My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 5 फ़रवरी 2018

India has to develop own system on glacier study

ग्लेशियर पर हो भारत का अपना अध्ययन

पंकज चतुर्वेदी 

जन्संदेश टाईम्स लखनउ , ६-२-१८ 
संयुक्त राष्ट्र  की वैश्विक पर्यावरण पूर्वानुमान कमेटी ने एक बार फिर चेतावनी दी है कि जिस तरह से धरती का तापमान बढ़ रहा है उससे सन 2050 तक समुद्र  के किनारे बसे दुनिया के दस श हरों में तबाही आ सकती है। इसमें भारत के मुंबई, कोलकाता जैसे श हरों पर भी गंभीर खतरा बताया गया है। अनियोजित विकास,बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र में पानी की मात्रा बढ़ेगी और इस विस्तार से तटों पर बसे षहर तबाह हो सकते हैं। हालंाकि यह कोई नई या पहली बार दी गई चेतावनी नहीं है। फरवरी 1981 में रायल स्विस सोसायटी के तत्वावधान में स्टोकहोम में संपन्न एक गोष्ठी  में कार्बन डाय आक्साईड की बढ़ती मात्रा पर चिंता व्यक्त की गई थी। हां बस उस गोश्ठी में यह तथ्य सामने आया था कि कार्बन की मात्रा बढ़ने का फायदा भारत सहित एशिया के कई देशेां व अफ्रीकी दुनिया को होगा। धरती के बढ़ते तापमान से भरत के लिए सबसे बड़ा खतरा ग्लैशियर गलने का है क्योंकि हमारी नदियां हमारे समाज, प्रकृति और अर्थ का मूल आधार हैं व ग्लैशियर के गलने से इस पर विपरीत असर पड़ सकता है।


विडंबना है कि अत्याधुनिक मशीनों, कार्बन उर्जा के अंधाधुंध इस्तेमाल से दुनिया का मिजाज बिगाड़ने वाले पश्चिमी देश अब भारत व तीसरी दुनिया के देशेां पर दवाब बना रहे हैं कि धरती को बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करकें। हालांकि आज भी भारत जैसे देशेां में इसकी मात्रा कम ही है। इसके बावजूद पश्चिमी देश हमें अपने शोध के माध्यम से भयभीत कर कार्बन मात्रा कम करने या यों कहें कि विकास परियोजनाआंे, परिवहन आदि की गति को नियंत्रित करने केलिए धमकाते रहते हैं।
जनवाणी मेरठ १ फरवरी १८ 

कोई दो दशक पहले प्रिंस्टन विश्वविद्यायल के एक शो ध में बताया गया था कि जिस तरह से धरती पर कार्बन की मात्रा बढ़ रही है उससे अनुमान है कि धरातल पर तापमान में 20 डिगरी तक की बढ़ौतरी हो सकती है। इससे भारत सहीत उत्तरी व पूर्वी अफ्रीका, पश्चिम एशिया आदि इलाकों में बारिश की मात्रा बढेगी, जबकि अमेरिका, रूस सहीत पश्चिमी देशों में बारिश कम होगी। अनुमान है कि इस बदलाव से आने वाले 50 सालों में भारत सहित वर्शा संभावित देशेां में खेती संपन्न होगी। इन इलाकों में खेत इतना सोना उगलेंगे कि वे खाद्य मामले में आत्मनिर्भर हो जाएंगे तथा आयात पूरी तरह बंद कर देंगे। यह भी सही है कि कार्बन डाय आक्साईड के कारण तापमान में बढ़ौतरी के चलते एंटार्कटिका, ग्रीन लैंड और आर्कटिक प्रदेशों में बर्फ पिघलेगी। समझा जाता है कि वहां से इतनी बर्फ पिघलेगी कि विश्व में सागर का जल स्तर तीन से 18 मीटर तक ऊपर उठेगा और इससे 10 प्रतिशत तटीय भूमि जल-मग्न हो सकती है।
धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाश संश्लेशण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। आज विश्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बन डाय आक्साईड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है।  उसके बाद कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं । जापान, जर्मनी, द.कोरिया आदि औद्योगिक देशो में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख सत्तर हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाय आक्साईड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 203 तक तीन गुणा यानि अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें कोई षक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश है,  वह भी अधिकांश ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए। प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढने का प्रमुख कारण है बिजली की बढती खपता। सनद रहे हम द्वारा प्रयोग में लाई गई बिजली ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होगा। फिर धरती पर बढती आबादी और उसके द्वारा पेट भरने के लिए उपभेाग किया गया अन्न भी कार्बन बढौतरी का बड़ा कारण है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
नवज्योति , राजस्थान, ९ फ़रवर १८ 

यहां एक बात और गौर करने वाली है कि भले ही पश्चिमी देश इस बात से हमें डरा रहे हों कि जलवायु परिवर्तन से हमारे ग्लेशियर पिघल रहे हैं व इससे हमारी नदियांें के अस्तित्व पर संकट है, लेकिन वास्तविकता में हिमालय के ग्लेशियरों का आकार बढ़ रहा है।  हमारे पांच से 10 वर्ग किलोमीटर आकार के किछकुंदन, अख्ताश और च्योंकुंदन के अलावा अन्य सात बगैर नाम वाले ग्लेशियरों का आकार साल दर साल बढ़ रहा है। कोई चार साल पहले तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी दाल में कुछ काला लगा था और उन्होंने विदेशी धन पर चल रहे षोध के बजाए वीके रैना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल को हिमनदों की हकीकत की पड़ताल का काम सौंपा था। इस दल ने 25 बड़े ग्लेशियरों को लेकर गत 150 साल के आंकड़ों को खंगाला और पाया कि हिमालय में ग्लेशियरों के पीछे खिसकने का सिलसिला काफी पुराना है और बीते कुछ सालों के दौरान इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखने को मिला है। पश्चिमी हिमालय की हिंदुकुश और कराकोरम पर्वत श्रंखलाओं के 230 ग्लेशियरों के समूह समस विकसित हो रहे है। पाकिस्तान के के-2 और नंदा पर्वत के हिमनद 1980 से लगातार आगे बढ़ रहे है। जम्मू-कश्मीर के केंग्रिज व डुरंग ग्लेशियर बीते 100 सालों के दौरान अपने स्थान से एक ईंच भी नहीं हिले है।।  सन 200 के बाद गंगोत्री के सिकुड़ने की गति भी कम हो गई है।  इस दल ने इस आशंका को भी निर्मूल माना था कि जल्द ही ग्लेशियर लुप्त हो जाएंगे व भारत में कयामत आ जाएगी। यही नहीं ग्लेशियरों के पिघलने के कारण सनसनी व वाहवाही लूटने वाले आईपीसीसी के दल ने इन निश्कर्शों पर ना तो कोई सफाई दी और ना ही इस का विरोध किया। जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रो. आरके गंजू ने भी अपने षोध में कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने का कारण धरती का गरम हो ना नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो पश्मिोत्तर पहाड़ों पर कम और पूर्वोत्तर में ज्यदा ग्लेशियर पिघलते, लेकिन हो इसका उलटा रहा है।
इसमें कोई षक नहीं  कि ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियर हमारे लिए उतने ही जरूरी है जितना साफ हवा या पानी, लेकिन यह भी सच है कि अभी तक हम इन तीनों मसलों के अनंत सत्यों को पहचान ही नहीं पाए है और पूरी तरह पश्चिमी देशों के षोध व चेतावनियों पर आधारित अपनी योजनांए बनाते रहते हैं। ग्लेशियर हमारे देश के अस्तित्व की पहचान हैं और इनका अस्तित्व मौसम के चक्र में आ रहे बदलाव पर काफी कुछ निर्भर है। हमें यह समझना होगा कि कुछ पश्चिमी देश इस अभेद संरचना के रहस्यों को जाननेे में रूचि केवल इस लिए रखते हैं ताकि भारत की किसी कमजोर कड़ी को तैयार किया  जा सके। इसी फिराक में ग्लोबल वार्मिंग व ग्लेशियर पिघलने के षोर होते हैं और ऐसे में षोध के नाम पर अन्य हित साधने का भी अंदेशा बना हुआ है। ऐस अंतरविरोधों व आशंकाओं के निर्मूलन का एक ही तरीका है कि राज्य में ग्लैशियर अध्ययन के लिए  सर्वसुविधा व अधिकार संपन्न प्राधिकारण का गठन किया जाए जिसका संचालन केंद्र के हाथों में हो। इससे हमें एक तो यह पता चलेगा कि क्या वास्तव में दुनिया में कार्बन प्रिट कम करने का ज्यादा जिम्मा भारत व ऐसे ही विकासशील देशे ंपर ज्यादा है और दूसरा कि क्या पश्चिमी देशों की चेतावनियां हकीकत में तथ्यपूर्ण हैं?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...