उत्पादक का उत्तरदायित्व तय किए बगैर नहीं बचेगा पर्यावरण
भारत में हर साल कोई 4.4 खरब लीटर पानी को प्लास्टिक की बोतलों में पैक कर बेचा जाता है। यह बाजार 7040 करोड़ रूपए सालाना का हे। जमीन के गर्भ से या फिर बहती धारा से प्रकृति के आर्शीवाद स्वरूप निशुल्क मिले पान को कुछ मशीनों से गुजार कर बाजार में लागत के 160 गुणा ज्यादा भाव से बेच कर मुनाफे का पहाड़ खड़ा करने वाली ये कंपनियां हर साल देश में पांच लाख टन प्लास्टिक बोतलों का अंबार भी जोड़ती हैं। षीतल पेय का व्यापार तो इससे भी आगे है और उससे उपजा प्लास्टिक कूड़ा भी यूंह ी इधर-उधर पड़ा रहता है। चूंकि ये बोतलें इस किस्म की प्लास्टिक से बनती हैं जिनका पुनर्चकण हो नहीं सकता, सो कबाड़ी इन्हें लेते नहीं हैं। या तो यह प्लास्टिक टूट-फूट कर धरती को बंजर बनाता है या फिर इसे एकत्र कर ईंट भट्टे या ऐसी ही बड़ी भट्टियों में झोंक दिया जाता है, जिससे निकलने वाला धुआं दूर-दूर तक लेागांे का दम घोंटता है। ठीक यही हाल हर दिन लाखों की संख्या में बिकने वाली कोल्ड ड्रिंक्स की बोतलों , दूध की थैलियों, चिप्स आदि के पैकेट का है। हमारे देश के नीति निर्धारक बढ़ते प्रदूषण के कारक, कारण निदान पर बड़े-बड़े आयोजन, परियोजनाएं और भाषण देते हैं, लेकिन पानी की बोतलों का छोटा सा तथ्य बानगी हैं कि देश के जल-जंगल-जमीन को संकट में डालने वाले उत्पादों को मुनाफा कमाने की तो छूट है लेकिन उनके उत्पाद से उपजे जहरीले कचरे के प्रति उनकी केाई जिम्मेदारी नहीं हैं।असल में प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के चलते नैसर्गिकता में आए बदलाव का मूल कारण हमारा प्रकृति पर निर्भरता से दूर होना है। विउंबना है कि कुछ संगठन व व्यापारी यह कहते नहीं अघाते कि प्लास्टिक के आने से पेड़ बच गए। हकीकत यह है कि पेड़ से मिलने वाले उत्पाद, चाहे वे रस्सी हों या जूट या कपड़ा, या कागज, इस्तेमाल के बाद प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाते थे। पेड़ का देाहन करें तो उसे फिर से उगा कर उसकी पूर्ति की जा सकती है, लेकिन एक बार प्लास्टिक धरती पर किसी भी स्वरूप में आ गई तो उसका नष्ट होना असंभव है और वह समूचे पर्यावरणीय-तंत्र को ही हानि पहुंचाती है। यह मसला अकेले पानी की बेातलों का ही नहीं है, खाने-पीने की वस्तुओं से ले कर हर तरह के सामान की पैकिंग में प्लास्टिक या थर्मोकाले का इस्तेमाल बेधडक है, लेकिन कोई भी निर्माता यह जिम्मेदारी नहीं लेता कि इस्तेमाल होने वाली वस्तु के बाद उससे निकलने वाले इस जानलेवा कचरे का उचित निबटान करने कौन करेगा।
मोबाईल, कंप्यूटर व अन्य इलेक्ट्रानिक उपकरणें की कंपनियों का मुनाफा असल उत्पादन लागत का कई सौ गुणा होता है लेकिन करोड़ो-करोड़ विज्ञापनों में खर्च करने वाली ये कंपनियां इसे उपजने वाले ई-कचरे की जिम्मेदारी लेने को राजी नहीं होतीं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता हे। जो जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है। षेश हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश सामग्री गलती-’सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब हो कर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करती है। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों व बेकार मोबाईलो ंसे भी उपज रहा है। इनसे निकलनेवाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व हमारे शरीर में पहुंचकर बीमारियों को जन्म देते हैं।
रंगीन टीवी, माईक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, फैक्स मशीन , टेबलेट, सीडी, एयर कंडीशनर, आदि को भी जोड़ लें तो हर दिन ऐसे उपकरणो में से कई हजार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़े में डाल दिए जाते हैं। ऐसे सभी इलेक्ट्रानिक्स उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं जो जल, जमीन, वायु, इंसान और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उससे उबरना लगभग नामुमकिन है। इस कबाड़ को भगवान भरोसे प्रकृति को नष्ट करने के लिए छोड़ दिया जाता है। यही नहीं ऐसे नए उपकरण खरीदने के दौरान पैकिंग व सामान की सुरक्षा के नाम पर कई किलों थर्मोंकोल व पॉलीथीन का इस्तेमाल होता है जोकि उपभोक्ता कूड़े में ही फैंकता है। क्या यह अनिवार्य नहीं किया जाना चाहिए िकइस तरह का पैकेजिंग मटेरियल कंपनी खुद तत्काल उपभौकता से वापिस ले ?
इन दिनों बड़े जोर-शोर से ई-रिक्शे को पर्यावरण-मित्र बता कर प्रचरित किया जा रहा हे। इसने साईकिल रिक्शों को निगलना भी शुरू कर दिया है। यह बात दीगर है कि ई-रिक्श को विदेश से मंगवाने व उसे बेचने में चूंकि कई ताकतवर राजनेतओं के व्यावसायिक हित है सो यह नहीं बताया जा रहा कि ई-रिक्शेे के महत्वपूर्ण तत्व बैटरी के कारण देश का जल और जमीन तेजी से बंजर हो रही हे। औसतन हर साल एक रिक्शे की बैटरी के चलते दो लीटर तेजाब वाला पानी या तो जमीन पर या फिर नालियों के जरिये नदियों तक जा रहा है। हर साल खराब बैटरियों के कारण बड़ी मात्रा में सीसा धरती को बेकार कर रहा है। ई7रिक्श बे कर खासी कमाई करने वले उस रिक्शे की चार्जिंग, उसकी बैटरी की पर्यावरण-मित्र देखभाल की कहीं जिम्मेदारी नहीं लेते। ठीक यही हाल देश के सबसे बड़े व्यवसायों में से एक ‘आटोमोबाईल क्षेत्र’ का है। कंपनियों जमे कर वाहन बेच रही हैं, लेकिन ईंधन से उपजने वाले प्रदूषण, खराब वाहनों या पुराने वाहनों को चलने से प्रतिबंधित करने जैसे कार्यों के लिए कोई कदम नहीं उठातीं । हर साल करोड़ों टायर बेकार हो कर जलाए जा रहे हैं और उनका जहरीला धुआं परिवेश को दूषित कर रहा है, लेकिन केाई भी टायर कंपनी पुराने टायरों के सही तरीके से निबटान को आगे नहीं आती।
यह तो किसी छिपा नहीं है कि विभिन्न सरकारों द्वारा पर्यावरण बचाने के लिए लिए करों से उनका खजाना जरूर भरा हो, कभी पर्यावरण संरक्षण के ठोस कदम तो उठे नहीं। भारत जैसे विशाल और दिन-दुगनी, रात चैागुनी प्रगति कर रहे उपभोक्तावादी देश में अब अनिवार्य हो गया है कि प्रत्येक सामान के उत्पादक या निर्यातक को यह जिम्मेदारी लेने को बाध्य किया जाय कि उसके उत्पाद से उपजे कबाड़ या प्रदूषण के निबटारे की तकनीकी और जिम्मेदारी वह स्वयं लेगा। यह कहां तक नैतिक व न्यायोचित है कि कंपनियां मोबाईल, कार, पानी बेच कर मुनाफा कमाएं और उससे निकले प्रदूषण से समाज व सरकार जूझे ।
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