जो हाथ कांवड़ियों पर हेलीकाप्टर से पुष्प वर्षा कर रहे थे, उनके कंधे पर उनके ही जांबाज अफसर का शव था
एक दशक से बुना जा रहा है पश्चिमी उप्र को सांप्रदायिक बनाने का जाल...
जो हाथ अभी कुछ महीनों पहले उन कांवड़ियों पर हेलीकाप्टर से पुष्प वर्षा कर रहे थे, यह जानते हुए भी कि इनमें से बड़ी संख्या बेरोजगार, उन्मादी, दंगाई और धर्म-घ्वजा थाम कर सड़क पर ऊधम करने वालों की है, आज उनके कंधे पर उनके ही एक जांबाज अफसर का शव था।
बुलंदशहर के स्याना में भीड़ बामुश्किल चार सौ की थी, पुलिस फोर्स था, लेकिन उन पुलिस वालों को यह भरोसा नहीं था कि यदि उन्होंने इस भीड़ को विधि सम्मत तरीके से नियंत्रण करने का प्रयास किया तो उनके बदन पर वर्दी बचेगी भी कि नहीं।
यह बानगी नहीं,चरम है इस बात का कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में सांप्रदायिकता का आत्मघाती असर पूरी तरह छा गया है। हथियार, निरंकुशता और सियासती प्रश्रय के जहर में रची-पगी भीड़ को सुलगाना-भड़काना और हिंसक बनाना बेहद सहज हो गया है।
अतिशियोक्ति नहीं होगा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक हालात बदतर हैं। अभी छह साल पुराने मुजफ्फरनगर दंगे के घाव हरे हैं, अभी दलित नेता रावण और बजरंगी किस्म के हिंदुत्व वालों के टकराव की राख के नीचे चिंगारियां बरकरार हैं। अभी अखलाक की मॉब लिंचिंग के बाद जेल गए लोगों का बदला लेने के अरमान जवान हैं।
आग को सुलगाने की गहन तैयारी तो बीते एक दशक से चल रही थी, हुक्मरानों को भी खबर थी कि मुल्क की राजधानी दिल्ली से सटे इलाकों में सबकुछ उतना खुशहाल, शांत और सहज नहीं है जितना ऊपरी तौर पर दिख रहा था।
गंगा-यमुना के बीच के उपजाऊ पठार के गांव-गांव विद्वेष, अफवाहों, साजिशों की चपेट में आ चुके हैं। अगस्त-सितंबर 2013 में पश्चिम उत्तर प्रदेश के शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत आदि जिलों में कई दिनों तक जब दंगे हुए थे, तब उजागर हो चुका था कि पूरे इलाके में नफरत की फसल लहलहा रही थी। वह देश का ऐसा सबसे बड़ा दंगा था जिसने कई हजार परिवारों को अपने घर-जमीन-गांव से पलायन करने को मजबूर कर दिया था। उसके बाद अविश्वास की खाई इतनी गहरी हो गई है कि वे लोग जो सन 47 में विभाजन के समय ताकत से यह कहते हुए खड़े थे कि हमारा मादरे-वतन यही है और हम वहां क्यों जाएं, वे भी घरों से दूर कहीं चले गए। लगभग 45 हजार लोगों के पलायन का कारण बना वह दंगा, लगभग बिसरा दिया गया। उसके बाद कैराना में सांप्रदायिक आधार पर पलायन की खबरें उछलीं व बाद में असत्य साबित हुई।
यह राजनीतिक दल जान गए थे कि केंद्र और राज्य की सत्ता पर काबिज होने के लिए उ.प्र और उसमें भी उ.प्र बेहद अहम है। चौधरी चरण सिंह और महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे व्यापक और सभी संप्रदाय में मान्य नेताओं का अभाव उनकी आकांक्षाओं के लिए सकारात्मक साबित हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जो इलाका कभी चीनी की चााशनी के लिए मशहूर था, आज नफरत, हिंसा, अमानवीयता की मंद-मंद आग से तप रहा है। भले ही 2013 के दंगों की लपटें समाप्त दिख रही हैं, लेकिन उसके दूरगामी दुश्परिणाम समाज शिद्दत से महसूस कर रहा है। विडंबना है कि अविश्वास, गुरबत और सामाजिकता के छिन्न-भिन्न होने का जो सिलसिला सितंबर-2013 में शुरू हुआ था वह दिनों-दिन गहराता जा रहा है। सरकार व समाज दोनों की राहत की कोशिशें कहीं पर घाव को गहरा कर रहे हैं।
मुजफ्फरनगर और उसके करीबी पांच जिलों में आंचलिक गांव तक फैली दंगे के दावानल को आजादी के बाद उ.प्र. का सबसे बड़ा दंगा कहा गया, जिसमें कोई एक लाख लोग घर-गांव से पलायन करने को मजबूर हुए। अब सामने दिख रहा है कि ना तो इसे अपराध के तौर पर और ना ही सामाजिक समस्या के रूप में आकलन व निवारण के प्रयास करने में सरकारी मशीनरी विफल रही है।
बीते दस सालों से पश्चिमी उ.प्र के खेत परिवारों के विस्तार के चलते घटते गए। बड़ी संख्या में किसानों ने अपनी जमीने बेचीं भी और हजारों एकड़ खेत विकास के नाम पर अधिग्रहित किए गए। इसका परिणाम था कि गांव-गांव में बेरोजगार युवकों की फौज तैयार होती रही। एक तरफ इसी इलाके में मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा आध्यात्मिक और शैक्षिक केंद्र देवबंद भी है। यहां भी यदा-कदा भड़काऊ हरकतें होती रही हैं। भले ही कोई इसे सियासत कहे, लेकिन उस समय राहुल गांधी ने आगाह किया था कि इस इलाके के दंगा पीड़ित देश-विरोधी ताकतों के हाथ जा सकते हैं। हुआ भी, आतंकवाद और पाकिस्तान से जासूसी के कई आरोपी इसी इलाके से पकड़े गए।
सियासी जमीन पर अपनी मजबूत इमारत खड़ा करने को लालायित संगठन के ‘सांस्कृतिक प्रकोष्ठ’ ने इलाके के गांव-गांव में अपने कार्यकर्ता स्थाई रूप से नियुक्त कर दिए गए। सामुदायिक रूप से पर्व मनाना, राखी जैसे त्योहारों पर ‘रक्षा-सूत्र’ बांधने के आयोजन, साल में कम से कम तीन गांव स्तर के सम्मेलन आयोजित करना, हथियारों का प्रशिक्षण चलता रहा। विडंबना है कि पिछली राज्य सरकार के खुफिया पन्नों पर यह रिपोर्ट दर्ज थी, लेकिन मसले को संवेदनशील बता कर उस पर कार्यवाही करने से बचा जाता रहा। धर्म-रक्षा, गौर रक्षा, लव-जेहाद, देवबंद को आतंकी प्रशिक्षण स्थल बताना जैसे मसलों पर हर दिन विमर्श, सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर ऐसे वीडियो का प्रसारण, नए लड़कों को नए-नए संगठनों में पद दे कर उनको फ्लेक्स बैनर के माध्यम से चौक-चौराहों पर मशहूर करना, ऐसे लोगों को नेताओं के साथ बैठाना, ऐसे कई प्रयोगों के द्वारा ऐसी पूर्णकालीक भीड़ तैयार कर ली गई जो धर्म-संप्रदाय के नाम पर किसी को भी मरने- मारने से नहीं हिचकती। दंगों के बाद इस भीड़ ने गवाहों को धमका कर खूब केस बंद करवाए।
अखलाक की भीड़-हत्या के बाद राजनीतिक दखल, एक हत्यारोपी की मौत पर उसकी लाश को मंत्रियों की मौजूदगी में तिरंगे से नवाजने और ऐसे संगठनों को परोक्ष-अपरोक्ष पैसा मिलने के चलते ये बेखौफ और निरंकुश हो चुके हैं।
एक दरेागा को सरेआम दिन में गोली मारना, थाने में आग लगा देना, दरोगा की पिस्तौल लूट लेना साक्षी हैं कि इलाके में धर्म-ध्वजा वाहकों के हौसलें कितने बुलंद हैं। यह भी सच है कि पश्चिमी उ.प्र. के लगभग सभी जिलों में मुस्लिम लड़कों की गुडागिर्दी चलती है, लेकिन जितने भी बड़े गिरोह हैं उनके सरदार हिंदू हैं।
धर्म या संप्रदाय नहीं दंगों की जड़, बल्कि आर्थिक-सामाजिक कारण हैं।
यह भी समझ लेना चाहिए कि दंगों की जड़ धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि आर्थिक-सामाजिक कारण हैं। मुसलमान ना तो नौकरियों में है ना ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं।
यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद मुसलमानों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है। भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीड़ी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा..., जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जले, उनमें कुटीर उद्योग चौपट हुए।
एस. गोपाल की पुस्तक ‘‘द एनोटोमी ऑफ द कन्फ्रंटेशन’’ में अमिया बागछी का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्र सहारा है। (प्रिडेटरी कर्मशलाईजेशन एंड कम्यूनिज्म इन इंडिया)।
गुजरात में दंगों के दौरान मुसलमानों की दुकानों को आग लगाना, उनका आर्थिक बहिष्कार आदि गवाह है कि दंगे मुसलमानों की आर्थिक गिरावट का सबसे कारण हैं। यह जान लें कि उ.प्र. में मुसलमानों के पास सबसे ज्यादा व सबसे उपजाऊ जमीन और दुधारू मवेशी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हैं।
सांप्रदायिक विद्वेष मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है। हां, एक बात तय है कि जो अल्पसंख्यक होता है, उसमें असुरक्षा की भावना होती है और जो असुरक्षित महसूस करता है वह आक्रामक हो जाता है। इसीलिए जब दंगे होते हैं तो मुसलमान कुछ मुखर दिखते हैं, लेकिन अंत में जान-माल का अधिक नुकसान भी उनका होना दिखता है।
पश्चिमी उप्र के गांवों में अवैध हथियारों के लिए व्यापक तलाशी, वहां से ऐसे बाहरी लोगों को चिन्हित करना जो कि अभी एक दशक से वहां आ कर बसे हैं और मंदिर, पीठ, मजार के नाम पर समाज में अपनी पैठ बना रहे हैं, युवाओं को रोजगार के अवसर देना, इलाके में सोशल मीडिया अफवाहों पर त्वरित कार्यवाही करने के लिए विशेष योजना जरूरी है। वरना वह दिन दूर नहीं यहां कबीलों जैसे उन्मुक्त हालात न बन जाएं।
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