वहां मेघ से बरसने वाली हर अमृत बूंद सहेजकर समाज तक पहुंचाने के लिए प्रकृति ने नदियों का जाल भी दिया है।
प्रदूषण बढ़ने के साथ ही मेघालय की तमाम छोटी-बड़ी नदियां अब लुप्त होती जा रही हैं।
मेघ के बाद नदियां भी रूठीं तो क्या बचेगा मेघालय में
बीते दिनों की बात हो गई, जब कहा जाता था कि चेरापूंजी में दुनिया की सबसे ज्यादा बारिश होती है। बारिश बुलाने वाले पहाड़, नदियां, हरियाली सब अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कभी समाज की जीवन रेखा कही जाने वाली मेघालय की नदियां अब विदा हो रही हैं। ये एक-एक कर लुप्त होती जा रही हैं। इनकी मछलियां नदारद हैं और इलाके की बड़ी आबादी पेट के कैंसर का शिकार हो रही है। लेकिन सरकारी महकमे नहीं मानते कि नदियों का प्रदूषण जीवन के लिए खतरनाक हो चुका है। प्रदूषण के असल कारण औद्योगिक इकाइयों पर न राजनेता बोलते हैं, और न ही सरकारी महकमे।जहां मेघों का डेरा है, वहां मेघ से बरसने वाली हर अमृत बूंद सहेजकर समाज तक पहुंचाने के लिए प्रकृति ने नदियों का जाल भी दिया है। आए दिन मेघालय से बाहर बांग्लादेश की ओर जाने वाली दो बड़ी नदियों- लुका और मिंतदु का पानी पूरी तरह नीला हो जाता है। बिल्कुल नील घुले पानी की तरह। सनद रहे कि इधर की नदियों का पानी साफ या फिर गंदला-सा होता है, लेकिन साल में कम से कम तीन बार ये नदियां नीली पड़ जाती हैं। यह 2007 से ही जारी है, जब हर साल ठंड शुरू होते ही पहले मछलियों की मौत शुरू होती है, फिर पानी का रंग गहरा नीला हो जाता है। इलाके के कोई दो दर्जन गांवों के लिए ये एकमात्र जलस्नेत हैं। सरकारी रिकॉर्ड भी बताते हैं कि क्षेत्र की 30 फीसदी आबादी पेट की गंभीर बीमारियों से ग्रस्त है और इसमें कैंसर के मरीज सर्वाधिक हैं।मेघालय जमीन के भीतर छिपी प्राकृतिक संपदा के मामले में बहुत संपन्न है। यहां चूना है, कोयला है और यूरेनियम भी है। शायद यही नैसर्गिक वरदान अब इसकी मुश्किलों का कारण बन रहा है। सन 2007 में पहली बार लुका व मिंतदु नदियों का रंग नीला पड़ने पर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने जांच की थी और 2012 की अपनी रिपोर्ट में इलाके के जल प्रदूषण के लिए कोयला खदानों से निकलने वाले अम्लीय अपशिष्ट और अन्य रासायनों को जिम्मेदार ठहराया था। क्षेत्र के प्रख्यात पर्यावरणविद् एचएच मोर्हमन मानते हैं कि नदियों के अधिकांश भागों में तल में कई प्रकार के कण देखे जा सकते हैं, जो संभवत: नदियों के पास चल रहे सीमेंट कारखानों से उड़ती राख है। बीच में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कोयला खनन और परिवहन पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन वह ज्यादा दिन चला नहीं। नदियों की धीमी मौत का यह उदाहरण केवल लुका या मिंतदु तक सीमित नहीं हैं, आयखेरवी, कुपली नदियों का पानी भी अब इंसान के प्रयोग लायक नहीं बचा है। लुका नदी पहाड़ियों से निकलने वाली कई छोटी सरिताओं से मिलकर बनी है। इसमें लुनार नदी मिलने के बाद इसका प्रवाह तेज होता है। इसके पानी में गंधक, सल्फेट, लोहा व कई अन्य जहरीली धातुओं की उच्च मात्र और पानी में ऑक्सीजन की कमी पाई गई है। ठीक यही हालत अन्य नदियों की भी है, जिनमें सीमेंट कारखाने या कोयला खदानों का अवशेष आकर मिलता है। लुनार नदी के उद्गम स्थल सुतुंगा पर ही कोयले की सबसे ज्यादा खदानें हैं। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जयंतिया पहाड़ियों पर कानूनी से कई गुना ज्यादा गैरकानूनी खनन होता है। यही नहीं, नदियों में से पत्थर निकालकर बेचने पर तो यहां कोई ध्यान ही नहीं देता, जबकि इससे नदियों का इको सिस्टम खराब हो रहा है। कटाव और दलदल बढ़ रहा है और इसी के चलते मछलियां कम आ रही हैं। ऊपर से जब खनन का मलवा इसमें मिलता है, तो जहर और गहरा हो जाता है। मेघालय ने गत दो दशकों में कई नदियों को नीला होते, फिर उसके जलचर को मरते और आखिर में जलहीन होते देखा है। विडंबना है कि यहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से लेकर एनजीटी तक सभी विफल हैं। समाज चिल्लाता है, गुहार लगता है और स्थानीय निवासी आने वाले संकट की ओर इशारा भी करते हैं, लेकिन स्थानीय निर्वाचित स्वायत्त परिषद खदानों से लेकर नदियों तक को निजी हाथों में सौंपने के फैसले पर चिंतन नहीं करती हैं। अभी तो मेघालय पर बादलों की कृपा भी कम हो गई है। चेरापूंजी अब सर्वाधिक बारिश वाला गांव नहीं रहा। नदियां भी चली गईं, तो दुनिया के इस अनूठे प्राकृतिक सौंदर्य वाली धरती पर मानव जीवन संकट में आ जाएगा।(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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