अरावली पर मंडराता संकट
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया है कि वह अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल राजस्थान के करीब 19 जिलों में अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदाने है। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था जिसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन निषिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है उसे अरावली माना गया। इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट यदि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा।
हजारों-हजार साल में गांव-शहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होती थी। किसी भी आंचलिक गांव को देखंे जहां नदी का तट नहीं है वहां कुछ पहाड़, पहाड़ के निचले हिस्से में झील व उसे घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। अब समझ में आ रहा है कि नष्ट किए गए पहाड़ के साथ उससे जुड़ा पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट हो गया है।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी। सतपुड़ा, पश्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमाला लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाइवे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थव्यवस्था, आस्था, विश्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक न जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुड़ते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की शक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छेड़छाड़ के भूगर्भीय दुष्परिणाम उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणो जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, जिसे बनाने में वहां की पहाड़ियों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विषय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं।
यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न व जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘पहाड़’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना। विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांवों-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों और उनके लिए सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेशियर के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उद्गम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली न होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है।
पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेशियों का चारागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ करना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।
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