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मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

Jail reforms needs to be fasten for proper human resource management

जेल बनें इंसानों के रहने लायक

पंकज चतुर्वेदी 
देश के चर्चित मुकदमों में से एक आरूशि-हेमराज हत्या प्रकरण में डाक्टर तलवार दंपत्ति कोई आठ साल जेल में रह कर लौटे। देशभर के छोटे-मझोल अखबारों में हर दिन दो किस्म की खबरें जरूर छपती हैं - अमुक व्यक्ति 10 या इतने ही साल जेल में रहने के बाद अदालत से बाइज्जत बरी। और दूसरी खबर कि  जेल में बंदी की मौत। बिडंबना है कि ऐसी खबरों पर अब पीड़ित के परिवार के अलावा अन्य कोई विचार भी नहीं करता। रिहाई में ‘‘बाइज्ज्त’’ के क्या मायने हैं लेकिन इस काल में उसका जीवन जरूर बदल गया। बाहर आ कर समाज व पुलिस दोनों उसे संदिग्ध नजर से देख रहे हैं, उसे काम पर रखने वाले तैयार नहीं हैं। वही आठ साल जेल में विचाराधीन कैदी के तौर पर हर दिन के तनावों के चलते उसका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य भी गड़बड़ा गया है। कहा नहीं जा सकता है कि इस कुंठा व बेज्जती से कब उबर पाएगा।  अब तो सुप्रीेम कोर्ट ने भी कह दिया कि  जेल में विचाराधीन कैदियों की हालत बहुत बुरी है और  क्षमता से कई सौ गुना ज्यादा भीड़ से भरे जेल इंसान के आत्म सम्मान के मूलभूत अधिकार पर प्रश्न चिन्ह है।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता ने सभी उच्च न्यायालयों में मुख्य न्यायाधीशों को  से कहा है कि जेल में खुदकुशी समेत सभी अस्वाभाविक मौत के मामलों में कैदी के परिवार को उचित मुआवजा देने के लिए स्वतः संज्ञान लें । सुप्रीम कोर्ट ने जेल सुधार के लिए ‘ओपन जेल’ की व्यवस्था पर विचार करने की भी बात कही । अदालत ने कैदियों के सुधार के लिए समाज के प्रबुध्द लोगों को शामिल कर एक बोर्ड बनाने मॉडल जेल मैन्युअल लागू करने के भी निर्देश दिए। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा है कि ये वांछनीय है कि जेलों में भी संविधान के दिए अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार को सुनिश्चित किया जाए। वरना ये अनुच्छेद 21 संविधान में एक मृत कागज बना रहेगा। कोर्ट ने कैदियों की परिवार से मुलाकात, फोन व वीडियो कान्फ्रेंकसिग से जल्दी-जल्दी करवाने, विचाराधीन बंदियों को वकील से सतत संपर्क करने, पहली बार अपराध करने वालों की काउंसलिंग  करवाने ताकि वे अपराध से विमुख हों, जैसी कई बातें कहीं। सबसे बड़ी बात कैदियों को चिकित्सा सुविधा को ले कर कही। स्वास्थ्य का अधिकार मानवाधिकार है और राज्य सरकारों को चाहिए कि वह इस ओर ध्यान दें। तमाम कैदियों को उचित मेडिकल सुविधा मुहैया कराई जाए।
हालांकि यह भी कटु सत्य है कि सुप्रीम कोर्ट के लगातार निर्देशों के बावजूद भी निचली अदालतें जमानत योग्य अपराधों में भी लेागों को जेल भेज देती है और पुलिस भी अपने हथकंडे अपना कर जेलों को नरक बना रही है। यहां जानना जरूरी है कि जेल व्यवस्था में सुधार के लिए समुचित व्यवस्था हेतु बीते 35 सालों से सुप्रीम कोर्ट में कई-कई मामले चल रहे हैं व कई में कोर्ट ने निर्देश भी दिए हैं ,लेकिन लचल न्यायिक व्यवस्था के चलते बेगुनाह सालों-साल जेल में रहते हैं व बाहर आते हैं तो उनका तन व मन श्रम करने लायक नहीं रह जाता है।
दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के मेरठ मंडल की जेलों कें ताजे आंकड़े जरा देखें- मेरठ जेल की क्षमता 1707, निरूद्ध बंदी 3357, गाजियाबाद की क्षमता  1704 व बंदी 3631, बुलंदशहर में बंद हैं 2300, जबकि क्षमता है 840। भारत की जेलों में बंद कैदियों के बारे में  सरकार के रिकार्ड में दर्ज आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं।  अनुमान है कि इस समय कोई चार लाख से ज्यादा लोग देशभर की जेलों में निरूद्ध हैं जिनमें से लगभग एक लाख तीस हजार सजायाफ्ता और कोई दो लाख 80 हजार विचाराधीन बंदी हैं। आगरा जिला जेल की क्षमता 1015 है जबकि बंदी 2600 से ज्यादा।पांचों केंद्रीय कारागारों में क्षमता से दुगने बंदी हैं।
यही नहीं उत्तर प्रदेश की जेल कैदियों के लिए कब्रगाह साबित हो रही है।ंराज्य में कुल 62 जिला जेल, पांच केंद्रीय जेल और तीन विशेश कारागार है।। यहां सन 2012 से जुलाई 2017 के बीच 2002 कैदियों की मृत्यु हुई। इनमें कुछ तो ऐसे मासूम हैं जिनका जन्म भी वहीं हुआ और मौत भी। मरने वालों में आधे तो विचाराधीन बंदी थे यानि जिन पर कोई अपराध साबित हुआ ही नहीं। यही नहीं मौत का बड़ा कारण दमा और टीबी रहा है। जो कि क्षेमा से अधिक बंदियों के संक्रमण, कुपोशण के चलते होता है। देश में दलित, आदिवासी व मुसलमानों की कुल आबादी 40 फीसदी के आसपास है, वहीं जेल में उनकी संख्या आधे से अधिक यानि 67 प्रतिशत है। इस तरह के बंदियों की संख्या तमिलनाडु और गुजरात में सबसे ज्यादा है। हमारी दलित आबादी 17 प्रतिशत है जबकि जेल में बंद  लेागों का 22 फीसदी दलितों का है। आदिवासी लगातार सिमटते जा रहे हैं व ताजा जनगणना उनकी जनभागीदारी नौ प्रतिशत बताती है, लेकिन जेल में नारकीय जीवन जी रहे लोगों का 11 फीसदी वनपुत्रों का है। मुस्लिम आबादी तो 14 प्रतिशत है लेकिन जेल में उनकी मौजूदगी 20 प्रतिशत से ज्यादा है। एक और चौंकाने वाला आंकड़ा है कि पूरे देश में प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियों जैसे- धारा 107,116,151 या अन्य कानूनों के तहत बंदी बनाए गए लेागें में से आधे मुसलमान होते है। गौरतलब है कि इस तरह के मामले दर्ज करने के लिए पुलिस को वाह वाही मिलती है कि उसने अपराध होने से पहले ही कार्यवाही कर दी। आंचलिक क्षेत्रों में ऐसे मामले न्यायालय नहीं जाते हैं, इनकी सुनवाई कार्यपालन दंडाधिकारी यानि नायब तहसीलदार से ले कर एसडीएम तक करता है और उनकी जमानत पूरी तरह सुनवाई कर रहे अफसरों की निजी इच्छा पर निर्भर होती है।
बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर जरा नजर डालें - दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी है जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं , इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेशी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं। सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। नारायणपुर के एक वकील बताते हैं कि कई बार तो आदिवासियों को सालों पता नहीं होता कि उनके घर के मर्द कहां गायब हो गए है। बस्तर के आदिवासियों के पास नगदी होता नहीं है। वे पैरवी करने वाले वकील को गाय या वनोपज देते हैं।  कई मामले तो ऐसे है कि घर वालों ने जिसे मरा मान लिया, वह बगैर आरोप के कई सालों से जेल में था। ठीक यही हाल झारखंड के भी हैं।
 यहां यह भी जानना जरूरी है कि जेल में श्रम कार्य केवल सजायाफ्ता बंदियो के लिए होता है। विचाराधीन बंदी न्यायिक अभिरक्षा में कहलाते हैं। भारतीय जेलों में 65 प्रतिशत से ज्यादा विचारधीन कैछी ही हैं। जेलों में बढ़ती भीड़, अदालतों पर भी बोझ हैं और हमारे देश की असल ताकत‘‘मानव संसाधन’’ का दुरूपयोग भी। एक तो ऐसे कैदियों के कारण सरकार का खर्च बढ़ रहा है दूसरा सुरक्षा एजेंसियों पर भी भार बढ़ता है। जितने अधिक विचाराधीन बंदी हांेगे, उन्हें अदालत ले जाने के लिए उतना ही अधिक सुरक्षा बल चाहिए। तभी देश में हर दिन सैंकड़ो मामलों में बंदी अदालत नहीं नहीं पहुंच पाते हैं और यह भी अदालतों में मामलों के लंबे खींचने की वजह बनता है। क्या यह संभव नहीं है कि जिन मामलों में जांच पूरी हो गई हो या फिर मामले ज्यादा गंभीर ना हों, उनपके बंदियों को किसी रचनात्मक कार्य में उनकी योग्यता के अनुसार लगा दिया जाए। इस तरह शिक्षक, तकनीकी इंस्ट्रक्टर, यातायात संचालन सहयोगी, अस्पताल में सहायक जैसे कई कामों के लिए  कर्मियों की कमी से  निबटा जा सकता है। साथ ही बंदी के मानव संसाधन के सही इस्तेमाल, उसके सम्मनपूर्वक जीवन के अदालती निर्देशों का भी पालन किया जा सकता है। ऐसे बंदियों को घर मंे रहने की छूट कुछ बंदिशों के साथ दी जा सकती है।
हालांकि प्रयास तो यह होना चाहिए कि अपराध कम हों या गैरनियत से किए गए छोटे-मोटे अपराधों के लिए या कम सजा या सामान्य प्रकरणों को अदालत से बाहर निबटाने, पंचायती राज में न्याय को षामिल करने जैसे सुधार कानून में किए जाएं।

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