खोदते-खोदते खो रहे हैं पहाड़
पंकज चतुर्वेदी
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठा कर ले गए? तब सभी जागरूक लोग चौंके कि इतनी सारी पांबदी के बाद भी अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है। असल में जब तक कोई पर्यावरणीय खतरा दिल्ली पर नहीं मंडराता, उसे गंभीरता से लिया नहीं जाता। जान लें कि गुजरात के खेड ब्रह्म से षुरू हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असर में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे ऐक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 07 मई 1992 को जारी किया गया। फिर सन 2003 में एमाी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई ओदश आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कोलेनी बना दी गई। अब जब दिल्ली में गरमी के दिनों में पाकिस्तान से आ रही रेत की मार व तपन ने तंग करना षुरू किया तब यहां के सत्तधारियों को पहाड़ी की चिंता हुई। देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया है कि वह 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल राजस्थान के 1करीब 19 जिलों में अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदाने है। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था. इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निशिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है उसे अरावली माना गया. इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए. अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट यदि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा।
हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताल-तलैयों के तट पर बस्तियां बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गांव को देखंे, जहां नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़े के निचले हिस्से में झील व उसके घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्शा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख लीथी। छतरपुर षहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक षहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बूटियां थी, पंक्षी थे, जानवर थे। जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरियाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गरमी में भी वहां की षाम ठंडी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब। बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है, अब वहां पक्की सडक डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहां जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही हाड़ काट लिया। यह कहानी देश के हर कस्बे या उभरते शहर की है, किसी को जमीन चाहिए थी तो किसी को पत्थर तो किसी को खनिज; पहाड़ को एक बेकार, बेजान संरचना समझ कर खोद दिया गया। अब समझ में आ रहा है कि नष्ट किए गए पहाड़ के साथ उससे जुड़ा पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट हो गया है।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए , जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी। सतपुडा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाई वे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को षातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुडते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की षक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुश्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विशय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं। यदि गंभीरता से देखें तो लालची मनुष्य के निए फिलहाल पहाड़ का छिन्न-भिन्न होता पारिस्थिति तंत्र चिंता का विषय ही नहीं है। इसका विमर्श कभी पाठ्य पुस्तकों में होता ही नहीं हैं।
यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना। विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बउ़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों ेक निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। यही नहीं जिन पहाड़ों पर इमारती पत्थर या कीमती खनिज थे, उन्हें जम कर उजाड़ा गया और गहरी खाई, खुदाई से उपजी धूल को कोताही से छोड़ दिया गया। राजस्थान इस तरह से पहाड़ों के लापरवाह खनन की बड़ी कीमत चुका रहा है। यहां जमीन बंजर हुई, भूजल के स्त्रोत दूषित हुए व सूख गए, लोगों को बीमारियां लगीं व बारिश होने पर खईयों में भरे पानी में मवेशी व इंसान डूब कर मरे भी।
आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उदगम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियेां का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।
पंकज चतुर्वेदी
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठा कर ले गए? तब सभी जागरूक लोग चौंके कि इतनी सारी पांबदी के बाद भी अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है। असल में जब तक कोई पर्यावरणीय खतरा दिल्ली पर नहीं मंडराता, उसे गंभीरता से लिया नहीं जाता। जान लें कि गुजरात के खेड ब्रह्म से षुरू हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असर में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे ऐक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 07 मई 1992 को जारी किया गया। फिर सन 2003 में एमाी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई ओदश आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कोलेनी बना दी गई। अब जब दिल्ली में गरमी के दिनों में पाकिस्तान से आ रही रेत की मार व तपन ने तंग करना षुरू किया तब यहां के सत्तधारियों को पहाड़ी की चिंता हुई। देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया है कि वह 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल राजस्थान के 1करीब 19 जिलों में अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदाने है। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था. इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निशिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है उसे अरावली माना गया. इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए. अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट यदि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा।
हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताल-तलैयों के तट पर बस्तियां बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गांव को देखंे, जहां नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़े के निचले हिस्से में झील व उसके घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्शा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिश की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख लीथी। छतरपुर षहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक षहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बूटियां थी, पंक्षी थे, जानवर थे। जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरियाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गरमी में भी वहां की षाम ठंडी होती और कम बारिश होने पर भी तालाब लबालब। बीते चार दशकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है, अब वहां पक्की सडक डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहां जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही हाड़ काट लिया। यह कहानी देश के हर कस्बे या उभरते शहर की है, किसी को जमीन चाहिए थी तो किसी को पत्थर तो किसी को खनिज; पहाड़ को एक बेकार, बेजान संरचना समझ कर खोद दिया गया। अब समझ में आ रहा है कि नष्ट किए गए पहाड़ के साथ उससे जुड़ा पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट हो गया है।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए , जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी। सतपुडा, मेकल, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाई वे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को षातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुडते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की षक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुश्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विशय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं। यदि गंभीरता से देखें तो लालची मनुष्य के निए फिलहाल पहाड़ का छिन्न-भिन्न होता पारिस्थिति तंत्र चिंता का विषय ही नहीं है। इसका विमर्श कभी पाठ्य पुस्तकों में होता ही नहीं हैं।
यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना। विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बउ़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों ेक निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। यही नहीं जिन पहाड़ों पर इमारती पत्थर या कीमती खनिज थे, उन्हें जम कर उजाड़ा गया और गहरी खाई, खुदाई से उपजी धूल को कोताही से छोड़ दिया गया। राजस्थान इस तरह से पहाड़ों के लापरवाह खनन की बड़ी कीमत चुका रहा है। यहां जमीन बंजर हुई, भूजल के स्त्रोत दूषित हुए व सूख गए, लोगों को बीमारियां लगीं व बारिश होने पर खईयों में भरे पानी में मवेशी व इंसान डूब कर मरे भी।
आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देश में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उदगम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियेां का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।
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