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मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

Safai Karmchari Aayog needs more power

स्वच्छता के मोर्चे पर अनदेखी उचित नहीं

सफाई कर्मचारियों की उपेक्षा कर स्वच्छ भारत मिशन पूरा नहीं हो सकता, लिहाजा उनकी मांगों पर विचार करना ही होगा


राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अध्यक्ष आहत हैं कि उनकी संस्था को न तो संवैधानिक दर्जा हासिल है और न ही वित्तीय अधिकार। न तो हर राज्य में आयोग की शाखा है और न ही कोई निर्णय लेने का हक। मैला ढोने की प्रथा आज भी जारी है। संवेदनहीनता और नृशंस अत्याचार की यह मौन मिसाल सरकारी कागजों में दंडनीय अपराध है। जबकि सरकार के ही महकमे इस घृणित कृत्य को बाकायदा जायज रूप देते हैं। नृशंसता यहां से भी कही आगे तक है, समाज के सर्वाधिक उपेक्षित तबके के उत्थान के लिए बनाए गए महकमे खुद ही सरकारी उपेक्षा से आहत रहे हैं। संसद में पारित सफाई कर्मचारी निषेध अधिनियम-2012 के तहत सीवर और सैप्टिक टैंक को हाथों से साफ कराने को भी अपराध घोषित किया गया है, लेकिन मानव-मुक्ति के लिए बने ढेर सारे आयोग, कमेटियों को देखें तो पाएंगे कि सरकार इस मलिन कार्य से इंसान को मुक्त नहीं कराना चाहती है।1रेलवे अब भी ट्रेनों में शौचालय सफाई में मानवीय सेवाएं ले रहा है। रेलवे के पास एक लाख से ज्यादा यात्री बोगिया हैं, जिनमें औसतन चार लाख शौचालय हैं। इनमें से अधिकांश की सफाई इंसानों के हाथ से हो रही है। देशभर में इस अमानवीय व्यवस्था को जड़ से खत्म करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें कई वित्त पोषित योजनाएं चलाती रही हैं, लेकिन यह सामाजिक नासूर यथावत बना हुआ है। इसके निदान के लिए अब तक कम से कम 10 अरब रुपये खर्च हो चुके हैं। इसमें वह धन शामिल नहीं है, जो इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए पले ‘सफेद हाथियों’ के मासिक वेतन व सुख-सुविधाओं पर खर्च होता रहा है। मगर हाथ में झाडू-पंजा व सिर पर टोकरी बरकरार है। उत्तर प्रदेश में पैंतालिस लाख मकान हैं। इनमें से एक तिहाई में या तो शौचालय है ही नहीं या फिर सीवर व्यवस्था नहीं है। तभी यहां ढाई लाख लोग मैला ढोने के अमानवीय कृत्य में लगे हैं। इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ या शाहजहांपुर में हैं। वह भी तब जबकि केंद्र सरकार इस मद में राज्य सरकार को 175 करोड़ रुपये दे चुकी है। यह किसी स्वयंसेवी संस्था की सनसनीखेज रिपोर्ट या सियासती शोशेबाजी नहीं, बल्कि एक सरकारी सर्वेक्षण के ही नतीजे हैं। यदि सड़क या पार्क या स्मारक बनाने के नाम पर बसी बस्तियों या लहलहाते खेतों को उजाड़ने में सरकार एक पल नहीं सोचती है तो आजादी के 63 साल बाद भी यदि कहीं पर इंसान द्वारा साफ करने वाले शौचालय हैं तो यह सरकारी लापरवाही और संवेदनहीनता ही है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे अन्य सांविधिक आयोगों के कार्यकाल की तो कोई सीमा निर्धारित की नहीं गई, लेकिन सफाई कर्मचारी आयोग को अपना काम समेटने के लिए महज ढाई साल की अवधि तय कर दी गई थी। इस प्रकार मांगीलाल आर्य की अध्यक्षता वाला पहला आयोग 31 मार्च, 1997 को खत्म हो गया और फिर देवगौड़ा सरकार ने ‘सियासती-लालीपॉप’ के रूप में कतिपय लोगों को पदस्थ कर दूसरा आयोग बना दिया। तब से लगातार सरकार बदलने के साथ आयोग में बदलाव होते रहे हैं, लेकिन नहीं बदली तो सफाईकर्मियों की तकदीर और अयोग के काम करने का तरीका। आयोग के प्रति सरकारी भेदभाव महज समय-सीमा निर्धारण तक ही नहीं है, बल्कि अधिकार, सुविधाओं व संसाधन के मामले में भी इसे दोयम दर्जा दिया गया। समाज कल्याण मंत्रलय के प्रशासनिक नियंत्रण में गठित अन्य तीनों आयोगों को अपने कामकाज के लिए सिविल कोर्ट के अधिकार दिए गए हैं जबकि सफाई कर्मी आयोग के पास सामान्य प्रशासनिक अधिकार भी नहीं है। इसके सदस्य राज्य सरकारों से सूचनाएं प्राप्त करने का अनुरोध मात्र कर सकते हैं। तभी राज्य सरकारें सफाई कर्मचारी आयोग के पत्रों का जबाव तक नहीं देतीं। चूंकि सफाई कर्मचारी आयोग सीमित समय वाला अस्थाई संगठन है, सो इसके हाथ वित्तीय मामलों में भी बंधे हुए हैं। आयोग के गठन का मुख्य उद्देश्य ऐसे प्रशिक्षण आयोजित करना था, ताकि गंदगी के संपर्क में आए बगैर सफाई को अंजाम दिया जा सके। मैला ढोने से छुटकारा दिलाना, सफाई कर्मचारियों को अन्य रोजगार मुहैया कराना भी इसका मकसद था। आयोग जब शुरू हुआ तो एक अरब 11 करोड़ की बहुआयामी योजनाएं बनाई गई थीं। इसमें 300 करोड़ पुनर्वास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने का प्रावधान था। मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा। आयोग व समितियों के जरिए भंगी मुक्ति के सरकारी स्वांग आजादी के बाद से जारी रहे हैं। संयुक्त प्रांत(अब उत्तर प्रदेश) ने मानव मुक्ति बाबत एक समिति का गठन किया था। आजादी के चार दिन बाद 19 अगस्त 1947 को सरकार ने इसकी सिफारिशों पर अमल के निर्देश दिए थे। पर वह एक रद्दी का टुकड़ा ही साबित हुआ। 1963 में मलकानी समिति ने निष्कर्ष दिया था कि जो सफाई कामगार अन्य कोई रोजगार अपनाना चाहें, उन्हें लंबरदार, चौकीदार, चपरासी जैसे पदों पर नियुक्ति कर दिया जाए। परंतु 46 साल बाद भी सफाई कर्मचारी के ग्रेजुएट संतानों को सबसे पहले ‘झाडू-पंजे’ की नौकरी के लिए बुलाया जाता है। 1नगर पालिका हो या फौज, सफाई कर्मचारियों के पद कुछ विशेष जातियों के लिए ही आरक्षित हैं। 1964 और 1967 में भी दो राष्ट्रीय आयोग गठित हुए थे। उनकी सिफारिशों या क्रियाकलाप की फाइलें तक उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि उन दोनों आयोगों की सोच दिल्ली से बाहर विस्तार नहीं पा सकी थीं। 1968 में बीएस बंटी की अध्यक्षता में गठित न्यूनतम मजदूरी समिति की सिफारिशें भी लागू नहीं हो पाई हैं। सैंकड़ों ऐसे स्थानीय निकाय हैं, जहां के सफाई कर्मचारियों को वाजिब वेतन नहीं मिलता है। महीनों वेतन न मिल पाने की शिकायतों की तो कहीं सुनवाई नहीं है। आजाद भारत में सफाई कर्मचारियों के लिए गठित आयोग, समितियों, इस सबके थोथे प्रचार व तथाकथित क्रियान्वयन में लगे अमले के वेतन, कल्याण योजनाओं के नाम पर खर्च व्यय का यदि जोड़ करें तो यह राशि अरबों-खरबों में होगी। काश, इस धन को सीधे ही सफाई कर्मचारियों में बांट दिया जाता तो हर एक परिवार करोड़पति होता।1(लेखक जलसंरक्षण अभियान से जुड़े हैं)

2 टिप्‍पणियां:

  1. nice post thank you for sharing.
    UP Safai Karmi Bharti से जुडी Latest Interview Date की जानकारी इस प्रकार है की yogi sarkar के आने के बाद पिछली govt में निकली सभी भर्तियों पर रोक लगा दी गयी.
    https://sarkaribhartihindi.in/up-safai-karmi-bharti-2021-interview-date-may-2021-latest-update-yogi-sarkar-decision/

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