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गुरुवार, 26 अक्टूबर 2017

Biodiversity in India is under threat

पेड़-पौधे भी हैं तस्करों के निशाने पर !

पंकज चतुर्वेदी

सीमा सुरक्षा बल यानि एसएसबी की ताजा रिपोर्ट बताती है कि बीते तीन सालों के दौरान केवल भूटान और नेपाल की सीमा पर जंगली जानवरों कें अंगों और वनस्पति जैसी दुर्लभ जैवविधिता वाले प्राकृतिक संसाधनों की तस्करी कई सौ गुना बढ़ गई है।  इस अवधि में तस्करों से मिली वन संपदा की कीमत 2.21 करोड़ रुपए से बढ़कर 187.69 करोड़ रुपए हो चुकी है। एसएसबी की रिपोर्ट बताती है कि सन  2014 में वन संपदा की तस्करी के महज  39 प्रकरण दर्ज हुए थे, जो आज बढ़ कर 82 हो गए हैं। इसी साल अप्रैल महीने में सरकार ने राज्यसभा में माना था कि जहां 2014 में बाघ के अवैध शिकार के कुल 19 मामले दर्ज हुए वहीं 2016 में यह संख्या 31 हो गई थी। यह पाया गया कि जिन पांचराज्यों में बाघों का अधिक अवैध शिकार हुआ उनमें उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, बिहार, कर्नाटक व उत्तर प्रदेश शामिल हैं।
उधर, एसएसबी की रिपोर्ट बताती है कि पश्चिम बंगाल तीन साल में वन संपदा की तस्करी का गढ़ बन चुका है। नेपाल और भूटान के सीमावर्ती पांच भारतीय राज्यों के घने जंगलों से वन्य जीवों की होने वाली तस्करी में लगभग आधी हिस्सेदारी पश्चिम बंगाल की हो गई है। एसएसबी ने 2014 से 2017 के दौरान की गई वन्य जीवों की तस्करी का मूल्य 244.56 करोड़ रुपए आंका है। तस्करों के निशाने पर इन इलाकों के वन्य जीवों में हिम तेंदुआ, सफेद हिरण, बाघ, एशियाई हाथी, हिमालयन नीली भेड़ और किंग कोबरा शामिल हैं।
 भारत में तस्करों की पसंद वे नैसर्गिक संपदा है, जिसके प्रति भारतीय समाज लापरवाह हो चुका था , लेकिन पाश्चात्य देश उनका महत्व समझ रहे हैं । गौरतलब है कि यह महज नैतिक और कानूनसम्मत अपराध ही नहीं है, बल्कि देश की जैव विविधता के लिए ऐसा संकट है, जिसका भविश्य में कोई समाधान नहीं होगा। भारत में लगभग 45 हजार प्रजातयों के पौधों की जानकारी है , जिनमें से कई भोजन या दवाईयों के रूप  में बेहद महत्वपूर्ण हैं । दुर्लभ कछुओं, कैंकडों और तितलियों को अवैध तरीके से देश से बाहर भेजने के कई मामले अंतर्राष्ट्रीय  हवाई अड्डे पर पकड़े जा चुके हैं । पिछले दिनों दिल्ली में संपन्न अंतर्राष्ट्रीय  कृषि  जैवविविध्ता कांग्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जैव विविधता संरक्षण को भुखमरी, गरीबी और कुपोषण  से जूझने का महत्वपूर्ण साधन निरूपित किया था।  विडंबना है कि देश के दूरस्थ अंचलों में स्थानीय पेड़-पौधे , पशु -पक्षी, तितली-कीट की प्रजातियां या तो कीटनाशक दवाओं व अन्य रसायनों के अंधाधुध इस्तेमाल या फिर तस्करों के हाथों विलुप्त होती जा रही है।

हमारा जल, मिट्टी, फसल और जीवन इन्हीं विविध जीवों व फसलों के आपसी सामंजस्य से सतत चलता है । खेतों में चूहे भी जरूरी हैं और चूहों का बढ़ना रोकने के लिए सांप भी । सांप पर काबू पाने के लिए मोर व नेवले भी हैं । लेकिन कहीं खूबसूरत चमड़ी या पंख के लिए तो कहीं जैव विविधता की अनबुझ पहेली के गर्भ तक जाने केा व्याकुल वैज्ञानिकों के प्रयोगों के लिए भारत के जैव संसार  पर तस्करेंा की निगाहें गहरे तक लगी हुई हैं ।  भारत ही साक्षी है कि पिछले कुछ वर्शों के दौरान चावल और गेहूं की कई किस्मों, जंगल के कई जानवरों व पंक्षियों को हम दुर्लभ बना चुके हैं  और इसका खामियाजा भी समाज भुगत रहा है ।
वैसे तो भारत सरकार ने इलाके की 41 जड़ी बूटियों के दोहन पर रोक लगा रखी है । इसके बावजूद अतीश, दंदासा, तालीस, कुटकी, डोलू, गंद्रायण, सालम मिस्री, जटामोसी, महामेदा, सोम आदि स्थानीय बाजार में सस्ते दामों में बिकती मिल जाती है । यहां हालात इतने गंभीर हैं कि गढ़वाल की भिलंगना घाटी में गत एक दशक के दौरान 22 पादप प्रजातियां  विलुप्त हो गईं, 60 प्रजातियों का जीवन-चक्र सिर्फ 3-4 साल का रह गया है । अनुमान है कि कुमाऊं और पिथौरागढ़ की शारदा नदी के किनारे के वनों से कोई 40 प्रजाति के पौघे आगामी पांच सालों में नदारत हो जाएंगे ।
नेपाल की सीमा पर धनगढ़ी, रक्सौल, वीरगंज,  हेटोडा, नेपालगंज के महंगे होटलों में लेपटाप, फैक्स, मोबाईल से लैस सारे साल डटे रहते हैं । ये लोग उन जड़ी-बूटियों और उनके खरीदारों के सतत संपर्क में रहते हैं, जिनकी मांग अमेकिा व यूरोप में है, लेकिन भारत में उन पर पाबंदी है । भारत के हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों व दवाईयों की बाहर जबरदस्त मांग है। अरब के अय्याश शेखों को र्यान-शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं के नाम पर केवल भारतीय जड़ी-बूटियां ही भाती हैं व इसके लिए वे कुछ भी भुगतान करने को तैयार रहते हैं ।
नेशनल केंसर इंस्टीट्यूट , अमेरिका(एनसीआई) के एक षोध के मुताबिक भारत के पहाड़ों पर मिलने वाली आयुर्वेदिक वनौषधि ‘ टेक्सोल’ में गर्भाशय का कैंसर रोकने की जबरदस्त क्षमता है ।  फिर क्या था , देखते ही देखते नेपाल की सीमा से सटे हिमालय इलाके के ‘तालीस पत्र’ नामक पेड़ पर जैसे कहर आ गया हो । यही तालीस पत्र टेक्सोल है और अब कभी चप्पे-चप्पे पर मिलने वाले इसके पेड़ अब दुलर्भ हो गए हैं । डाबर, नेपाल ने तो बाकायदा इसकी खेती व उसे अमेरिका व इटली को बेचने के अनुबंध कर रखे हैं ।
अरूणाचल प्रदेश की दिबांग और लोहित घाटियों में ‘‘ मिशामी टोटा’’ का टोटा होना अभी की ही बात हैं । डिब्रुगढ़ के बाजार में अचानक इसकी मांग बढ़ी और देखते ही देखते इसकी नस्ल ही उजाड़ दी गई । स्थानीय लोग इस जड़ी का इस्तेमाल पेट दुखने व बुखार के इलाज के लिए सदियों से करते आ रहे थे । डिब्रुगढ़ में इसके दाम दो हजार रूपए किलो हुए तो कोलकाता के बिचौलियों ने इसे पांच हजार में खरीदा । वहां से इसे तस्करी के पंख लगे और जापान व स्वीट्जरलैंड में इसके जानकारों ने पचास हजार रूपए किलो की दर से भुगतान कर दिया ।
ठीक यही हाल ‘अगर’ नाम सुगंधित औषधि का हुआ । इसके तेल की मांग अरब देशो में बहुत है ।  यहां तक कि सौ ग्राम तेल के एक लाख रूपए तक मिलते हैं । अरब के कामुक शेख इसके लिए बेकरार रहते हैं । इन सभी जड़ी-बूुटियों  को जंगल से बाहर निकालने व उन्हें भूटान या नेपाल के रास्ते तस्करी करने के काम पर वहां के उग्रवादियों का एकछत्र राज्य है ।
एड्स और कैंसर जैसी खतरनाक रोगों का इलाज खोज रहे विदेशी वैज्ञानिकों की नजर अब भारत के जंगलों में मिलने वाले कोई एक दर्जन पौधों पर हैं, । अमेरिका व यूरोप के कुछ वनस्पति वैज्ञानिक और दवा बनाने वाली कंपनियों के लेाग गत कुछ वर्शों से पर्यटक बन कर भारत आते हैं और स्थानीय लोगों की मदद से जड़ी-बूटियों के पारंपरिक इस्तेमाल की जानकारियां प्राप्त करते हैं । विदित हो सन 1998 में मध्यप्रदेश के जंगलों में जर्मनी की एक दवा कंपनी के प्रतिनिधियों को उस समय रंगे हाथों पकड़ा गया था, जब वे स्थानीय आदिवासियों की मदद से कुछ पौधों की पहचान कर रहे थे ।
राजस्थान के रणथंभौर अभ्यारण इलाके में विदेशी लोगों द्वारा कतिपय पौधों के बारे में जानकारी मांगने की बात राजस्थान विश्वविद्यालय के एक षोध में भी उल्लेखित की गई है ।
देश के रेगिस्तानी इलाकों में मिलने वाली गूगल(कांपीफोरा वाईट्री) की एक विशेश प्रजाति में द्ददय रोग के कारक कोलेस्ट्रोल को कम करने की क्षमता है । अश्वगंधा यानी विथानिया सोम्नीफेर तो याददाश्त, मानसिक रोगों, षारीरीक दुर्बलता जैसे विकारों में राम बाणा माना जाता है । इस बूटी में कैंसर -रोधी गुण भी हैं और इसी कारण इसकी बड़ी मात्रा में तस्करी हो रही है । सांस संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए पुश्तैनी रूप से इस्तेमाल होने वाले एक पौधे की भी खासी मांग है, इसे वैज्ञानिक भाशा में ‘‘ इफेड्रा फोलियाटा’’ कहा जाता है । अमेरिका में इस पौघे से दिल की ओर जाने वाली धमनियों को खेालने की दवा बनाने के प्रयोग चल रहे हैं । यदि ये सभी प्रयोग सफल हुए तो विदेशी कंपनियां हमारी इन जड़ी-बूटियों को अपने तरीके से पैटंट करवा कर सारी दुनिया में व्यापार करेंगी ।
राजधानी दिल्ली का खारी बावली इलाका कई दुलर्भ व प्रतिबंधित औषधियों की खरीद-फरोक्ष्त का अड्डा है ।
कैंसर के इलाज के लिए प्रयुक्त दवा ‘ आईसो हैक्सनीलन्पथाइजरिंस’’ भले ही आज विदेशी औशधि है, लेकिन यह मध्य भारत में लावारिस से मिलने वाले पौधे ‘अर्नेबिया हिस्पीडिसीमा’’ से बनी है । अरावली पर्वतमाला में मिलने वाले पौधे ‘बैलानाईट्स एजीप्टीनिया’ से ऐसा गर्भनिरोधक तैयार किया गया है , जिसके कोई साईड-इफैक्ट नहीं हैं । हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले गुलाबी फूलों ‘ बरबेरिस एरिस्टाका’ से आंख की बेहतरीन  दवा तैयार की गई है । यहीं मिलने वाले टेक्सस बकाठा से कैंसर निदान में महत्वपूर्ण दवा मिली है । हैपीटाइटस जैसे घातक रोग का इलाज भी भारत में मिलने वाली बूटी फाइलान्थर निसरी में खोजा गया है ।
हमारे लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा नीम का कई बीमारियों व खेती-किसानी में उपयोग होता है । परंपरागत रूप से नीम भारतीय पेड़ है, इसके बावजूद सन 1995 में यूरोपीय पेटेंट प्राधिकरण ने अमेरिका के कृषि विभाग व अमेरिका की रसायन कंपनी डब्लू.जी. ग्रेस एंड कंपनी के नाम नीम के तेल से कीटनाशक बनाने का पेटेंट  जारी कर दिया । समय रहते इस निर्णय को चुनौती दी गई, तब डब्लू. जी. ग्रेस कंपनी ने कई प्रमाण प्रस्तुत किए कि वे लंबे समय से इस दिशा में शोध कर रहे हैं । हालांकि कंपनी का दवा खारिज हुआ, लेकिन उस घटना से पता चला कि किस तरह अमेरिकी कंपनियां लंबे समय से भारत से नीम के तेल की तस्करी कर ही थीं ।  ठीक ऐसा ही हल्दी के साथ भी हो चुका है ।  दक्षिण एशिया के किसानों के बासमती के पेटेेट पर भी अमेरिकी दावे हो चुके हैं ।
यहां जानना जरूरी है कि हमारे  देश की पारंपरिक जड़ी-बूटियों की थोड़ी सी मात्रा ही विदेशी वैज्ञानिकों के लिए काफी होती है । ये लोग इन औशधियों के गुणों व उसके मुख्य तत्वों का विश्लेशण करते हैं और फिर उन्हीं तत्वों के आधार पर दवाएं बना कर पैटेंट करवा लेते हैं । हमारे पारंपरिक ज्ञान की रासायनिक बनावट को विदेशों में भेजने वाले कई गिरोह बाकायदा काम कर रहे हैं । यह बड़ा सुरक्षित धंधा है , ना तो कोई बड़ा सा कंसाईमेंट बनाना है और ना ही ढृलाई का झंझट है । इस काम में कई पर्यटक तो कुछ योग के विशेशज्ञ और कुछ तो दोहरी नागरिकता वाले अप्रवासी लगे हैं।

भारत जैसे जैव-संपन्न देश में इस बाबत सशक्त कानून ना होना विडंबना ही है । संसद ने सन 2002 में जैव विविधता कानून को मंजूरी दी थी । एक राष्टीय जैव विविधता प्राधिकरण के गठन की भी योजना बनाई गई थी । गोया यह सरकार में बैठे लोग भी स्वीकारते हैं कि जैव तस्करी पर कारगर रूप से अंकुश लगाने की दृष्टि से यह कानून बेहद कमजोर है ।  हमारे बौद्धिक व पारंपरिक ज्ञान व जैव विविधता का सौदा करने वाले लेाग एक तरह से देश की अर्थ व्यवस्था पर प्रहार कर रहे हैं । इस बाबत सरकार भले ही देर से चेते पर समाज को इस ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा ।

पंकज चतुर्वेदी

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