मेरी नयी किताब-"आस्था, लोक और पर्यावरण " बाज़ार में आ गयी है, इस पुस्तक में हमारे पर्व, समाज कि मान्यताओं में छुपे पर्यावरण संरक्षण के सूत्र और पर्वों के बाज़ार बनने से नष्ट उनकी मूल आत्मा जैसे मसलों को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया है
वैसे इसका मूल्य हार्ड बाउंड का तीन सौ पच्चीस रु 325 है , लेकिन अभी इसे मंगवाने का आदेश देने पर इसकी कीमत मय डाक व्यय के रु200.00 मात्र होगी , उम्मीद है पर्यावरण, समाज, प्रक्रति, परिवेश के बारे में जानने के इच्छुक इसे अवश्य खरीदेंगे . इसके लिए "परिकल्पना प्रकाशन , लक्ष्मी नगर , दिल्ली" के श्री शिवानंद जी से संपर्क किया जा सकता हैं - फोन - 9968084132, email -parikalpana.delhi2016@gmail.com
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एक बात और जिन साथियों ने पहले प्रकाशक को भुगतान किया और उन्हें पुस्तक नहीं मिली हो तो वे अपना पता मेरे इनबॉक्स में भेज दें।
दिनांक २ अक्तूबर २०१८ /आज के "जनसत्ता" में मेरी पुस्तक पर विमर्श
लोक, आस्था और पर्यावरण
जिस तरह से ‘विकास’ एक नई अवधारणा है, ठीक उसी तरह पर्यावरण संरक्षण भी एक नए जमाने की समस्या है। विकास, प्रगति का उत्प्रेरक तत्व है, लेकिन इसका मूल महज आर्थिक तत्व नहीं है, बल्कि गुणात्मक उन्नति है। मुल्क के हर बाशिंदे, चाहे वो इंसान हो या फिर जीव-जंतु, साफ हवा मिलें सांस लेने के लिए, नदी-तालाब, समुद्र स्वच्छ हो, लाखों-लाख किस्म के पेड़-पौधे, कीट-पतंगे, जानवर-पक्षी उन्मुक्त होकर अपने नैसर्गिक स्वरूप में जीवन यापन कर रहे हों- एसा विकास ही जनभावनाओं की संकल्पना होता है। विडंबना है कि भौतिक सुख की बढ़ती लालसा और कथित विकास की अवधारणा ने एक भयानक समस्या को उपजाया और फिर उसके निराकरण के नाम पर अपनी सारी ऊर्जा और संचय शक्ति तथा धन व्यय कर दिया।
हमारे प्राचीनतम ग्रंथ और सदियों से आदिवासी व लोक में प्रचलित धारणाओं को गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि हमारे पुरखों की सीख, पर्व, उत्सव और जीवन शैली उसी तरह की थी कि सारा विश्व और उसके प्राणी सहजता से जीवन जी सकें, न तो कोई बीमार हो, न ही कोई भूखा। इसके लिए अनिवार्य था कि जल, वायु और भोजन निरापद हो।
यह पुस्तक हमारे पर्व-त्योहारों की मूल भावना और उसमें आए परिवर्तनों से उपजते सामाजिक व पर्यावरणीय विग्रह की बात तो करती ही है, हमारे गांव-जंगलों में रहने वाले पुरखों की ऐसी परंपरा पर भी विमर्श करती है, जिसे आज का कथित साक्षर समाज भले ही पिछड़ापन कहे, असल में उसके पीछे गूढ़ वैज्ञानिक चेतना और तार्किक अनुभव थे।
लोक, आस्था और पर्यावरण : पंकज चतुर्वेदी; परिकल्पना, बी-7, सरस्वती कांप्लेक्स, तृतीय तल, सुभाष चौक, लक्ष्मीनगर, दिल्ली; 325 रुपए।
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