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शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

Dependency on Judiciary for clean environment

अदालतों के बदौलत नहीं बचेगी प्रकृति
                                                            पंकज चतुर्वेदी

गत छह नवंबर को दिल्ली व उसके आसपास के जिलों में प्रदूषण के कारण धुध छाई तो सरकारें तभी चेतीं जब अदालतों ने फटकार लगाना शुरू किया। इससे पहले दीपावली पर भी आतिशबाजी चलाने को ले कर सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी पड़ी थी। हकीकत तो यह है कि भारत का समाज अभी किसी भी तरह प्रदूशण के संकट, आने वाले कुछ ही दशकों में पर्यावरणीय हानि के कारण बरपने वाले संकटों के प्रति बेपरवाह है। हमारे लिए हवा या पानी के खराब होने के चिंतांए व विमर्श महज तात्कालिक होते है।
जिस तरह देश की आबादी बढ़ रही  है, जिस तरह हरियाली व खेत कम हो रहे हैं, जिस तरह जल-स्त्रोतों का रीतापन बढ़ रही है; जिस तरह हम हर दिन वनस्पित और जंतुओं की कोई ना कोई प्रजाति को सदा के लिए खो रहे हैं, जिस तरह खेत  व घर में जहरीले रसायनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, जिस तरह भीशण गर्मी से जूझने के लिए वतानुकूलन  और अनय भोतिक सुखों की पूर्ति के लिए बिजली का इस्तेमाल बढ़ रहा है ; हमें पर्यावरणीय संवेदनशील बनना ही होगा- या कानून को हमें ऐसा करने पर मजबूर करना होगा।
पिछले 70 वर्षो में भारत में पानी के लिए कई भीषण संघर्ष हुए हैं, कभी दो राज्य नदी के जल बंटवारे पर भिड़ गए तो कहीं सार्वजनिक नल पर पानी भरने को ले कर हत्या हो गई। इन दिनों पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के बीच नदियों के पानी के बंटवारे को ले कर घमासान मचा हुआ है।

 खेतों में नहर से पानी देने को हुए विवादों में तो कई पुश्तैनी दुश्मिनियों की नींव रखी हुई हैं। यह भी कडवा सच है कि हमारे देश में औरत पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती हैं। पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। इसके बावजूद देश के हर गांव- षहर में कुएं, तालाब, बावड़ी, नदी या समुद्र तक को जब जिसने चाहा है दूशित किया है। गत दो महीनेां के दौरान आस्था-ार्म क ेनम पर गणपति व देवी प्रमिमओं का विसर्जन कर हमनें संकट में भटक रहे जल को और जहरीला कर दिया। अब साबरमति नदी को ही लें, राज्य सरकार ने उसे बेहद सुंदर पर्यटन स्थल बना दिया, लेकिन इस सौदर्यीकरण के फेर में नदी का पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नश्ट कर दिया या। नदी के पाट को एक चौथाई से भी कम घटा दिया गया, उसके जलग्रहण क्षेत्र में  पक्के निर्माण कर दिए गया। नदी का अपना पानी तो था नहीं, नर्मदा से एक नहर ला कर उसमें पानी भर दिया। अब वहां रोशनी है, चमक-धमक है, बीच में पानी भी दिखता है, लेकिन नहीं है तो नदी सके अभिन्न अंग, उसके जल-जीव, दलदली जमीन, जमीन की हरियाली, व अन्य जैविक क्रियाएं। सौंदर्यीकरण के नाम पर पूरे तंत्र को नश्ट करने की कोशिशें महज नदी के साथ नहीं , हर छोटे-बड़े कस्बों के पारंपरिक तालाबों के साथ भी की गई।

दिल्ली में ही दो साल पहले विश्व सांस्कृतिक संध्या के नाम पर यमुना के संपूर्ण इको-सिस्टम यानि पर्यावरणीय तंत्र को जो नुकसान पहुंचाया गया, वह भी महज राजनीति की फेर में फंसकर रह गया। एक पक्ष यमुना के पहले से दूशित होने की बात कर रहा था तो दूसरा पक्ष बता रहा था कि पूरी प्रक्रिया में नियमों को तोड़ा गया। पहला पक्ष पूरे तंत्र को समझना नहीं चाहता तो दूसरा पक्ष  समय रहते अदालत गया नहीं व ऐसे समय पर बात को उठाया गया जिसका उद्देश्य नदी की रक्षा से ज्यादा ऐन समय पर समस्याएं खड़ी करना था।  लेाग उदाहरण दे रहे हैं कुंभ व सिंहस्थ का, वहां भी लाखो ंलोग आते है, लेकिन वह यह नहीं विचार करते कि सिंहस्थ, कुंभ या माघी या ऐसे ही मेले नदी के तट पर होते हैं, नदी तट हर समय नदी के बहाव से उंचा होता है और वह नदियों के सतत मार्ग बदलने की प्रक्रिया में विकसित होता है, रेतीला मैदान।

जबकि किसी नदी का जल ग्रहण क्षेत्र, जैसा कि दिल्ली में था, एक दलदली स्थान होता है जहां नदी अपने पूरे यौवन में होती है तो जल का विस्तार करती है। वहां भी धरती में कई लवण होते हैं, ऐसे छोटे जीवाणु होते है। जो ना केवल जल को षुद्ध करते हैं बल्कि मिट्टी की सेहत भी सुधारते हैं। ऐसी बेशकीमती जमीन को जब लाखों पैर व मशीनें रौंद देती हैं तो वह मृत हो जाती है व उसके बजंर बनने की संभावना होती है। अपने भक्तों को मच्छरों से बचाने के लिए हजारों टन रसायन नदी के भीतर छिड़का गया। वह तो भला हो एनजीटी का, वरना कई हजार लीटर कथित एंजाईम भी पानी में फैलाया जाता। अब आयोजन के बाद कथित सफााई का दिखावा हो रहा है, जबकि  जलग्रहण क्षेत्र में लागतार भारी वाहन चलने, सफाई के नाम पर गैंती-फावड़े चलाने से जमीन की ऊपरी नम सतह मर गई उसके प्रति किसी की सोच ही नहीं बन रही है। हो सकता है कि कुछ दिनों में आयोजन स्थल परजमा कई टन कूडा, पी का खाली बौतले आदि साफ हो जाए, लेकिन जिस नैसर्गिकता की सफााई हो गई, उसे लौटाना नामुमकिन है। सवाल यही है कि हम आम लोगों को नदी की पूरी व्यवस्था को समझाने में सफल नहीं रहे हैं और बस अदालती उम्मीद में बैठे हैं।
बात खेतो में पराली जलाने की हो या फि मुहल्ले में पतझड़ के दिनों में सूखे पत्तों को ढेर जलाने की, कम कागज खर्च करने की या फिर पॉलीथीन जैसे दानव के दमन की , कम बिजली व्यय का सवाल हो ा फिर परिवहन में कम कार्बन उत्सर्जन के विकल्पों की बात , जल संरक्षण के सवाल हों या फिर खेती के पारंपरिक तरीकों की; हम हर जगह पहले अदालती आदेश का और फिर उस आदेश के पालना के लिए कार्यपालिका की बाट जोहते रहते है।। सनद रहे अदालत कोई नया कानून नहीं बनाती, वह तो केवल पहले से उपलब्ध कानूनों की व्याख्या कर व्यवस्था देती है। जाहिर है कि कार्यपालिका और समाज दोनों ही पहले से उपलब्ध कानूनों की अनदेखी कर देश में र्प्यावरणीय संकट के कारण अस्तित्व पर सवालिया निशान खड़ा कर रहे है।।
देश के कई संरक्षित वन क्षेत्र, खनन स्थलों, समुद्र तटों आदि पर समय-समय पर ऐसे ही विवाद होते रहते हैं। हर पक्ष बस नियम, कानून, पुराने अदालती आदेशों आदि का हवाला देता है, कोई भी सामाजिक जिम्मेदारी, अपने पर्यावरण के प्रति समझदारी और परिवेश के प्रति संवेदनशीलता की बात नहीं करता है। ध्यान रहे हर बात में अदालतों व कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमे और सामाजिक व्यवस्थां जीर्ण षीर्ण होती जा रही है और अब हर बात डंडे के जोर से मनवाने का दौर आ गया है। इससे कानून तो बच सकता है, लेकिन पर्यावरण नहीं।
आज जरूरत है कि प्राथमिक स्तर से ही पर्यावरण संरक्षण के केवल पाठ ही नहीं, उसके निदानों पर चर्चा हो। आतिशबाजी चलाने, पॉलीथीन के इस्तेमाल या जहरीले कीटनाशकों के इस्तेमाल पर पाबंदी  की जगह उसके निर्माण पर ही रोक हो, पर्यावरणीय नुकसान पहुंचाने को सियासती दांव-पेंच से परे रखा जाए। वरना आने वाले दो दशकां में हम विकास-शिक्षा के नाम पर आज व्यय हो रहे सरकारी बजट में कटौती कर उसका इस्तेमाल स्वास्थ्य, जल व साफ हवा जुटाने के संसाधनों को जुटाने पर मजबूर हो जाएंगे।

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