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मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

Beware of drought

सावधान ! देश भयंकर सूखे की ओर बढ रहा है 

.पंकज चतुर्वेदी


देश के बड़े राज्यों मेें से एक मध्यप्रदेश के कुल 51 में से 29 जिलों में अभी से जल-संकट के हालात हैं। राजधानी भोपाल की प्यास बुझाने वाले बड़े तालाब व कोलार में बामुश्किल चार महीने का जल षेश है। ग्वालियर के तिघरा डेम का जल जनवरी तक ही चल पाएगा। विदिशा में नल रीते हैं और सुबह-शाम मुहल्लों के हैंडपंपों पर लंबी-लंबी कतारें दिखती हैं। फिलहाल नौ जिलों को सूखा-ग्रस्त घोशित करने की तैयारी है क्योंकि अल्प वर्शा और उसके बाद असामयिक बरसात ने किसानों की कंगाली  में आटा गिला कर दिया है - या तो बुवाई ही नहीं हुई और हुई तो बैमौसम बरसने से बीज मर गए।
नवरात्रि के विदा होते ही बादल व बारिश भी विदा हो जाते है। यदि बिहार और पूर्वोत्तर राज्यों में आई बीते एक दशक की सबसे भयावह बाढ़ को अलग रख दे ंतो भारतीय मौसम विभाग का यह दावा देश के लिए चेतावनी देने वाला है कि पिछले साल की तुलना में इस साल देश के 59 फीसदी हिस्से में कम बारिश हुई है। आंकड़ों के अनुसार, देश के 630 जिलों में से 233 में औसत से कम बारिश हुई है। इससे देश में सूखे का संकट खड़ा हो गया है। जून से सितंबर के मानसून सीजन में करीब 6 फीसदी कम बारिश हुई। अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा । देश में कृषि ज्यादातर हिस्सों में मानसून पर निर्भर करती है। ऐसे में कम बारिश होने से खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा और इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। वित्त वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में जीडीपी 5.7 फीसदी रही जबकि पिछले साल इसी दौरान जीडीपी 7.9 फीसदी थी। 2014 में एनडीए के केंद्र की सत्ता में आने के बाद इस वित्त वर्ष में जीडीपी अपने सबसे निचले स्तर है। फसल वर्ष 2017-18 में (जुलाई-जून) में 273 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा।
अगली बरसात के लिए कम से कमपांच महीने का इंतजार करना होगा। अभी से ही भारत का बड़ा हिस्सा सूखे, पानी की कमी और पलायन से जूझ जा रहा है। उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, उत्त्राचंल, पश्चिमी उप्र, मप्र, उड़िसा, समूचा पूर्वोत्तर, केरल से ले कर अंडमान तक देश के बड़े हिस्से में सामान्य से आठ से ले कर 36 प्रतिशत कम बरसात हुई है। बुंदेलखंड में तो सैंकड़ों गांव वीरान होने षुरू भी हो गए हैं। यहां या तो बुवाई हुई नहीं, हुई तो बीज बगैर बरसात के ही जमीन में मर गया। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों(जलाशयों) में पिछले साल की तुलना में कम पानी है। सवाल उठता है कि हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है लेकिन जब कायनात छप्पर फाड़ कर पानी देती है उसे सारे साल सहेज कर रखने की तकनीक नहीं। आम लेाग जल-संकट से बेखबर हैं और उन्होंने पहले गणपति और उसके बाद दुर्गा की लाखें-लाख प्रतिमांए जल भंडारों में विसर्जन कर ना क ेवल जल को दूशित किया, वरन उसकी बड़ी मात्रा का भी क्षय कर दिया।  ना कोई धार्मिक और ना ही सामाजिक और ना ही सरकार ने यह जगरूकता फैलाई  िकइस बार जल संकट है, प्रतिमाओं को जल में ना डालें।
हालांकि हम अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया। जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो हमारे राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहां रंग, लेाक, स्वाद, मस्ती, पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहां के पुश्तैनी बाशिंदे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे। यह आम अदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भंडार पूरे भर कर झलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्शा के दिनों में पानी ना बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिंतित हो जाते है।
यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘‘औसत से कम’’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। अब गंगा-यमुना के दोआब के पश्चिमी उ.प्र को ही लें, ना तो यहां के लेागों का भेाजन धान था और ना ही यहां की फसल। लेकिन ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में सबने धान बो कर जमीन बर्बाद की और आदत बिगड़ी सो अलग।
देश के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि षेश आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश से होती है और ना ही नदियों से।
असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुंए से रस्सी डाल कर पानी खंीचना ोता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलींचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूब वेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलवा डालने, कूडा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है । अब कस्बाई लोग बीस रूपए में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव मं कई बार षौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।
सूखे के कारण जमीन के कड़े होने, या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते है। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुरू खुद ही सीखा। विछियावाडा गांव के लेागों ने डेढ लाख व कुछ दिन की मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नल कूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्यप्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से ले कर असम तक और बिहार से ले कर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लेागो ने सुखाड़ को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्क्त तो होना नहीं चाहिए।
कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्शा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास है जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

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