तनावमुक्त रहना होगा इन्हें
पंकज चतुर्वेदी
09 दिसम्बर 2017 को बस्तर के बीजापुर जिले के बासागुड़ा के सीआरपीएफ कैंप में संतलाल नामक सिपाही ने अपनी सरकारी इंसास राइफल से अपने ही चार साथियों को गोलियां से भून दिया। इस साल केवल बस्तर में केंद्रीय बलों के 40 जवान या तो आत्महत्या या फिर अपने ही साथियों द्वारा चलाई गई गोलियों से मारे जा चुके हैं। गत एक दशक में बस्तर में 115 जवान ऐसी घटनाओं में मारे गए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी जवान ऐसे कदम बेहद तनाव या असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो कर उठाता है। आखिर वे दवाब में क्यों न हों?जानकर दुख होगा कि नक्सली इलाके में सेवा दे रहे जवनों की मलेरिया जैसी बीमारी का आंकड़ा उनके लड़ते हुए शहीद होने से कहीं ज्यादा होता है। हालांकि अभी सरकार ने बस्तर जैसे स्थानों पर बेहद विषम हालात में सेवाएं दे रहे अर्धसैनिकों को तनावमुक्त रखने के लिए ‘‘म्यूजिक थेरेपी’ यानी संगीत के इस्तेमाल का प्रयेग करना शुरू किया है, लेकिन अभी इसका लाभ आम जवान तक पहुंचता नहीं दिख रहा है। ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने कोई दस साल पहले एक जांच दल बनाया था, जिसकी रिपोर्ट जून-2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं जैसे मसलों पर कई सिफारिशें की गई थीं। इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिशें, निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप, शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश में उपद्रवग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है, अर्धसैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है। ड्यूटी की अधिकता में उस समिति की सिफारिशें जमीनी हकीकत बन नहीं पाई। यह एक कड़वा सच है कि हर साल दंगा, नक्सलवाद, अलगाववादियों, बाढ़ और ऐसी ही विकट परिस्थितियों में संघर्ष करने वाले इस बल के लोग मैदान में लड़ते हुए मरने से कहीं ज्यादा गंभीर बीमारियों से मर जाते हैं। यह बानगी है कि जिन लोगों पर हम मरने के बाद नारे लुटाने का काम करते हैं, उनकी नौकरी की शत्रे किस तरह असहनीय, नाकाफी और जोखिम भरी हैं। संसद के पिछले सत्र में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने बताया था कि पिछले साल सीआरपीएफ के 92 जवान नौकरी करते हुए हार्ट अटैक से मर गए, वहीं डेंगू या मलेरिया से मरने वालों की संख्या पांच थी। 26 जवान अवसाद या आत्महत्या के चलते मारे गए तो 353 अन्य बीमारियों की चपेट में असामयिक कालगति को प्राप्त हुए। वर्ष 2015 में दिल के दौरे से 82, मलेरिया से 13 और अवसाद से 26 जवान मारे गए। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी-2009 से दिसम्बर-2014 के बीच नक्सलियों से जूझते हुए केंद्रीय रिजर्व पुलिस यानी सीआरपीएफ के कुल 323 जवान देश के काम आए। वहीं इस अवधि में 642 सीआरपीएफ कर्मी दिल का दौरा पड़ने से मर गए। आत्महत्या करने वालों की संख्या 228 है। वहीं मलेरिया से मरने वालों का आंकड़ा भी 100 से पार है। अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं खुद से ही जूझ रही है। हाल ही में बुरकापाल के पास हुए संहार को ही लें, यहां गत चार साल से सड़क बन रही है और महज सड़क बनाने के लिए सीआरपीएफ की दैनिक ड्यूटी लगाई जा रही थी। सीआरपीएफ की रपट में यह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असरुक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घरवालों का सुख-दुख न जान पाने का दर्द भी उनको भीतर-ही-भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और न ही जवान के पास उसके लिए समय है। यह भी चिंता का विषय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली चुनौतियों से निबटना कठिन होता जा रहा है। नियमित अवकाश, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेशानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रशासन की तत्परता, मनोरजंन के अवसर, पानी, चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना ऐसे कदम हैं, जो जवानों में अनुशासन व कार्य प्रतिबद्धता, दोनों को बनाए रख सकते हैं। 
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