सावधान ! यह चेतावनी न्यायपालिका के लिए भी है
पंकज चतुर्वेदी
बीते एक साल में तीन बार देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश ने सरकार से अदालतों में बढते मुकदमे के बोझ तथा जजों की कमी पर गंभीरता से गौर करने के लिए सार्वजनिक बयान दिया है। देश की सबसे बड़ी अदालत- सुप्रीम कोर्ट , लंबित मामलों की संख्या 54,864, हाई कोर्ट - पेंडिंग मुकदमें - 40 लाख साठ हजार 709। देश में सर्वाधिक मामले निचली अदालतों में लंबित है, जहां इनकी संख्या करीब पौने तीन करोड़ है। यदि इसी गति से मुकदमों का निबटान होता रहा तो 320 साल चाहिए।इस बीच अदालतों में भ्रश्टाचार का मामला भी खूब उछल रहा है। दूसरी तरफ आए रोज ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें शिक्षित लोग कानून अपने हाथेां में ले कर खुद ही न्याय करनाचाहते है।। कोयला घोटाले में अभियुक्त एक केबिनेट सचिव स्तर से रिटायर्ड अफसर ने तो अदालत में यह कह दिया कि वह इतनी लंबी न्यायिक प्रक्रिया से हार गया है और वह ना तो अब जमानत चाहता है और ना ही गवाहों से जिरह। अदालत उसे वैसे ही जेल भेज दे क्योंकि मुकदमों के चलते उसकी आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी हे। लोकतंत्र में न्यायवयवस्था तीसरा स्तंभ ह और उसकी ऐसी जर्जर हालत पूरे तंत्र को कमजोर कर रही है। ऐसे में अदालतों के सामाजिक सरोकार पर विचार होना जरूरी है।
यदि विधि मंत्रालय के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो हमारे यहां आबादी की तुलना में न्यायाधीशों का अनुपात प्रति 10 लाख पर 17.86 न्यायाधीशों का है। मिजोरम में यह अनुपात सर्वाधिक है। वहां प्रति 10 लाख पर 57.74 न्यायाधीश हैं। दिल्ली में यह अनुपात 47.33 है और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रति 10 लाख आबादी पर मात्र 10.54 न्यायाधीश हैं। पश्चिम बंगाल में न्यायाधीशों का यह अनुपात सबसे कम है। वहां प्रति 10 लाख की आबादी पर सिर्फ 10.45 न्यायाधीश हैं। कोई भी जज हर साल 2600 से ज्यादा मुकदमों का निबटारा नहीं कर पाता , जबकि नए दर्ज मालों की संख्या इससे कहीं अधिक होती है। दरअसल, ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या संसद द्वारा कानून बनाकर ही बढ़ाई जा सकती है। विडंबना तो यह है कि काम के बोझ को देखते हुए नई नियुक्तियां तो हो नहीं रहीं, हां कुल स्वीकृत पदों पर भी जज आसीन नहीं है। देश के 24 उच्च न्यायालयों में फिलहाल 43 फीसद नियुक्तियां खाली पड़ी हैं। जहां इन अदालतों में जजों की संख्या 1044 होनी चाहिए थी, वहीं अभी यह संख्या केवल 599 है। सर्वाेच्च न्यायलय में 3 पद रिक्त हैं। इन रिक्तियों के बढ़ने का एक कारण एनजेएसी के गठन पर विवाद भी रहा, क्योंकि जब तक यह मामला लंबित रहा, तब तक कोई भी नियुक्ति नहीं हुई और जब कोलेजियम प्रणाली बहाल कर दी गई, तब भी समन्वय की कमी के चलते नियुक्तियां लटक जाती हैं। सर्वाेच्च न्यायलय में 2008 के संशोधन अधिनियम के द्वारा संख्या बढाकर 30 कर दी गई थी, लेकिन वर्तमान में सर्वाेच्च न्यायलय में 27 न्यायाधीश ही नियुक्त हैं, हालांकि पिछले कुछ समय से सर्वाेच्च अदालत पर मुकदमों का बोझ कम करने के लिए एक राष्ट्रीय अपील न्यायालय के गठन पर विचार चल रहा है, लेकिन यदि इस अपीलीय न्यायलय का गठन किया गया तब भी अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करनी होगी।
देश की सड़कों पर आए रोज अपराध होने के बाद न्याय दिलवाने के लिए सड़कों पर गुस्सा भले ही महज पुलिस या व्यवस्था का विरोध नजर आ रहा हो, हकीकत में यह हमारी न्याय व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती है - लोग अब महसूस कर रहे हैं कि देर से मिला न्याय अन्याय के बराबर ही है। यह बात भी लोग अब महसूस कर रहे हैं कि हमारी न्याय व्यवस्था में जहां अपराधी को बचने के बहुत से रास्ते खुले रहते हैं , वहीं पीड़ित की पीड़ा का अनंत सफर रहता है। हाल ही में देश की सुप्रीम कोर्ट ने हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली पर ही सवाल खड़े करते हुए कहा है कि निचली अदालतों के दोशी को दी जाने वाली सजा के निर्धारण के लिए कोई विधायी या न्यायिक दिशा-निर्देश ना होना हमारी न्याय प्रणाली की सबसे कमजोर कड़ी है। कई मामाले पहले दस साल या उससे अधिक निचली अदालत में चलते हैं फिर उनकी अपील होती रहती है। कुछ मिला कर एक उम्र बीत जाती है, न्याय की आस में वहीं लंपट और पेश्ेावर अपराधी न्याय व्यवस्था की इस कमजोरी का फायदा उठा कर कानून से बैखोफ बने रहते हैं।
देशभर में हो रहे मौजूदा प्रदर्शनों में फास्ट-ट्रैक अदालतों या जल्दी फैसले का जिक्र हो रहा है। अभी पिछले साल ही मध्यप्रदेश के धार जिले में हत्या के एक ममाले में एक महीने के भीतर आरोपियों को सजा सुना दी गई। राजस्थान में भी 21 दिन में फैसले हुए हैं। जाहिर है कि अदालतों में जल्दी फैसले आ सकते हैं। साफ नजर आता है कि आखिर मामलों को लंबा ख्,ाींचने में किसके स्वार्थ निहित होते हैं। अब अदालतों से क्या उम्मीद की जाए जब देश के सर्वोच्च पद राश्ट्रपति एक पास ही 13 केदियों की दया याचिकाएं सालों से लंबित हैं। तकनीकी रूप से इन पर गृह और विधि मंत्रालयों की राय दर्ज है और महामहिम को इस पर फैसला लेने में कुछ ही घंटे लगने चाहिए। आजादी के बाद चुने हुए प्रतिनिधियों, नौकरशाही ने किस तरह आम लोगों को निराश किया,इसकी चर्चा अब मन दुखाने के अलावा कुछ नहीं करती है । यह समाज ने मान लिया है कि ढर्रा उस हद तक बिगड़ गया है कि उसे सुधरना नामुमकिन है । भले ही हमारी न्याय व्यवस्था में लाख खामियां हैं, अदालतों में इंसाफ की आस कभी-कभी जीवन की संास से भी दूर हो जाती है । इसके बावजूद देश को विधि सममत तरीके से चलाने के लिए लोग अदालतों को उम्मीद की आखिरी किरण तो मानते ही हैं । बीते कुछ सालों से देश में जिस तरह अदालत के निर्देशों पर सियासती दलों का रूख देखने को मिला हैै, वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि इससे संभावना जन्म लेती है कि कहीं पूरे देश का गणतंत्रात्मक ढ़ांचा ही पंगु न हो जाए ।
यह विडंबना है कि देश का बहुत बड़ा तबका थोडे़ से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से कर ही नहीं पाता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि एक निश्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। अगर इस दौरान मुवक्किल जेल से बाहर हुआ तो इस सारे मुकद्मे के दौरान अपने को बचाने की कवायद की परेशानी और सजा से ज्यादा खर्चे और जुर्माना ही कष्टदायी हो जाता है। पुलिस और प्रभावशाली लोग न्यायिक प्रक्रिया को और भी ज्यादा दूरूह बना रहे हैं क्योंकि प्रभावशाली लोग पुलिस को अपने इशारों पर नचाते हैं और उन लोगों को डराने धमकाने और चुप कराने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते हैं जो अत्याचारी और शोषणपूर्ण व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। एक तरफ न्याय प्रक्रिया जटिल है तो दूसरी ओर वकील या अदालतों पर कोई जिम्मेदारी या समयबद्धता का दवाब नहीं है। देशभर की अदालतों में वीकल साल में कई दिन तो हडताल पर ही रहते हैं, यह जाने बगैर कि एक पेशी चूकने से उनके मुवक्किल की न्याय से दूरी कई साल की बढ़ जाती है। यह भी कहना गलत ना होगा कि बहुत से मामलों में वकील खुद ज्यादा पेशी की ज्यादा फीस के लालच में केस को खींचते रहते हैं।
देश की बड़ी और घनी आबादी, भाशाई, सामाजिक और अन्य विविधताओं को देखते हुए मौजूदा कानून और दंड देने की प्रक्रिया पूरी तरह असफल रही है। ऐसे में कुछ सिनेमा याद आते हैं- 70 के दशक में एक फिल्म में हत्या के लिए दोशी पाए गए राजेश खन्ना को फरियादी के घर पर देखभाल करने के लिए रखने पर उसका ह्दय परिवर्तन हो जाता है। अभिशेक बच्चन की एक फिल्म में बड़े बाप के बिगड़ैल युवा को एक वृद्धाश्रम में रह कर बूढ़ों की सेवा करना पड़ती है। वैसे पिछले साल दिल्ली में एक लापरवाह ड्रायवर को सड़क पर खड़े हो कर 15 दिनों तक ट्राफिक का संचालन करने की सजा वाला मामला भी इसी श्रंखला में देखा जा सकता है, लेकिन दुर्भाग्य कि ऐसी व्यावहारिक सजा को बाद में बड़ी अदालत ने कानूनसम्मत ना मानते हुए रोक लगा दी थी। मोटर साईकलों पर उपद्रव काटने वाले सिख युवकों को कुछ दिनों के लिए गुरूद्वारे में झाड़ू-पोंछा करने का सजा की भी समाज में बेहद तारीफ हुई थी।
क्या यह वक्त नही आ गया है कि लिखे कानून के बनिस्पत सुधार के लिए जरूरी कदमों या अपराध-निवारण को अपनाया जाए ?आज की न्यायीक व्यवस्था बेहद महंगी, डरावनी, लंबी खिंचने वाली है। गरीब लोग तो अदालतों की प्रक्रिया में सहभागी ही नहीं हो पाते हैं। उनके लिए न्याय की आस बेमानी है। साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, सात साल से कम सजा वाले मामालों में सयब़ नीति बनाना, अदालतों में बगैर वकील की प्रक्रिया को प्रेरित करना, हडताल जैसी हालत में तारीख आगे बढत्राने की जगह वकील को दंडित करना जैसे कदम अदालतों के प्रति आम आदमी के विश्वास को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं। ऊंची फीस लेने वाले वकीलों का एक वर्ग ऐसी सिफारिशों को अव्यावहारिक और गैरपारदर्शी या असंवदेनशील करार दे सकता है, लेकिन देशभर में सड़कों पर उतरे लोगों की भावना ऐसी ही है और लोकतंत्र में जनभावना ही सर्वोपरि होती है।
पंकज चतुर्वेदी
यू जी-1, 3/186 राजेन्द्र नगर, सेक्टर-2
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
गाजियाबाद 201005
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