खतरे में क्यों पड़ गई है राजहंसों की शरणस्थली
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
- Last updated: Wed, 07 Feb 2018 11:03 PM IST
देश के सबसे महत्वपूर्ण सामरिक व अंतरिक्ष महत्व के स्थान श्रीहरिकोटा की पड़ोसी पुलीकट झील को दुर्लभ हंसावर या राजहंस का सबसे मुफीद आश्रय-स्थल माना जाता रहा है। विडंबना है कि थोड़ी सी इंसानी लापरवाही के चलते देश की इस दूसरी सबसे विशाल खारे पानी की झील का अस्तित्व खतरे में है। चैन्नई से कोई 60 किलोमीटर दूर स्थित यह झील महज पानी का दरिया नहीं, लगातार सिकुड़ती जल-निधि पर कई किस्म की मछलियां, पक्षी और हजारों मछुआरे परिवारों का जीवन भी निर्भर है। यहां के पानी में विषैले रसायनों की मात्रा बढ़ रही है, वहीं इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र से हुई लगातार छेड़छाड़ का परिणाम है कि समुद्र व अन्य नदियों से जोड़ने वाली प्राकृतिक नहरें गाद से पट रही हैं। समुद्र से जुड़ी ऐसी झीलों को अंग्रेजी में लेगून और हिंदी में अनूप या समुद्र-ताल कहते हैं। पुलीकट, चिल्का के बाद देश का सबसे विशाल अनूप है।
हिंदुस्तान ८ फरवरी १८ |
पुलीकट झील आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु की सीमाओं में फैली है। स्थानीय लोग इसे ‘पलवेलकाड’ कहते हैं। इसके बीच कोई 16 द्वीप हैं। तकली के आकार का लंबोतरा श्रीहरीकोटा द्वीप, इस झील को बंगाल की खाड़ी के समुद्र से अलग करता है, जहां पर मशहूर सतीश धवन स्पेस सेंटर भी है। इसके साथ ही दो छोटे-छोटे द्वीप - इरकाम व वेनाड भी हैं, जो इस झील को पूर्वी और पश्चिमी हिस्से में विभाजित करते हैं। इससे ठीक सटा हुआ है पुलीकट पक्षी अभयारण्य।
यह इलाका कभी समुद्र के किनारे शांत हुआ करता था। इसीलिए सदियों से ठंड के दिनों में साठ हजार से अधिक प्रवासी पक्षी यहां आते रहे हैं। विशेषरूप से पंद्रह हजार से अधिक राजहंस (फ्लेमिंगो) और साइबेरियन क्रेन यहां की विशेषता रही हैं। यह अथाह जल निधि 59 किस्म की वनस्पतियों का उत्पादन-स्थल भी है, जिनमें से कई का इस्तेमाल खाने में होता है। एक ताजा सर्वे बताता है कि पिछले कुछ दशकों में इस झील का क्षेत्रफल 460 वर्ग किलोमीटर से घटकर 350 वर्गकिलोमीटर रह गया है। पहले इसकी गहराई चार मीटर हुआ करती थी, जो अब बमुश्किल डेढ़ मीटर रह गई है।
झील में मछली पकड़ने के लिए जाल फेंकने के बढ़ते निरंकुश चलन से इसमें मौजूद पारंपरिक वनस्पतियों का नुकसान हो रहा है। रही-सही कसर मछली पकड़ने के लिए डीजल से चलने वाली नावों व मशीनों को अनुमति देने से पूरी हो गई। इसने मछलियों की पारंपरिक किस्मों और मात्रा पर विपरीत प्रभाव डाला।
झील में मछली पकड़ने के लिए जाल फेंकने के बढ़ते निरंकुश चलन से इसमें मौजूद पारंपरिक वनस्पतियों का नुकसान हो रहा है। रही-सही कसर मछली पकड़ने के लिए डीजल से चलने वाली नावों व मशीनों को अनुमति देने से पूरी हो गई। इसने मछलियों की पारंपरिक किस्मों और मात्रा पर विपरीत प्रभाव डाला।
आंध्र प्रदेश वाले हिस्से से अरनी व कलंगी नदी का पानी सीधे इसी झील में गिरता है, जो अपने साथ बड़ी मात्रा में नाली की गंदगी, रासायनिक अपमिश्रण और औद्योगिक कचरा लाता है। तमिलनाडु की ओर झील के हिस्से को सबसे अधिक खतरा गाद के बढ़ते अंबार से है, जिस कारण समुद्र से झील में साफ पानी की आवाजाही धीरे-धीरे कम हो रही है। यह रास्ता संकरा व उथला हो गया है। झील को समुद्र से जोड़ने वाले रास्ते की 20वीं सदी में औसत गहराई डेढ़ मीटर थी, जो आज घटकर एक मीटर से भी कम हो गई है। यहां गाद जमने की गति प्रत्येक सौ साल में एक मीटर आंकी गई है। यही नहीं, यदि उपाय नहीं किए गए, तो आने वाली सदी में इस अनूप का अस्तित्व ही समाप्त होने का खतरा है। बीते 20 वर्षों में यहां पारंपरिक रूप से मिलने वाली मछलियों की कम-से-कम 20 और झींगों की कोई दो किस्में बिल्कुल लुप्त हो चुकी हैं। पुलीकट झील के किनारें खुलते गए व्यावसायिक प्रतिष्ठानों-कारखानों ने भी इसे खूब नुकसान पहुंचाया।
प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के अंतरराष्ट्रीय संगठन आईयूसीएन ने इसे अंतरराष्ट्रीय महत्व का स्थान घोषित कर रखा है, तो डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की सूची में यह ‘संरक्षित क्षेत्र’ है। इस इलाके के पर्यावरण पर दूरगामी योजना बनाकर काम नहीं हुआ, तो पुलीकट झील देश के लुप्त हो रहे ‘वेट-लैंड’ की अगली कड़ी हो सकती है। सनद रहे, वेट-लैंड के नष्ट होने से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ जैसे कुप्रभाव का दायरा बढ़ रहा है। वेट-लैंड की दुर्गति का मतलब है, तापमान में बढ़ोतरी, बारिश में कमी और प्राकृतिक विपदाओं को न्योतना
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