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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

eco friendly ganesh

बदलने लगा है गणपति पूजा का तरीका

पंकज चतुर्वेदी

कुछ साल पहले मिट्टी और अन्य प्राकृतिक वस्तुओं से बने ऐसी गणपति प्रतिमाओं की बहुत चर्चा हुई थी जो एक गमले के आकार में होते हैं और विसर्जन के समय उन पर जल डालने पर उनमें दबे बीज कुछ दिनों में पौधे के रूप में विकसित हो जाते हैं। यह प्रयोग इंदौर के पत्रकार सुबोध खंडेलवाल ने किया और देश भर के लोगों ने उसे अपनाया। इस साल गोवा में कच्चे केले से बने गणपति सोशल मीडिया पर छाये हुए हैं। विसर्जन के दिन तक ये केले पक जाएंगे और इनका प्रसाद भक्तों में बांटा जाएगा। गोवा में ही बांस के गणपति भी लोगों को लुभा रहे हैं। मुंबई में एक संस्था ने विसर्जन के बाद समुद्र में मौजूद मछलियों का ध्यान रखते हुए 'फिश-फ्रेंडली' सामग्री से गणपति प्रतिमा बनायी है। मुंबई के कुर्ला में 300 किलो बर्फ के गणपति का प्रयोग महंगा तो है, लेकिन है अनूठा। लुधियाना में सिख बंधुओं का चॉकलेट गणपति का प्रयोग भी दूसरों के लिए प्रेरणादायक है। यहां तैयार चॉकलेट की गणेश प्रतिमा को विर्सजन के दिन दूध में घोल दिया जाता है और यह दूध शहर के गरीब बच्चों को पिला दिया जाता है। अहमदाबाद में एक गणपति प्रतिमा नारियल से तैयार की गयी है। 
बेंगलुरु में गन्ना-गणेश लोगों को बहुत आकर्षित कर रहे हैं। केवल गन्ने से तैयार इस प्रतिमा को प्रसाद के रूप में पाने के लिए लोगों ने अभी से अपना नंबर लगा रखा है। यहां गन्ना सीधे किसान से उसके मनमाफिक दाम पर खरीदा गया और फिर उसे प्रतिमा का स्वरूप दिया गया। पुणे के विवेक कांबले के पर्यावरण मित्र गणपति का सलीका तो पूरे देश को अपनाना चाहिए। वह फिटकरी के बड़े से क्रिस्टल को तराशकर गणपति बनाते हैं। विसर्जन के समय जिस जल-निधि में फिटकरी की इतनी बड़ी मात्रा मिलती है, वहां का पानी खुद-ब-खुद साफ हो जाता है। इसी तरह शक्कर और गुड़ की गणेश मूर्तियां भी कई जगहों पर स्थापित की गयी हैं। इन्हें विसर्जन के दिन पानी में घोलकर भक्तों को वितरित किया जाता है। कुछ जगह इसका हलुआ भी बनता है। मलाड, मुंबई के मसाला-गणपति भी अपने आप में अनूठे हैं। नौ किलो लौंग, 20 किलो दाल चीनी, छह किलो मिर्ची, एक किलो सरसों व कुछ अन्य मसाले मिलाकर बनायी गयी यह प्रतिमा बेहद चटकीले रंगों से सजी दिखती है। अंतिम दिन इन मसालों से खिचड़ी बनती है।
ये सारी खबरें देश के भिन्न-भिन्न कोनों की हैं जो समाज में फैल रही पर्यावरण चेतना के बारे में बहुत कुछ कहती हैं। ये खबरें बताती हैं कि परंपरागत उत्सवों के उत्साह और उनकी रौनक से कोई समझौता किये बगैर लोग धार्मिक आयोजनों को नया रूप देने के लिए आगे आ रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये लोग किसी नए चलन के पीछे नहीं भाग रहे, बल्कि अपने-अपने तरीके से अपने इलाके में उपलब्ध सामग्री से पर्यावरण की समस्या का समाधान तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। वे ऐसे रास्ते खोज रहे हैं जिससे गणपति पूजा भी हो रही है और उससे पर्यावरण को कोई नुकसान भी नहीं हो रहा है। सच तो यह है कि परंपरागत रूप से गणपति पूजन ऐसा आयोजन था भी नहीं जो प्रकृति को कोई नुकसान पहुंचाता हो। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे कुदरती रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। गाय के गोबर से भी भगवान गणेश की प्रतिमाएं बनती रही हैं लेकिन बाद में चीजें बदल गयीं। मिट्टी की जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस का इस्तेमाल होने लगा और सस्ते सिंथेटिक रंगों की सहज उपलब्धता के बाद शुरू में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि लेड से बने ये रंग अंत में हमारे लिए ही नुकसानदायक होंगे।
ये प्रतिमाएं कितनी नुकसानदायक हैं, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अभी दो महीने पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के करबला तालाब की सफाई व इसे गहरा करने का काम जब शुरू हुआ, तो उसकी गाद के नीचे सैकड़ों गणपति प्रतिमाएं यथावत मिलीं। रासायनिक रंगों से सज्जित और प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी से प्रतिमाएं तालाब में दस महीने बाद भी ठीक से घुल नहीं पायीं। कुछ राज्य सरकारों ने ऐसी मूर्तियों के इस्तेमाल पर चेतावनियां भी जारी कीं लेकिन इसके आगे कुछ नहीं हुआ। चेतावनी के आगे कोई कदम उठाना आसान भी नहीं था। महाराष्ट्र और उससे सटे गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात एवं मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणेशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है। उम्मीद करनी चाहिए कि पर्यावरण हितैषी गणपति प्रतिमाओं की यह परंपरा भी ऐसे ही पूरे देश में विस्तार पाएगी और दुर्गापूजा जैसे आयोजनों के लिए भी प्रेरणा का काम करेगी।
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