यमुना के सूखने से कमजोर होता ताज
पंकज चतुर्वेदीआगरा का ताजमहल अब केवल एक ऐतिहासिक इमारत, या दुनिया के सात अजूबों में से एक ही नहीं रह गया है, प्रेम की यह निशानी अब यह विवाद, राजनीतिक दांवपेचं और सांप्रदायकि धु्रवीकरण के जरिये वोट उगाहने की मशीन भी बनता जा रहा है। आज इसकी इसकी चमक बरकरार रखने के लिए पुश्तों से यहां रह रहे लोगों पर तमाम बंदिशेां लगाई जाती हैं, जबकि हकीकत यह है कि ताजमहल के अस्तित्व को खतरे का मूल कारण बेपानी व जहरीली हो रही यमुना नदी है। ताजमहल के सफेद संगमरमर के पीला पड़ने पर सरकार चिंतित है। एक संसदीय दल वहां के हालात देखने को भेजा जा रहा है। आगरा में गोबर कें उपलों को जलाने पर रोक की योजना है ताकि सदियों से प्रेम का संदेश दे रहे ताजमहल की सफेद रंग बरकरार रखा जा सके। इन दिनों ताजमहल को ‘फेस पैक’ लगाया जा रहा है , कोशिश है कि ‘मसाज’ कर उसकी रंगत को वापिस लाया जाए । दुनिया के कई देशों के लोग ताज महल को आश्चर्य मानते हैं । आश्चर्य इसकी बनावट या खूबसूरती के कारण नहीं, बल्कि इतनी लापरवाही से उसकी देखभाल करने के बावजूद इतने लंबे समय तक इसका अस्तित्व बरकरार रहने के कारण ! ताज की खूबसूरती पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं ।
प्रमाण हैं कि इस बेशकीमती इमारत की मीनारों में झुकाव आ रहे हैं । ताज की ताजतरीन समस्या उसके पत्थरों व नक्कासी के जगह-जगह से चटकने की है । मुख्य इमारत के बाहरी हिस्से में जहां बेहतरीन, नफीस नक्कसी है, वहां गहरी दरारें देखी जा सकती हैं । इसके खंबों पर संगमरमर भी कई जगह चटक गया है । सरकारी अफसर इसे कोई बड़ी समस्या नहीं मानते, लेकिन कई-कई हजार किलोमीटर दूर से इस अजूबे को देखने आने वालेां की आंख में तो यह खटकता है । इस वैज्ञानिक तथ्य को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है कि ताजमहल की आलीशान इमारत जिस नींव पर टिकी है उसमें नमी बरकरार रखना जरूरी है, वरना यह ढ़ांचा कभी भी अपना संतुलन खो सकता हे।
सनद रहे यूनेस्को ने सन् 1983 में ताज को विश्व विरासत घेाषित किया था । ऐसी सभी इमारतों के संरक्षण के लिए यूनेस्को समय-समय पर धन और तकनीकी सहायता उपलब्ध करवाता है । ताज के साथ भी ऐसा हुआ, लेकिन सन् 2000 में जिस तरह सुप्रीम कोर्ट और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कडे निर्देशों के बावजूद ताजमहल और आगरा के किले के बीच कॉरीडोर बनाने का काम शुरू हुआ था, उससे प्यार के इस नायाब तोहफे को बहुत कुछ नुकसान हुआ । हालांकि काम रूक गया, उत्तर प्रदेश की सरकार पलट गई, लेकिन यमुना में जो बंधान का काम हुआ, उससे नदी का बहाव प्रभावित हुआ है,। जाहिर है कि इसका असर ताज की संरचना पर पड़ रहा है । यही नहीं इस अधूरे पड़े कारीडोर को आगरा नगर निगम ने शहरभर का कचरा डंप करने की खंदक बना लिया हैं । यहां यह भी याद रखना होगा कि कचरे के सड़ने से निकलने वाली मीथेन गैस संगमरमर की सेहत के लिए बेहद नुकसानदेय होती हैं ।
ताजमहल को सबसे बड़ा खतरा तो यमुना का बहाव बदलने से हैं । सनद रहे कि ताजमहल को बनाते समय उसकी नींव को नदी के जल स्तर तक खोदा गया था । फिर ककईर्या इंटों(पतली ईंटें)और चूने से कुएं की आकृति की नींव तैयार की गई थी । यहां कोई साढ़े तीन सौ कुएं हैं जिनमें चूना व लकड़ी का बुरादा भरा है। इस इमारत को गढ़ते समय कारीगरों ने इस बात को ध्यान में रखा था कि इसकी नींव सदैव पानी से तर रहे । यमुना के नैसर्गिक बहाव के साथ हुए लगातार खिलावड़ों के कारण आगरा में यह ताज से छिटक गई है । तभी इसकी मीनारों का झुकाव नदी की ओर बढ़ रहा है । मुख्य इमारत में आ रही दरारों का कारण भी मीनारों का झुकाव बढ़ना ही है ।
सन 1965 में प्रसिद्ध इतिहासविद् प्रो. रामनाथ ने ताजमहल का एक सर्वेक्षण किया था । उसमें उन्होंने बताया था कि यदि ताज के सौंदर्य को अक्षुण्ण रखना है तो जरूरी है कि यमुना में पानी का स्तर उतना ही रखा जाए, जितना 17वी शताब्दी में यहां हुआ करता था । दुर्भाग्य है कि प्रो. रामनाथ की सिफारिशों को कहीं सरकारी बस्ते लील गए और बीसवीं सदी आते-आते नदी किनारे का पानी सुखा कर वहां बाजार बसाने की योजनांए बनने लगीं । गौरतलब है कि मीनारों के झुकने का खतरा आजादी से पहले अंग्रेज सरकार ने भांप लिया था । तभी सन् 1942 में मीनारों पर पर्यटकों के जाने पर रोक लगा दी गई थी, जो आज भी जारी है । वैसे जब ताज का मूल डिजाईन बनाया गया था, तब यमुना नदी में साफ और शुद्ध जल निरंतर बारहों महीने बना रहता था । जब तक यमुना में पावन जल रहेगा,तभी तक ताजमहल का अस्तित्व है । विडंबना है कि इस तथ्य को जानते परखते हुए भी आगरा में यमुना नदी को रासायनिक अपशिष्ठ और शहरी गंदगी का नाला बना दिया गया है । शहर के सभी नाले बगैर किसी उपचार के यमुना में गिर रहे हैं । ताज से सटा श्मसान घाट सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी यथावत हैं । धोबी घाट भी नहीं हटा हैं । केद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक ताजमहल के आसपास नाईट्रोजन आक्साईड, सल्फरडाई आक्साईड और एसपीएम की मात्रा निर्धारित मात्रा से चार गुणा अधिक हैं ।
सन् 1993 रूड़की विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के तीन विशेषज्ञों के दल ने एक जांच में चेताया था कि ताजमहल स्वयं के वजन के कारण जमीन में 80 मिलीमीटर धंस गया है ।
आगरा से सटे मथुरा, फिरोजाबाद, हाथरस, भरतपुर और अलीगढ़ के कई कारखाने हर रोज सैंकड़ों टन सल्फर डाय आक्साईड गैस छोड़ रहे हैं । इससे ईरानी संगमरमरर के काले होने का खतरा है । एक जनहित याचिका पर सन् 1993 में सुप्रीम कोर्ट नेेेे लगभग साढ़े पांच सौ उद्योगों को ताजमहल की खातिर बंद करवा दिया था । बाद में इनमें से अधिकांश कारखानों ने प्रदूषणरेाधी संयत्र लगवाने की सूचना दी । बाद में अदालत ने फीरोजाबाद क्षेत्र के 65 उद्योगों को छोड़ कर शेष सभी को चलाने की अनुमति दे दी थी । यह चर्चा आम है कि न तो कारखानों से निकलने वाला ध्ुाआं कम हुआ है और नही ताजमहल को होने वाला नुकसान, लेकिन सरकारी कागजों पर तो सब कुछ ठीक बताया जा रहा है । ताजमहल को स्थानीय उद्योगों से होने वाले नुकसान की जांच के लिए केंद्र सरकार की वरदराजन कमेटी व उत्तरप्रदेश शासन की त्रिपाठी समिति की रिपोर्ट देखें तो पता चलेगा कि इलाके के कारखानांे से ताजमहल को कोई नुकसान है ही नहीं ।
सन् 1631 में अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में ताजमहल बनवाने वाले मुगल बादशाह शाहजाहां को यह सपने में भी गुमान नहीं होगा कि जिस ताज को वह प्रंेम की अमर कृति के रूप में बना रहा है, उस पर मुल्ला-मौलवी, मंदिर-मस्जिद विवाद का साया मंडराएगा । आजादी से पहले सन् 1942 में सर्वेे आफ इंडिया की एक रिपोर्ट को उजागर किया गया था, जिसमें बताया गया था कि ताज यमुना नदी में 1.4र्4 इंच धंस गया है । सरकार भले ही लाख मना करे, लेकिन धंसने की क्रिया आज भी जारी है । सन 1993 में रूड़की विश्वविद्यालय के इंजीनियरों के एक दल ने ताज का अध्ययन किया था, जिसमें मीनारों के लगातार झुकने की बता कही थी । इसका मुख्य कारण यमुना में पानी की कमी ही है । समिति ने यह भी चेताया था कि ताज को औद्योगिक प्रदूषण से बचाने के लिए तो बड़े-बड़े कदम उठाए जा रहे हें, लेकिन भवन के निर्माण दोष या उसकी पारिस्थितिकी पर कतई गौर नहीं किया जा रहा है ।
आज ताज को बचाने के नाम पर कई कारखानों का विस्थापन हो चुका है ं। शहर में चलने वाले डीजल के टेंपो को हरे रंग से पोत कर शहर को हरा-भरा बताने का मजाक हो रहा है । ताज के करीबी कालोनियों में गैस के सिलेंडर बांटने में हुई बंदर-बांट की तो काई चर्चा भी करता है । ताज को बचाने के फेर में लाखों लोगों की रोजी-रोटी के साधन नहीं बच पाए , लेकिन हालत जस के तस हैं । यह अब आम धारणा बनती जा रही है कि ताज केा खतरा प्रदूषण से कम और बाजारवाद से ज्यादा है । तभी तो धुआं, धूल और धूप से इसके संगमरमर पर पड़ रहे विषम प्रभावों पर तो लगातार बयान, आदेश और कार्यवाहियां हो रही हैं । जाहिर है कि इसकी चपेट में अधिकांश गरीब पुश्तैनी कारीगर व छोटे उद्योग आ रहे हैं । जबकि इमारत की वास्तु, बनावट और आधार पर जल व जमीन के साथ हो रही छेड़छाड़ के कारण पड़ रहे भयंकर परिणामों पर कोई चर्चा करने को भी तैयार नहीं है । यहां तक कि जब कोई तकनीकी विशेषज्ञ इस पर टिप्पणी करता है, सरकारी बयान उसे झूठा साबित करने में जुट जाते हैं ।
जब ताजमहल इतने प्रदूषण से जूझ रहा है, तब पुरातत्व विभाग इस पर मुल्तानी मिट्टी का लेप कर इसकी चमक वापिसी का दावा कर रहा हैं । हालंाकि पिछले अनुभव सामने हैं कि इस तरह के लेप से कुछ महीनों तक तो ताज चमकता है, लेकिन बाद में इसकी हालत पहले जैसी ही हो जाती हैं । वास्तव में मुल्तानी मिट्टी ‘ फुलर्ज अर्थ’ है, जिसका मूल रसायन एल्यूमिनियम सिलिकेट हेाता हैं । इस रसायन का इस्तेमाल भेड़ों की ऊन साफ करने में एक रंजक या ब्लीच के तौर पर होता है। इस मिट्टी के पेस्ट को ताजमहल की बाहरी दीवारों पर लगाया जाता हैं । दो दिनों में यह पेस्ट अपने आप गिर जाता हैं । इसके बाद संगमरमर की सतह को डिस्टिल वाटर से साफ किया जाता हैं । इससे पहले सन 1994 ,2001 और 2008 में भी ऐसे लेप लगाए गए थे । यहां विचारणीय है कि जो ताज तीन सौ साल से अपनी नैसर्गिक चमक से दमकता रहा है, यदि उसे बार-बार बाहरी रसायनों का आदी बन दिया गया तो कहीं ऐसे लेप की जरूरत हर साल ना पड़े । क्या हम अपनी राष्ट्रीय धरोहरों को इस तरह के प्रयोग कर जोखिम में नहीं डाल रहे हैं ?
हो सकता है कि कुछ दिनों के लिए ताजमहल फिर चमक जाऐ, लेकिन यदि यमुना की गति और प्रदूषण की रफ्तार ऐसी ही रही तो यह गर्व के गुंबद अर्रा कर दरक भी सकते हैं ।
पंकज चतुर्वेदी
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