बहुत कठिन है स्कूल तक की राह !
पंकज चतुर्वेदी
अभी 26 अप्रैल को ही जब उ.प्र. के कुशीनगर के ग्रामीण अंचल में जब एक लापरवाह चालक जब बच्चों से भरे वाहन को जब ट्रेन से भिड़ा रहा था, लगभग उसी समय देश की राजधानी दिल्ली में एक वेन गलत दिशा से उछलती हुई यू टर्न पर पलटती है और गलत दिशा में अंधाधुंध चल रहे एक दूघ के टैंकर से टकरा जाती है। एक बच्ची की वहीं मौत हो जाती हे। इस घटना में 17 बच्चे घयल हुए। हां! 17 बच्चे। वह वैन जो कि महज पांच सवारी बैठने के लिए परिवहन विभाग से पास थी, वह वैन जो कि कामर्शियल नही,ं बल्कि निजी इस्तेमाल के लिए थी, उसमें 18 बच्चे भरे थे। यही नहीं जिस टैंकर से दुर्घटना हुई उसका नौ बार यातायात नियम तोड़ने पर चालान हो चुका था और वैन का भी तीन बार। यह बानगी है कि बच्चों के स्कूल पहुंचने का मार्ग कितना खतरनाक और आशंकाओं से भरा है।
एक बात जान लें कि यह केवल एक ही ऐसी वैन नहीं थी जिसमें इतने बच्चे भरे होते हैं या लापरवाही से, बेतरतीब व अंधाधुध भागती हैं, अकेले दिल्ली एनसीआर में इनकी संख्या पांच हजार से अधिक हैं जिसमें हर दिन पांच लाख बच्चे अपनी जिंदगी दांव पर लगाते हैं। पूरे देश में इस तरह के वाहन लाखांे में है जिन्हें किसी कानून की परवाह नहीं होती और सरकारी महकमे जानबूझ कर भी उनसे बेपरवाह होते हैं।
देशभर में आए रोज ऐसे हादसे होते रहते हैं, जिसमें स्कूली बच्चे सड़क पर किसी अन्य की कोताही के चलते काल के गाल में समा जाते हैं । दो दिन उनकी चर्चा होती है और फिर उसको बिसरा कर सड़क पर बच्चें को स्कूल पहुंचाने का मौत का खेल यथावत जारी रहता है। कोई 15 साल पहले दिल्ली के एक संकरे वजीराबाद पुल से एक सकूली बस के लुढ़कने से कई बच्चों की मौत के बाद सरकार ने अदालत की फटकार के बाद कई दिशा-निर्देश जारी किए थे । इनमें से अधिकांश कागजों पर जीवंत है। ना तो उतने अनुभवी चालक है। ना ही बसों में स्पीड गवर्नर। जो कानून व्यावसायिक हितों में आड़े आते हैं, वे हर रोज चौराहों पर बिकते दिख जाएंगे । दिल्ल्ी तो बस बानगी है देश के हर षहर-कस्बे में हालात इतने ही भयावह हैं।
बीते कुछ सालों के दौरान आम आदमी शिक्षा के प्रति जागरूक हुआ है, स्कलूों में बच्चों का पंजीकरण बढ़ा है। इसके साथ ही स्कूल में ब्लेक बोर्ड, षौचालय, बिजली, पुस्तकालय जैसे मसलों से लोगों के सरोकार बढ़े हैं।, लेकिन जो सबसे गंभीर मसला है कि बच्चे स्कूल तक सुरक्षित कैसे पहुंचें, इस पर ना तो सरकारी और ना ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो पा रहा है। इसी की परिणति है कि आए रोज देशभर से स्कूल आ-जा रहे बच्चों की जान जोखिम में पड़ने के दर्दनाक वाकिए सुनाई देते रहते हैं। परिवहन को प्रायः पुलिस की ही तरह खाकी वर्दी पहनने वाले परिवहन विभाग का मसला मान कर उससे मुंह मोड़ लिया जाता है। असली सवाल तो यह है कि क्या दिल्ली ही नहीं देशभर के बच्चों को स्कूल आने-जाने के सुरक्षित साधन मिले हुए हैं । भोपाल, जयपुर जैसे राजधानी वाले शहर ही नहीं, मेरठ, भागलपुर या इंदौर जैसे हजारों शहरों से ले कर कस्बों तक स्कूलों में बच्चों की आमद जिस तरह से बढ़ी है, उसको देखते हुए बच्चों के सुरक्षित, सहज और सस्ते आवागमन पर जिस तरह की नीति की जरूरत है, वह नदारद है । विभिन्न विदेशी सहायता से संचालित हो रही ‘सर्व शिक्षा अभियान’ जैसी योजनाओं के कारण देशभर के स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है, लेकिन बच्चे स्कूल तक पहुंचें कैसे ? इस पर सरकार ने सोचा तक नहीं हैं ।
दिल्ली के धुर पूर्व में उत्तर प्रदेश को छूती एक कालोनी है - दिलशाद गार्डन । दिलशाद गार्डन निम्न और मध्यम लोगों की बड़ी बस्ती हैं और उसके साथ ही सीमापुरी, ताहिरपुर जैसे लम भी हैं । इस कालोनी के दो किलोमीटर के क्षेत्रफल में 65 स्कूल हैं । अधिकांश प्राईवेट हैं तथा इनमें से कई 12वीं तक हैं । यहां लगभग 22 हजार बच्चे पढ़ते हैं । इन स्कूलों की अपनी बसों की संख्या बामुश्किल 20 हैं , यानी 1000-1500 बच्चे इनसे स्कूल आते हैं । शेष का क्या होता है ? यह देखना रोंगेटे खड़े कर देने वाला होता हैं । सभी स्कूलों का समय लगभग एक ही हैं , सुबह साढ़े सात से आठ बजे के बीच । यहां की सड़कें हर सुबह मारूती वेन, निजी दुपहिया वाहनों और रिक्शों से भरी होती हैं और महीने में तीन-चार बार यहां घंटों जाम लगा होता हैं । पांच लोगों के बैठने के लिए परिवहन विभाग से लाईसेंस पाए वेन में 12 से 15 बच्चे ठुंसे होते हैं । अधिकतम तीन लोगों के बैठने लायक साईकिल रिक्शे पर लकड़ी की लंबी सी बैंच लगा कर दो दर्जन बच्चों को बैठाया हुआ होता हैं । बैटरी रिक्शे में दस बच्चे ‘‘आराम’’ से घुसते हैं। दुपहिया पर बगैर हैलमेट लगाए अभिभावक तीन-तीन बच्चों को बैठाए रफ्तार से सरपट होते दिख जाते हैं । आए रोज एक्सीडेंट होते हैं, क्योंकि ठीक यही समय कालोनी के लोगों का अपने काम पर जाने का होता हैं । ऐसा नहीं है कि स्कूल की बसें निरापद हैं , वे भी 52 सीटर बसों में 80 तक बच्चे बैठा लेते हैं । यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि अधिकांश स्कूलों के लिए निजी बसों को किराए पर ले कर बच्चों की ढुलाई करवाना एक अच्छा मुनाफे का सौदा है। ऐसी बसें स्कूल करने के बाद किसी रूट पर चार्टेड की तरह चलती हैं। तभी बच्चों को उतारना और फिर जल्दी-जल्दी अपनी अगली ट्रिप करने की फिराक में ये बस वाले यह ध्यान रखते ही नहीं है कि बच्चों का परिवहन कितना संवेदनशील मसला होता है। और तो और ऐसे स्कूल कड़ाके की ठंड में भी अपना समय नहीं बदलते हैं, क्योंकि इसके लिए उनकी बसों को देर होगी और इन हालातों में वे अपने अगले अनुबंध पर नहीं पहुंच सकेंगे।
दिलशाद गार्डन तो महज एक उदाहरण है, देश के हर उस शहर में जिसकी आबादी एक लाख के आसपास है, ठीक यही दृश्य देखा जा सकता हैं । यह सवाल उन लोगों का है जो देश का भविष्य कहलाते है। और उम्र के इस दौर में वे जो कुछ देख-सुन रहे हैं, उसका प्रभाव उन पर जिंदगीभर रहेगा । जब वे देखते हैं कि सड़क सुरक्षा या ट्राफिक कानूनों की धज्जियां उनका स्कूल या अभिभावक कैसे उड़ाते हैं तो उन बच्चों से कतई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे देश के कानूनों का सम्मान करेंगे । हां, जरूरत पड़ने पर कुछ नारे जरूर लगा लेंगे ।
ग्रामीण अंचलों में स्कूलों की दूरी, आर्थिक-सामाजिक असमानताएं बच्चों के स्कूल पहुंचने में बाधक कारक रहे हैं । शहरी संस्कृति में लाख बुराईयों के बावजूद यह तो अच्छाई रही है कि यहां बच्चों को स्कूल भेजना, अच्छे से अच्छे स्कूल में भेजना सम्मान की बात माना जता हैं । छोटे शहरों में भी आबादी के लिहाज से सड़कों का सिकुडना तथा वाहनों की बेतहाशा बढ़ौतरी हुई हैं । इसका सीधा असर स्कूल जाने वाले बच्चों की सुरक्षा पर पड़ रहा हैं । पहले बच्चों को अकेले या ‘‘माईं’’ के साथ एक-दो किलोमीटर दूर स्कूल पैदल भेजने में कहीं कोई दिक्कत नहीं होती थी । समय भी दिन में 10 बजे से चार बजे तक का होता था, सो तैयार होने, स्कूल तक पहुंचने के लिए बच्चों के पास पर्याप्त समय होता था । अब तो बच्चों को सुबह छह या साढ़े छह बजे घर से निकलना होता है और घर लौटने में चार बजना मामूली बात हैं । सड़क, ट्राफिक, असुरक्षा के बीच बच्चों के इस तरह ज्ञानार्जन से उनमें एक तरह की कुंठा, हताशा और जल्दबाजी के विकार उपज रहे हैं । शहरों के स्कूलों का परिवहन खर्चा तो स्कूली फीस के लगभग बराबर है और इसे चुकाना कई अभिभावकों को बेहद अखरता हैं ।
जब सरकार स्कूलों में पंजीयन, शिक्षा की गुणवत्ता, स्कूल परिसर को मनेारंजक और आधुनिक बनाने जैसे कार्य कर रही है तो बच्चों के स्कूल तक पहुंचने की प्रक्रिया को निरापद बनाना भी प्राथमिकता की सूची में होना चाहिए । विडंबना है कि केंद्रीय विद्यालयों के बच्चे भी निजी परिवहन के मनमाने रवैये का शिकार हैं । पब्लिक स्कूलों की परिवहन व्यवस्था भी बहुत कुछ निजी आपरेटरों के हाथ में हैं, जिन्हें बच्चों को स्कूल छोड़ कर तुरत-फुरत अपने अगले ट्रिप पर जाना होता है ।
इस दिशा में बच्चों के स्कूल का समय सुबह 10 बजे से करना, बच्चों के अचागमन के लिए सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था करना, स्कूली बच्चों के लिए प्रयुक्त वाहनों में ओवरलोडिंग या अधिक रफ्तार से चलाने पर कड़ी सजा का प्रावधान करना, साईकिल रिक्शा जैसे असुरक्षित साधनों पर या तो रोक लगाना या फिर उसके लिए कड़े मानदंड तय करना समय की मंाग हैं । आज दिल्ली में वैन के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया का सीधा असर बच्चों के अभिभावकों पर पड़ना हैं । नए टैक्सों व कानूनों के कारण बढ़े खर्चे को उन्हें ही भोगता होगा । जाहिर है कि खर्चा कम करने के लिए वे हथकंडे अपनाए जाएंगे जिनसे कानून टूटता हैं ।
सरकार में बैठे लोगों को इस बात को आभास होना आवश्यक है कि बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं तथा उन्हें पलने-बढ़ने-पढ़ने और खेलने का अनुकूल वातावरण देना समाज और सरकार दोनों की नैतिक व विधायी जिम्मेदारी हैं । नेता अपने आवागमन और सुरक्षा के लिए जितना धन व्यय करते हैं, उसके कुछ ही प्रतिशत धन से बच्चों को किलकारी के साथ स्कूल भेजने की व्यवस्था की जा सकती हैं ।
पंकज चतुर्वेदी
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