादा तो हैं नहीं ।
पंकज चतुर्वेदी
अल्सुबह लोग राजघट पहुँच जाएंगे, वहां रामधुन बज रही होगी, फूल चढेंगे, कुछ जलसे, नारे, रैली......इस तरह कुछ और रस्म अदायगी होगी और याद किया जाएगा कि आज वह इंसान पैदा हुआ था जो हिंसा का शिका र हो कर गोलोकवासी हो गया था और जिसके बारे में कहा जाता है कि उनकी अहिंसा की नीति के बल पर देश को आजादी मिली। भारत की आजादी की लड़ाई या समाज के बारे में देश -दुनिया की कोई भी किताब या नीति पढ़े ंतो पाएंगे कि हमारा मुल्क अहिंसा के सिद्धांत चलता है। एक वर्ग जो अपने पर ‘‘पिलपिले लोकतंत्र’ का आरोप लगवा कर गर्व महसूस करता है, खुद को गांधीवादी बताता है तो दूसरा वर्ग जो गांधी को देष के लिए अप्रासंगिक और बेकार मानता है वह भी ‘देष की गांधीवादी’(?) नीतियों को आतंकवाद जैसी कई समस्याओं का कारक मानता है। असल में इस मुगालते का कभी आकलन किया ही नहीं गया कि क्या हम गांधीवादी या अहिंसक हैं?
आए रोज की छोटी-बड़ी घटनाएं गवाह हैं कि हम भी उतने ही हिंसक और अषांति प्रिय हैं जिसके लिए हम पाकिस्तान या अफगानिस्तान या अमेरिका को कोसते हैं। भरोसा ना हो तो अभी आज का अखबार देख लें, छोटे-छोटे विवादों में रिश्तों की हत्या, बदला लेने के लिए साजिशें , किसी की मौत पर जश्न , युद्धोन्मादी बयानात जैसी घटनाएं सुर्खियों में रंगी। आम इंसान का मूल स्वभाव इसे उभरता है। जाहिर है कि बदला पूरा होने की बात करना हमारे मूल हिंसक स्वभाव का ही प्रतीक है।
यह सवाल क्यों खड़ा कर रहा हूं ? इंसानियत या इंसान को कटघरे में खड़ा करने के लिए नहीं , बल्कि इस लिए कि यदि एक बार हम मान लेगें कि हमारे साथ कोई समस्या है तो उसके निदान की अनिवार्यता या विकल्प पर भी विचार करेंगे। जब सिद्धांततः मानते हैं कि हम तो अहिंसक या शान्ति प्रिय समाज हैं तो यह स्वीकार नहीं कर रहे होते हैं कि हारे समाज के सामने कोई गूढ समस्या है जिसका निदान महति है। अफजल गुरू या कसाब की फांसी पर आतिशबाजी चलाना, या मिठाई बांटना उतना ही निंदनीय है जितना उनको मुकर्रर अदालती सजा के अमल का विरोध । जब समाज का कोई वर्ग अपराधी की फांसी पर ख़ुशी मनाता है तो एकबारगी लगता है कि वह उन निर्दोष लोगों की मौत और उनके पीछे छूट गए परिवार के स्थाई दर्द की अनदेखी कर रहा है। ऐसा इसी लिए होता है क्योंकि समाज का एक वर्ग मूलरूप् से हिंसा-प्रिय है। देष में आए रोज ऐसे प्रदर्षन, धरने, षादी-ब्याह, धार्मिक जुलूस देखे जा सकते हैं जो उन आत्ममुग्ध लोगों के षक्ति प्रदर्षन का माध्यम होते हैं और उनके सार्वजनिक स्थान पर बलात अतिक्रमण के कारण हजारों बीमार, मजबूर, किसी काम के लिए समय के के साथ दौड़ रहे लोगों के लिए षारीरिक-मानसिक पीड़ादायी होते हैं। ऐसे नेता, संत, मौलवी बेपरवाह होते हैं उन हजारों लेगों की परेषानियों के प्रति। असल में हमारा समाज अपने अन्य लोगों के प्रति संवेदनषील ही नहीं है क्योंकि मूलरूप से हिंसक-कीड़ा हमारे भीतर कुलबुलाता है। ऐसी ही हिंसा, असंवेदनषीलताऔर दूसरों के प्रति बेपरवाही के भाव का विस्तार पुलिस, प्रषासन और अन्य सरकारी एजेंसियो में होता है। हमारे सुरक्षा बल केवल डंडे - हथियार की ताकत दिखा कर ही किसी समस्या का हल तलाषते हैं।
हकीकत तो यह है कि गांधीजी षुरूआत से ही जानते थे कि हिंसा व बदला इंसान का मूल स्वभाव है व वह उसे बदला नहीं जा सकता। सन 1909 में ही , जब गांधीजी महात्मा गांधी नहीं बने थे, एक वकील ही थे, इंग्लैंड से अफ्रीका के अपनी समुद्री यात्रा के दौरान एक काल्पनिक पाठक से बातचीत में माध्यम से ‘हिंद स्वराज’’ में लिखते हैं (द कलेक्टेड वर्कस आफ गांधी, प्रकाषन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, खंड 10 पेज 27, 28 और 32) - ‘‘ मैंने कभी नही कहा कि हिंदू और मुसलमान लड़ेंगे ही नही। साथ-साथ रहने वाले दो भाईयों के बीच अक्सर लड़ाई हो जाती है। कभी-कभी हम अपने सिर भी तुड़वाएंगे ही। ऐसा जरूर होना नहीं चाहिए, लेकिन सभी लेग निश्पक्ष नहीं होते .....।.’’ देष के ‘अहिंसा-आयकान’ गांधीजी अपने अंतिम दिनों के पहले ही यह जान गए थे कि उनके द्वारा दिया गया अहिंसा का पाठ महज एक कमजोर की मजबूरी था। तभी जैसे ही आजादी और बंटवारे की बात हुई समग्र भारत में दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा कत्लेआम हो गया। जून-जुलाई 1947 में गांधीजी ने अपने दैनिक भाशण में कह दिया था -‘‘ परंतु अब 32 वर्श बाद मेरी आंख खुली है। मैं देखता हूं कि अब तक जो चलती थी वह अहिंसा नहीं है, बल्कि मंद-विरोध था। मंद विरोध वह करता है जिसके हाथ में हथियार नहीं होता। हम लाचारी से अहिंसक बने हुए थे, मगर हमारे दिलों में तो हिंसा भरी हुई थी। अब जब अंग्रेज यहां से हट रहे हैं तो हम उस हिंसा को आपस में लड़ कर खर्च कर रहे हैं।’’ गांधीजी अपने आखिरी दिनों इस बात से बेहद व्यथित, हताष भी थे कि वे जिस अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को देष से निकालने का दावा करते रहे थे , वह उसे आम लोगों में स्थापित करने में असफल रहे थे। कैसी विडंबना है कि जिस हिंसा को ले कर गांधी दुखी थे, उसी ने उनकी जान भी ली। जिस अहिंसा के बल पर वे स्वराज पाने का दावा कर रहे थे, जब स्वराज आया तो दुनिया के सबसे बड़े नरसंहार, विस्थाप, भुखमरी व लाखों लाषों को साथ लेकर आया।
षायद हमें उसी दिन समझ लेना था कि भारत का समाज मूल रूप से हिंसक है, हमारे त्योहर-पर्व में हम तलवारें चला कर , हथियार प्रदर्षित कर खुष होते हैं। हमारे नेता सम्मान में मिली तलवारें लहरा कर गर्व महसूस करते हैं। हर रोज बाघा बॉर्डर पर आक्रकामक तेवर दिखाकर लोगों में नफरत की आड़ में उत्साह भरना सरकार की नीति है। आम लोग भी कार में खरोंच, गली पर कचरे या एकतरफा प्यार में किसी की हत्या रकने में संकोच नहीं करता है। अपनी मांगों को समर्थन में हमारे धरने-प्रदर्षन दूसरों के लिए आफत बन कर आते हैं,लेकिन हम इसे लोकतंत्र का हिस्सा जता कर दूसरों की पीड़ा में अपना दवाब होने का दावा करते हैं।
हम आजादी के बाद 70 सालों में छह बड़े युद्ध लड़ चुके हैं जिनमें हमारे कई हजार सैनिक मारे जा चुके हैं। हमारे मुल्क का एक तिहाई हिस्सा सषस्त्र अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में हैं जहां सालाना तीस हजार लोग मारे जाते हैं, जिनमें सुरक्षा बल भी षामिल हैं। देष में हर साल पैंतीस से चालीस हजार लोग आपसी दुष्मनियों में मर जाते हैं जो दुनिया के किसी देष में हत्या की सबसे बड़ी संख्या होती है। हमारा फौज व आंतरिक सुरक्षा का बजट स्वास्थ्य या षिक्षा के बजट से बहुत ज्यादा होता है।
सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर हम यह क्यों मान लें कि हम हिंसक समाज हैं ? हमें स्वीकार करना होगा कि असहिश्णुता बढ़ती जा रही है। यह सवाल आलेख के पहले हिस्से में भी था। यदि हम यह मान लेते हैं तो हम अपनी षिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, कानून में इस तरह की तब्दीली करने पर विचार कर सकते है जो हमारे विषाल मानव संसाधन के सकारात्मक इस्तेमाल में सहायक होगी। हम गर्व से कह सकेंगे कि जिस गांधी के जिस अहिंसा के सिद्धांत को नेल्सन मंडेला से ले कर बराक हुसैन ओबामा तक सलाम करते रहे हैं; हिंदुस्तान की जनता उस पर अमल करना चाहती है। हमारी षिक्षा, नीतियों, महकमों में गांधी एक तस्वीर से आगे बढ़कर क्रियान्वयन स्तर पर उभरे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी हिंसक प्रवृति को अप रोग मानें। वैसे भी गांधी के नषा का तिजारत ना करने, अनाज व कपास पर सट्टा ना लगाने जैसी नीतियों पर सरकार की नीतियां बिल्कुल विपरीत हैं तो फिर आज अहिंसा की बात करना एक नारे से ज्यादा तो हैं नहीं ।
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