पर्व-श्रंखला का स्वागत करें पर्यावरण के साथ
ऐसा ही दृश्य देश के हर बड़े-छोटे कस्बों में देखा जा सकता है। गणपति स्थापना तो तो प्रारंभ होता है, इसके बाद दुर्गा पूजा या नवरात्रि, दीपावली से ले कर होली तक एक के बाद एक के आने वाले त्योहार असल में किसी जाति- पंथ के नहीं, बल्कि भारत की सम्द्ध सांस्कृतिक परंपराओं के प्रतीक हैं। विडंबना है कि जिन त्येाहरों के रीति रिवाज, खानपान कभी समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति सभी का क्षरण।
गत एक दशक के दौरान विभिन्न गैरसरकारी संस्थाओं, राज्यों के प्रदुषण बोर्ड आदि ने गंगा, यमुना, सुवर्णरेखा, गोमती, चंबल जैसी नदियों की जल गुणवत्ता का , गणपति या देवी प्रतिमा विसर्जन से पूर्व व पश्चात अध्ययन किए और पाया कि आस्था का यह ज्वार नदियों के जीवन के लिए खतरा बना हुआ है। ऐसी सैंकड़ों रिपोर्ट लाल बस्तों में बंधी पड़ी हैं और आस्था के मामले में दखल से अपना वोट-बैंक खिसकने के डर से षासन धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रहा है।
खूब हल्ला हुआ, निर्देश, आदेश का हवाला दिया गया, अदालतों के फरमान बताए गए, लेकिन गणपति के पर्व का मिजाजा बदलता नहीं दिख रहा है। महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आंध््राप्रदेश व तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात व मप्र के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है। दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित हो रही हैं। यही नहीं मुंबई के प्रसिद्ध लाल बाग के राजा की ही तरह विशाल प्रतिमा, उसी नाम से यहां देखी जा सकती है। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएं प्लास्टर आफ पेरिस से बन रही हैॅ, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है। कुछ राज्य सरकारों ने प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और पूरा बाजार घटिया रासायनिक रंगों से पुती प्लास्टर आफ पेरिस की प्रतिमाओं से पटा हुआ है।
अभी गणेशात्सव का समापन होता ही है कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाती है।यह भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है। हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बनने लगे हैं। बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ जाती है और अब इसी की प्रतिमाएं बनाने की रिवाज शुरू हो गई है। एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान कई लाख प्रतिमाएं बनती हैं और इनमें से 90 फीसदी प्लास्टर आफ पेरिस की होती है। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती है। पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। इससे वातावरण में प्रदूषण का मात्रा के बढ़ने की संभावना बहुत अधिक है। प्लास्टर आफ पेरिस, कैल्शियम सल्फेट हेमी हाइड्रेट होता है जो कि जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट डीहाइड्रेट) से बनता है चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर आफ पेरिस से बनी होती है, उन्हें विषैले एवं पानीे में न घुलने वाले नॉन बायोडिग्रेडेबेल रंगों में रंगा जाता है, इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी की बॉयोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड तेजी से घट जाती है जो जलजन्य जीवों के लिए कहर बनता है। चंद साल पहले मुम्बई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियां पाई गई थीं।
पहले श हरों में कुछ ही स्थान पर सार्वजनिक पंडाल में विशाल प्रतिमांए रखी जाती थीं, लेकिन अब यह चंदा, दिखावा और राजनीति का माध्यम बन गया है सो, जितने खलीफा, उतनी प्रतिमाएं। अंदाजा है कि अकेले मुंबई में कोई डेढ लाख गणपति प्रतिमाएं हर साल समुद्र में विसर्जित की जाती है।ं इसी तरह से कोलकाता की हुबली नदी में ही 15000 से अधिक बड़ी दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन होता है । अनुमान है कि विसर्जित होने वाली प्रतिमाओं में से अधिकांश 15 से 50 फुट ऊंची होती है । बंगाल में तो वसंत पंचमी के अवसर पर सरस्वती पूजा के लिए कोई एक करोड़ प्रतिमांए स्थापित करने और उनको विसर्जित करने की भी रिवाज है। एक तरफ प्रतिमांए व उसमें इस्तेमाल होने वाले रसायनों की मात्रा बढ़ रही है तो दूसरी तरफ जल संसाधनों में जी की मात्रा उथली हो रही है। चूंकि ये पर्व बरसात समाप्त होते ही आ जाते हैं, जुलाई महीने में मछलियों के भी अंडे व बच्चों का मौसम होता है। ऐसे में दुर्गा प्रतिमांओं का सिंदूर, सिंथेटिक रंग, थर्माकोल आदि पानी में घुल कर उसमें निवास करने वाले जलचरों को भी जहरीला करते हैं। बाद में ऐसी ही जहरीली मछलियां खाने पर कई गंभीर रोग इंसान के षरीर में घर कर जाते हैं। यह सभी जानते हैं कि रासायनिक रंग में जस्ता, कैडमियम जैसी धातुएं होती हैं और धातुएँ नष्ट नहीं होतीं। तभी ये धीरे -धीरे भोजन श्रृखंला का हिस्सा बन अनेक बीमारियों यथा मस्तिष्क किडनी और कैंसर का कारण बनती है ।
कुछ समय पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में गंगा और यमुना नदी में मूर्तियां के विसर्जन पर रोक लगाई थी। उसके बाद जिला प्रशासन प्रयास करता है कि नदी-सरिताओं के करीब ही गहरे कुड बना कर उसमें प्रतिमाओं का विसर्जन हो। भारत सरकार के केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने मूर्तियों के विसर्जन के कारण नदियों तथा जलाशयों में भारी धातुओ तथा प्लास्टर ऑफ पेरिस इत्यादि के कारण होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए मार्गदर्शिका जारी की है मार्गदर्शिका के प्राधानों के अनुसार नगरीय निकायों की जिम्मेदारी है कि वे मूर्ति विसर्जन के लिए पृथक स्थान तय करें। लेकिन यह जान लें कि यह तरीका भी धरती की मिट्टी और भूगर्भ जल को इतना दूशित करने वाला है कि इससे बर्बाद जमीन व जल का कोई निदान नही नहीं है।
सवाल खड़ा होता है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहर की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे ! क्या छोटी प्रतिमा बना कर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीेके से करके अपनी आस्था और परंपरा को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता ? प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग तो किए जा सकते हैं पूजा सामग्री में प्लास्टिक या पोलीथीन का प्रयोग वर्जित करना, फूल- ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबा कर उसका कंपोस्ट बनाना, चढ़ावे के फल , अन्य सामग्री को जरूरतमंदों को बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साघारण से प्रयोग हैंं ; जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण व उससे उपजने वाली बीमारियांे पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं। पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह व उमंग का संचार करने के और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की
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