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बुधवार, 1 नवंबर 2017

Recruitment process in Army needs to be modernise


भर्ती प्रक्रिया में उद्दंडता

पिछले दिनों मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में में थल सेना में सिपाही की 83 पदों की भर्ती के लिए आयोजित परीक्षा के दौरान संस्कारधानी कहलाने वाला शहर अराजकता, गुंडागर्दी और लफंगई से हताश हो गया। आसपास ही नहीं दूर-दूर के आठ राज्यों कोई बीस हजार युवा जमा हुए, कुछ नाराजगी हुई, फिर पत्थरबाजी, आगजनी, लूटपाट, औरतों से छेड़छाड़। यह सब करने वाले वे लोग थे, जिनमें से कुछ को भारतीय फौज का हिस्सा बनना था। यह पहली बार नहीं हुआ है कि पिछड़े और बेराजगारी से तंग अल्प शिक्षित हजारों युवाफौज में भर्ती होने पहुंच जाते हैं और भर्ती स्थल वाले शहर में तोड़-फोड़, हुड़दंग, तो कहीं मारापिटी, अराजकता होती है। जिस फौज पर आज भी मुल्क को भरोसा है, जिसके अनुशासन और कर्तव्यनिष्ठता की मिसाल दी जाती है, उसमें भर्ती के लिए आए युवकों द्वारा इस तरह का कोहराम मचाना, भर्ती स्थल पर लाठीचार्ज होना, जिस शहर में भर्ती हो रही हो वहां तक जाने वाली ट्रेन या बस में अराजक भीड़ होना या युवाओं का मर जाना जैसी घटनाओं का साक्षी पूरा मुल्क हर साल होता है। इसी का परिणाम है कि फौज व अर्ध सैनिक बलों में आए रोज अपने ही साथी को गोली मारने, ट्रेन में आम यात्रियों की पिटाई, र्दुव्‍यवहार, फर्जी मुठभेड़ करने जैसे अरोप बढ़ रहे हैं। विडम्बना यह है कि हालात दिनोंदिन खराब हो रहे हैं, इसके बावजूद थल सेना में सिपाही की भर्ती के तौर-तरीकों में कोई बदलाव नहीं आ रहा है-वही अंग्रेजों की फौज का तरीका चल रहा है-मुफलिस, विपन्न इलाकों में भीड़ जोड़ लें वह भी बगैर परिवहन, ठहरने या भोजन की सुविधा के और फिर हैरान-परेशान युवा जब बेकाबू हों तो उन पर लाठी या गोली ठोक दो। कंप्यूटर के जमाने में क्या यह मध्यकालीन बर्बरता की तरह नहीं लगता है? जिस तरह अंग्रेज देशी अनपढ़ को मरने के लिए भरती करते थे, उसी तर्ज पर छंटाई। जबकि आज फौज में सिपाही के तौर पर भर्ती के लिए आने वालों में हजारों ग्रेजुएट व व्यावसायिक शिक्षा वाले होते हैं। थल सेना में सिपाही की भर्ती के लिए सार्वजनिक विज्ञापन दे दिया जाता है कि अमुक स्थान पर पांच या सात दिन की ‘‘भर्ती-रैली’ होगी। भर्ती रैली का विज्ञापन छपते ही हजारों युवा भर्ती-स्थल पहुंचने लगते हैं। इसमें भर्ती बोर्ड यह भी ध्यान नहीं रखता कि छतरपुर या ऐसे ही छोटे शहरों की क्षमता या वहां इतने संसाधन नहीं मौजूद नहीं होते हैं कि वे पांच दिन के लिए पचास-साठ हजार लोगों की अतिरिक्त क्षमता झेल पाएं। भर्ती का स्थल तय करने वाले यह विचारते ही नहीं है कि उक्त स्थान तक पहुंचने के लिए पर्याप्त सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध भी है कि नहीं। और फिर यह तो असंभव ही है कि पचास हजार या उससे ज्यादा लोगों की भीड़ का शारीरिक परीक्षण हर दिन दस घंटे और पांच या सात दिन में ईमानदारी से किया जा सके। कहा तो यही जाता है कि इस तरह की रैलियां असल में अपने पक्षपात या गड़बड़ियों को अमली जामा पहनाने के लिए ही होती हैं। यही कारण है कि प्रत्येक भर्ती केंद्र पर पक्षपात और बेईमानी के आरोप लगते हैं, हंगामे होते हैं और फिर स्थानीय पुलिस लाठियां चटका कर ‘‘हरी वर्दी’ की लालसा रखने वालों को ‘‘लाल’ कर देती है। सेना भी इस बात से इनकार नहीं कर सकती है कि बीते दो दशक में थल सेना अफसरों की कमी तो झेल ही रही है, नये भर्ती होने वाले सिपाहियों की बड़ी संख्या अनुशासनहीन भी है। फौज में औसतन हर साल पचास से ज्यादा आत्महत्या या सिपाही द्वारा अपने साथी या अफसर को गोली मार देने की घटनाएं साक्षी हैं कि अब फौज को अपना मिजाज बदलना होगा। फौज को अपनी भर्ती प्रक्रिया में कंप्यूटर, एनसीसी, स्थानीय प्रशासन का सहयोग लेना चाहिए। भर्ती के लिए भीड़ बुलाने के बनिस्पत ऐसी प्रक्रिया अपनानी चाहिए, जिसमें निराश लोगों की संख्या कम की जा सके। शायद पहले लिखित परीक्षा तालुक या जिला स्तर पर आयोजित करना, फिर मेडिकल टेस्ट प्रत्येक जिला स्तर पर सालभर स्थानीय सरकारी जिला अस्पताल की मदद से आयोजित करना, स्कूल स्तर पर कक्षा दसवीं पास करने के बाद ही सिपाही के तौर पर भर्ती होने की इच्छा रखने वालों के लिए एनसीसी की अनिवार्यता या उनके लिए अलग से बारहवीं तक का कोर्स रखना जैसे कुछ ऐसे सामान्य उपाय हैं, जो हमारी सीमाओं के सशक्त प्रहरी थल सेना को अधिक सक्षम, अनुशासित और गौरवमयी बनाने में महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। सिपाही स्तर पर भर्ती के लिए कक्षा नौ के बाद अलग से कोर्स कर दिया जाए।


     

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