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गुरुवार, 8 नवंबर 2018

Crackers ; Neither bother judiciary nor prime minister

   न कोर्ट की सुनी, न प्रधानमंत्री की


सुप्रीम कोर्ट ने आम लेागों की भावनाओं का खयाल रखकर केवल दो घंटे और कम नुकसान पहुंचाने वाली आतिशबाजी को चलाने की अनुमति प्रदान की थी, लेकिन दीपावली की रात राजधानी दिल्ली व उसके आसपास न तो समय की परवाह रही और न ही खतरनाक आतिशबाजी का खयाल। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के कार्यान्यवन के लिए स्थानीय प्रशासन और पुलिस को जिम्मेदार बताया था। जाहिर है कि न तो कोई शिकायत करेगा और न ही गवाही देगा। साफ है कि देश के दूरस्थ अंचलों में तो कोई रोक रही ही नहीं होगी। बीते एक महीने से दिल्ली एनसीआर की आवोहवा जहरीली होने पर हर दिन अखबार लोगों को चेता रहे हैं। जिनके घर में कोई सांस का मरीज, दिल की बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति या पालतू जानवर है, वे तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उम्मीद लगाए बैठे थे, लेकिन ऐसी विचारधारा के लोग जो धर्म-आस्था को देश से ऊपर मानते हैं, उन्होंने बाकायदा अभियान चला कर अधिक से अधिक लोगों को आतिशबाजी चलाने के लिए प्रेरित किया।

चार साल पहले दीवाली के कोई सप्ताह पूर्व ही प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत अभियान की पहल की थी, निहायत सामाजिक पहल, अनिवार्य पहल और देश की छवि दुनिया में सुधारने की ऐसी पहल जिसमें एक आम आदमी भी भारत-निर्माण में अपनी सहभागिता बगैर किसी जमा-पूंजी खर्च किए दे सकता था। तब पूरे देश में झाडू लेकर सड़कों पर आने की मुहिम सी छिड़ गई। नेता, अफसर, गैर-सरकारी संगठन, स्कूल, हर जगह सफाई अभियान की ऐसी धूम रही कि बाजार में झाड़ुओं के दाम आसमान पर पहुंच गए। उस अपील के कोई 14 सौ दिन बाद दीपावली आई, हर घर में साफ-सफाई का पर्व। कहते हैं कि जहां गंदगी होती है, वहां लक्ष्मी जी जाती नहीं हैं, सो घरों का कूड़ा सड़कों पर डालने का दौर चला। हद तो दीपावली की रात को हो गई, गैर-कानूनी होने के बावजूद सबसे ज्यादा आतिशबाजी इस रात चली। सुबह सारी सड़कें जिस तरह गंदगी, कूड़े से पटी थीं, उससे साफ हो गया कि हमारा सफाई अभियान अभी दिल-दिमाग से नहीं केवल मुंह जबानी खर्च पर ही चल रहा है।
'लैंसेट जर्नल' में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2015 में वायु, जल और दूसरे तरफ के प्रदूषणों की वजह से भारत में 25 लाख लोगों ने जान गंवाई। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पाबंदी वाली रात के बाद आंकड़े जारी कर बताया कि गुरुवार सुबह छह बजे अलग-अलग जगहों पर प्रदूषण का स्तर अपने सामान्य स्तर से कहीं ज्यादा ऊपर था। यहां तक कई जगहों पर यह 24 गुना से भी ज्यादा रिकॉर्ड किया गया है। पीएम 2.5 का स्तर पीएम 10 से कहीं ज्यादा बढ़ा हुआ था। पीएम 2.5 वे महीन कण हैं, जो हमारे फेफड़े के आखिरी सिरे तक पहुंच जाते हैं और कैंसर की वजह बन सकते हैं। चिंता की बात यह है कि पीएम 2.5 का स्तर दिल्ली के इंडिया गेट जैसे इलाकों में जहां हर रोज सुबह कई लोग आते हैं, वहां 15 गुने से भी ज्यादा ऊपर पाया गया।
यह अब सभी जानते हैं कि आतिशबाजी से लोगों के सुनने की क्षमता प्रभावित होती है, उससे निकले धुएं से हजारों लोग सांस लेने की दिक्कतों के स्थाई मरीज बन जाते हैं, पटाखों का धुआं कई महीनों का प्रदूषण बढ़ा जाता है। इसको लेकर स्कूली बच्चों की रैली, अखबारी विज्ञापन, अपील आदि का दौर चलता रहा है। दुखद बात यह है कि झाड़ू लेकर सफाई करने के फोटो अखबार में छपवाने वालों ने पटाखों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को 'धर्म-विरोधी' बताया। हकीकत तो यह है कि कई साल भी पहले सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि रात 10 बजे के बाद आतिशबाजी न हो, क्योंकि इससे बीमार लोगों को असीम दिक्कतें होती हैं। धमाकों की आवाज को लेकर भी 80 से 100 डेसीमल की सीमा है, लेकिन दस हजार पटाखों की लड़ी या 10 सुतली बम एक साथ जलाकर अपनी आस्था या खुशी का इजहार करने वालों के लिए कानून-कायदे कोई मायने नहीं रखते।

चीन से आए गैर-कानूनी पटाखों को चलाने में न तो देश-प्रेम आड़े आया और न ही वैचारिक प्रतिबद्धता। गुरुवार सुबह कुछ लोग सफाई कर्मचारियों को कोसते रहे कि सड़कों पर आतिशबाजी का मलवा साफ करने वे सुबह जल्दी नहीं आए, यह सोचे बगैर कि वे भी इंसान हैं और उन्होंने भी दीवाली मनाई होगी। यह बात लोग समझते ही नहीं कि हमारे देश में सफाई से बड़ी समस्या अनियंत्रित कूड़ा है। पहले कूड़ा कम करने के प्रयास होने चाहिए, साथ में उसके निस्तारण के। दीवाली के धुएं व कूड़े ने यह बात तो सिद्ध कर दी है कि अभी हम मानसिक तौर पर प्रधानमंत्री की अपील के क्रियान्वयन व अमल के लिए तैयार नहीं हुए हैं। जिस घर में छोटे बच्चे, पालतू जानवर या बूढ़े व दिल के रोग के मरीज हैं, जरा उनसे जाकर पूछें कि परंपरा के नाम पर वातावरण में जहर घोलना कितना पौराणिक, अनिवार्य तथा धार्मिक है। एक बात और, भारत में दिवाली पर पटाखे चलाने की परंपरा भी डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं है और इस दौर में कुरीतियां भंग भी हुईं व नई बनी भीं, जिन्हें परंपरा तो नहीं कहा जा सकता।

शायद यह भारत की रीति ही है कि हम नारे तो जोर से लगाते हैं लेकिन उनके जमीनी धरातल पर लाने में 'किंतु-परंतु' करने लगते हैं। कहा गया कि भातर को आजादी अहिंसा से मिली, लेकिन जैसे ही आजादी मिली, दुनिया के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक विभाजन के दौरान घटित हो गया और बाद में अहिंसा का पुजारी हिंसा के द्वारा ही गोलोक गया। यहां शराब नहीं बेची जाती या दूरदृष्टि-पक्का इरादा, अनुशासन ही देश को महान बनाता है या फिर छुआछूत, आतंकवाद, सांप्रदायिक सौहार्द या पर्यावरण या फिर बेटी बचाओ, इन सभी पर अच्छे सेमीनार होते हैं, नारे गढ़े जाते हैं, जलसे होते हैं, लेकिन उनकी असलियत दिवाली पर हुई हरकतों से उजागर होती है। हर इंसान चाहता है कि देश में बहुत से शहीद भगत सिंह पैदा हों, लेकिन उनके घर तो अंबानी या धोनी ही आएं, पड़ोस में ही भगत सिंह जन्म लें, जिसके घर हम कुछ आंसू बहाने, नारे लगाने या स्मारक बनाने जा सकें। जब तक खुद दीप बनकर जलने की क्षमता विकसित नहीं होगी, तब तक दीया-बाती के बल पर अंधेरा जाने से रहा। दिवाली की रात चले पटाखे बता रहे हैं कि अभी हमारे दिमाग में अंधेरा कायम है।

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