जिन्ना हमारा अतीत है , इतिहास नहीं
पंकज चतुर्वेदी
यह बात जान लें कि जिन्ना भी जानता था कि भारत का मुसलमान उसकी अलग पाकिस्तान निति से सहमत नहीं है , जो इतने खून खराबे और अविश्वास के बाद भी अपने "मादरे वतन" में जमें रहे , उन्होंने साफ़ बता दिया था की जिन्ना से उनका इतेफाक नहीं है .आज ७० साल से ज्यादा बीत गए और अचानक जिन्ना का जिन्न कब्र से निकाल कर सारी कौम को सवाल में खड़ा करने का गंदा खेल रचा गया . मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो उन दिनों जवानी में थे और अपनी गली के बाहर डंडा लिए अपने बाप को खड़ा देखें है, वह बाप लोगों को धमका कर पलायन से रोक रहा था - ' खबरदार उस तरफ गए, यहीं हम पैदा हुए, यहीं सुपुर्दे ख़ाक होंगे, हमारा मुल्क यही है "
एक बात जान लें भले ही अब तीन मुल्क हो गए लेकिन भारत, पकिस्तान और बंगलादेश का इतिहास, प्रागेतिहासिक तथ्य, पौराणिक और धार्मिक मान्यताएं , आज़ादी की लडाई, रिश्ते, वस्त्र, संघर्ष---- और बहुत कुछ-- साझी विरासत है, आज़ादी के संघर्ष में , उस दौरान सामाजिक और शिक्षिक आन्दोलन में जो लोग भी शामिल थे, उन्हें किसी भोगौलिक सीमा में नहीं बांटा जा सकता, भले हे अल्लामा इकबाल उस तरफ चले गए, लेकिन सारे जहां से अच्छा -- गीत आज भी देशवासियों के दिल और दिमाग पर राज करता हैं , जिन्ना का आज़ादी की लडाई में योगदान रहा है, सन १९३९ तक वह एक साझा मुल्क की आज़ादी का लड़ाका था- फिर पाकिस्तान बनाने की मांग, अंग्रेजों द्वारा उन्हें उकसाना-- कांग्रेस के भीतर की सियासत -- बहुत कुछ --- भयानक रक्तपात-- विभाजन ---.
एक बात जान लें भले ही अब तीन मुल्क हो गए लेकिन भारत, पकिस्तान और बंगलादेश का इतिहास, प्रागेतिहासिक तथ्य, पौराणिक और धार्मिक मान्यताएं , आज़ादी की लडाई, रिश्ते, वस्त्र, संघर्ष---- और बहुत कुछ-- साझी विरासत है, आज़ादी के संघर्ष में , उस दौरान सामाजिक और शिक्षिक आन्दोलन में जो लोग भी शामिल थे, उन्हें किसी भोगौलिक सीमा में नहीं बांटा जा सकता, भले हे अल्लामा इकबाल उस तरफ चले गए, लेकिन सारे जहां से अच्छा -- गीत आज भी देशवासियों के दिल और दिमाग पर राज करता हैं , जिन्ना का आज़ादी की लडाई में योगदान रहा है, सन १९३९ तक वह एक साझा मुल्क की आज़ादी का लड़ाका था- फिर पाकिस्तान बनाने की मांग, अंग्रेजों द्वारा उन्हें उकसाना-- कांग्रेस के भीतर की सियासत -- बहुत कुछ --- भयानक रक्तपात-- विभाजन ---.
करवाने के लिए संकल्पित व्यक्ति था . उसके बाद वह पकिस्तान की मांग उठाने वाला हो गया और उसका चेहरे का रंग बदल गया, जान लें पकिस्तान की मांग का प्रारम्भ जिन्ना से नहीं हुआ . पहले महा सभा ने हिंदू राष्ट्र की मांग की, फिर ढाका के नवाब ने जमीदारों को एकत्र कर डराया कि यदि देश आज़ाद हुआ तों तुम्हारी जमीदारी चली जायेगी और पाकिस्तान का झंडा उठाया , इधर कांग्रेस में प्रखर हिंदू नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ और उधर आज़ादी का आंदोलन धार्मिक आधार पर बाँटने लगा- उसमें ब्रितानी हुकूमत की क्या साजिश थी और जिन्ना, गांधी कहाँ धोखा खा गए -- वे बहुत अलग मसले हैं .
बहरहाल सावरकार भी तों जिन्ना की ही तरह थे - एक सावरकर वह था- जिसने १८५७ के क्रांति को सबसे पहली बार भारतीय परिपेक्ष्य में लिखा- अंग्रेज तों उसे सिपाही विद्रोह कहते थे, लेकिन सावरकार की पुस्तक ने बताया कि वह किसान-मजदूर -आम लोगों का विद्रोह था . सावरकार कई क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहे , कालापानी की सजा हुई और फिर उनका रंग बदल गया , सावरकर शायद कालापानी की भीषण त्रासदियों को सह नहीं पाए, माफ़ीनामा लिख कर रिहा हुए और उसके बाद जीवनपर्यंत अंग्रेजो के वफादार रहे, इसके लिए उन्हें मासिक वजीफा भी मिलता था
एक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का आकलन देश के परिपेक्ष्य में किया जाता है - जिस तरह सावरकार के कालापानी के पहले के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता उसी तरह जिन्ना के सन १९३५ के पहले के देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता .
बाकी जिन्हें इतिहास को पढ़ना नहीं है वे केवल भडकाऊ , मूर्खतापूर्ण और टकराव की बातें ही करेंगे
, कभी वक़्त मिले तों भा ज पा के वरिष्ठ नेता, काबुल तक आतंकवादियों को छोड़ने गए जसवंत सिंह की लिखी जिन्ना पर पुस्तक पढ़ लेना, राजपाल एंड सोंस ने हिंदी में छापी है , यह सूचना भक्तों के लिए नहीं है क्योंकि एक तों वे किताब पर आठ सौ खर्च नहीं करेंगे, दूसरा वे इतनी मोती पुस्तक पढ़ने का संयम और समय नहीं निकाल पायेंगे
बहरहाल सावरकार भी तों जिन्ना की ही तरह थे - एक सावरकर वह था- जिसने १८५७ के क्रांति को सबसे पहली बार भारतीय परिपेक्ष्य में लिखा- अंग्रेज तों उसे सिपाही विद्रोह कहते थे, लेकिन सावरकार की पुस्तक ने बताया कि वह किसान-मजदूर -आम लोगों का विद्रोह था . सावरकार कई क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल रहे , कालापानी की सजा हुई और फिर उनका रंग बदल गया , सावरकर शायद कालापानी की भीषण त्रासदियों को सह नहीं पाए, माफ़ीनामा लिख कर रिहा हुए और उसके बाद जीवनपर्यंत अंग्रेजो के वफादार रहे, इसके लिए उन्हें मासिक वजीफा भी मिलता था
एक व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का आकलन देश के परिपेक्ष्य में किया जाता है - जिस तरह सावरकार के कालापानी के पहले के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता उसी तरह जिन्ना के सन १९३५ के पहले के देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए संघर्ष को नकारा नहीं जा सकता .
बाकी जिन्हें इतिहास को पढ़ना नहीं है वे केवल भडकाऊ , मूर्खतापूर्ण और टकराव की बातें ही करेंगे
, कभी वक़्त मिले तों भा ज पा के वरिष्ठ नेता, काबुल तक आतंकवादियों को छोड़ने गए जसवंत सिंह की लिखी जिन्ना पर पुस्तक पढ़ लेना, राजपाल एंड सोंस ने हिंदी में छापी है , यह सूचना भक्तों के लिए नहीं है क्योंकि एक तों वे किताब पर आठ सौ खर्च नहीं करेंगे, दूसरा वे इतनी मोती पुस्तक पढ़ने का संयम और समय नहीं निकाल पायेंगे
सं २००७ में मैं जब कराची गया था तो सिंध विधान सभा के स्पीकर ने कराची बुक फेयर के उदघाटन के समय भारत की आई टी में तरक्की का जिक्र करते हुए उससे सीखने की बात की थी, उन्होंने गांधी का भी उल्लेख किया था . बाद में अनौपचारिक विमर्श में मैंने उनसे पूछा की दोनों मुल्क एक साथ आज़ाद हुए-- दोनों की ब्यूरोक्रेसी, सेना , नेता एक ही ट्रेनिगं के थे, लेकिन आप संभल नहीं पाए . ऐसा क्यों हुआ ? उनका जवाब था- इंडिया में संस्थाएं यानि institutions मजबूत हैं और हमारे यहाँ सियासत और सेना के आगे कोई संस्था नहीं हैं, इंडिया में संस्थाओं का सम्मान है और वह किसी भी हुकुमत या ताकत के सामने झुकती नहीं है .
खेद है की अब हम उस दौर में आ रहे हैं जहां एक तो पुराणी संस्ताहों को ढहाने का कम शुरू हो गया है, संस्थाओं में दखल दे कर उनके मूल चरित्र को बदलने को देश भक्ति माना जा रहा है .
जान लें कि कोई संस्था अपना स्वरुप सालों में और सतत अनुभवों से विकसित करती है और उसे नकारना ठीक उसी तरह है जैसे की दिल्ली के हुमायुनपुर में आठ सौ साल पुराने बलवान के अकाल के मकबरे को रातों रात मंदिर बनाना . आप मूर्ति भले ही रख दो, लेकिन इतिहास कैसे बदलोगे ?
अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर या सर सैयद की तस्वीर इस लिए नहीं है कि वह यहाँ के मुसलमानों की नायक हैं , असल में यह इतिहास है , ऐसा ही इतिहास लाहौर के म्यूजियम ने हैन्जहान भगत सिंह और सिख गुरुओं से जुड़ीं कई यादिएँ , चित्र रखे हैं, कराची के म्यूजियम ने गांधी और नेहरु के भी चित्र हैं , शायद ऐसा ही बंगलादेश में भी हो -- हम तारीख को झुटला नहीं सकते-- हमें जिसने जो किया उसे उतना योगदान का उल्लेख करना होगा , भले ही जिन्ना हो या सावरकर --- सभी ने एक वक़्त के बाद कुछ मजबूरियों या अपेक्षाओं के अपनी निष्ठाएं बदलीं .
एएमयू की मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में 13.50 लाख पुस्तकों के साथ तमाम दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद हैं।1877 में स्थापित इस लाइब्रेरी में अकबर के दरबारी फ़ैज़ी द्वारा फ़ारसी में अनुवादित गीता है। 400 साल पुरानी फ़ारसी में अनुवादित महाभारत की पांडुलिपि है। तमिल भाषा में लिखे भोजपत्र हैं। कई शानदार पेटिंग और भित्ती चित्र हैं जिनमें तमाम हिंदू देवी देवता शामिल हैं। एएमयू का संग्रहालय में अनेक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण वस्तुएँ हैं। इनमें सर सैयद अहमद का 27 देव प्रतिभाओं का वह कलेक्शन भी है जिसे उन्होंने अलग-अलग स्थानों का भ्रमण कर जुटाया था। इनमें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर का स्तूप और स्तूप के चारों ओर आदिनाथ की 23 प्रतिमाएं शामिल हैं। सुनहरे पत्थर से बने पिलर में कंकरीट की सात देव प्रतिमाएं हैं। एटा और फतेहपुर सीकरी से खोजे गए बर्तन, पत्थर और लोहे के हथियार हैं। शेष शैया पर लेटे भगवान विष्णु, कंकरीट के सूर्यदेव हैं। महाभारत काल की भी कई चीजें हैं। यहां तक कि डायनासोर के अवशेष भी हैं. जाहिर है की ए एम् यु ने धार्मिक तंगदिली नहीं दिखाई और वह एक सम्पूर्ण हिन्दुस्तानी संस्था बन कर उभरा .
खेद है की अब हम उस दौर में आ रहे हैं जहां एक तो पुराणी संस्ताहों को ढहाने का कम शुरू हो गया है, संस्थाओं में दखल दे कर उनके मूल चरित्र को बदलने को देश भक्ति माना जा रहा है .
जान लें कि कोई संस्था अपना स्वरुप सालों में और सतत अनुभवों से विकसित करती है और उसे नकारना ठीक उसी तरह है जैसे की दिल्ली के हुमायुनपुर में आठ सौ साल पुराने बलवान के अकाल के मकबरे को रातों रात मंदिर बनाना . आप मूर्ति भले ही रख दो, लेकिन इतिहास कैसे बदलोगे ?
अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जिन्ना की तस्वीर या सर सैयद की तस्वीर इस लिए नहीं है कि वह यहाँ के मुसलमानों की नायक हैं , असल में यह इतिहास है , ऐसा ही इतिहास लाहौर के म्यूजियम ने हैन्जहान भगत सिंह और सिख गुरुओं से जुड़ीं कई यादिएँ , चित्र रखे हैं, कराची के म्यूजियम ने गांधी और नेहरु के भी चित्र हैं , शायद ऐसा ही बंगलादेश में भी हो -- हम तारीख को झुटला नहीं सकते-- हमें जिसने जो किया उसे उतना योगदान का उल्लेख करना होगा , भले ही जिन्ना हो या सावरकर --- सभी ने एक वक़्त के बाद कुछ मजबूरियों या अपेक्षाओं के अपनी निष्ठाएं बदलीं .
एएमयू की मौलाना आज़ाद लाइब्रेरी में 13.50 लाख पुस्तकों के साथ तमाम दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद हैं।1877 में स्थापित इस लाइब्रेरी में अकबर के दरबारी फ़ैज़ी द्वारा फ़ारसी में अनुवादित गीता है। 400 साल पुरानी फ़ारसी में अनुवादित महाभारत की पांडुलिपि है। तमिल भाषा में लिखे भोजपत्र हैं। कई शानदार पेटिंग और भित्ती चित्र हैं जिनमें तमाम हिंदू देवी देवता शामिल हैं। एएमयू का संग्रहालय में अनेक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण वस्तुएँ हैं। इनमें सर सैयद अहमद का 27 देव प्रतिभाओं का वह कलेक्शन भी है जिसे उन्होंने अलग-अलग स्थानों का भ्रमण कर जुटाया था। इनमें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर का स्तूप और स्तूप के चारों ओर आदिनाथ की 23 प्रतिमाएं शामिल हैं। सुनहरे पत्थर से बने पिलर में कंकरीट की सात देव प्रतिमाएं हैं। एटा और फतेहपुर सीकरी से खोजे गए बर्तन, पत्थर और लोहे के हथियार हैं। शेष शैया पर लेटे भगवान विष्णु, कंकरीट के सूर्यदेव हैं। महाभारत काल की भी कई चीजें हैं। यहां तक कि डायनासोर के अवशेष भी हैं. जाहिर है की ए एम् यु ने धार्मिक तंगदिली नहीं दिखाई और वह एक सम्पूर्ण हिन्दुस्तानी संस्था बन कर उभरा .
वरिष्ठ पत्रकार पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ, जो कि ए एम यू के छात्र रहे हैं, ने बड़ा भंडाफोड़ किया। ये जिन्ना विवाद वहां के कुलपति ने स्थानीय सांसद के साथ साजिश कर उपजाया है क्योंकि वीसी साहब बड़े भ्र्ष्टाचार में लिप्त हैं और उससे ध्यान भटकाने के लिए यह लम्प्टायी उछाली गयी।
जो जिन्ना के आज़ादी की लडाई या विश्विद्यालय या आधुनिक शिक्षा के योगदान को नकार रहे हैं वे खुद बता दें की उनके आदर्श उस दौर में क्या कर रहे थे ? उनका क्या योगदान या भूमिका थी ?? फर्जी, अफवाही नहीं दस्तावेज में ??
मुल्क के सामने अभी तक की सबसे बड़ी बेरोजगारी का संकट खड़ा है, देश मंदी से जूझ रहा है ऐसे में ऐसे विवाद संस्थाओं को कमजोर करते हैं, हमारी छबी विश्व में दूषित अक्र्ते है, इससे निवेश और व्यापार दोनों के लिए प्रतिकूल माहौल पैदा होता है,
काश कुछ लोग युवाओं के रोजगार के मसले पर, उच्च शिक्षा के व्यावसायिक नज़रिए पर स्वरोजगार के अनुरूप माहौल तैयार करने पर अपने झंडे ले कर आते--
जिन्ना हमारे अतीत का हिस्सा हैं इतिहास नहीं क्योंकि इतिहास केवल नायकों को याद रखता है
मुल्क के सामने अभी तक की सबसे बड़ी बेरोजगारी का संकट खड़ा है, देश मंदी से जूझ रहा है ऐसे में ऐसे विवाद संस्थाओं को कमजोर करते हैं, हमारी छबी विश्व में दूषित अक्र्ते है, इससे निवेश और व्यापार दोनों के लिए प्रतिकूल माहौल पैदा होता है,
काश कुछ लोग युवाओं के रोजगार के मसले पर, उच्च शिक्षा के व्यावसायिक नज़रिए पर स्वरोजगार के अनुरूप माहौल तैयार करने पर अपने झंडे ले कर आते--
जिन्ना हमारे अतीत का हिस्सा हैं इतिहास नहीं क्योंकि इतिहास केवल नायकों को याद रखता है
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