यह जाम और जहर तो हमने ही उपजाया है !
पंकज चतुर्वेदी
यूं तो बढ़ते औद्योगिकीकरण ने प्रदूषण, खासकर वायु प्रदूषण को हमारे जीवन पर सदा छाया रहने वाला संकट बना दिया है, लेकिन ठंड के मौसम में इसमें विशेष इजाफा होता है। देश की राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक राजधानी दिल्ली में पिछले कुछ सालों से यह मौसम भारी खतरे के साथ आता है, लेकिन इससे निपटने के लिए राज्य और केन्द्र की सरकारें और समाज क्या कर रहे हैं ? प्रस्तुत है, इस विषय पर गहराई से प्रकाश डालता पंकज चतुर्वेदी का यह लेख। संपादक।
दो साल पहले नवंबर में ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि राजधानी की सड़कों पर ट्रैफिक जाम ना लगे, यह बात सुनिश्चित की जाए। एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा था कि यातायात धीमा होने या फिर लाल बत्ती पर अटकने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन जाया होता है, जिससे दिल्ली की हवा दूषित हो रही है।
सारा समाज और सरकार दिल्ली में घुटते दम पर बयानबाजी या चिंता तो जाहिर कर रहे हैं, लेकिन एनजीटी के उक्त महत्वपूर्ण आदेश का कभी गंभीरता से पालन ही नहीं किया गया। जो नवंबर सबसे जहरीला है, उसी नवंबर में दिल्ली के बीचों-बीच कम-से-कम पांच अलग-अलग धर्मों और मत के ऐसे विशाल जुलूस निकाले गए जिनसे समूची दिल्ली की यातायात व्यवस्था तहस-नहस हुई और जाम लगे। इसी नवंबर महीने में सरकार मध्य दिल्ली में ही दो बार मैराथान दौड़ के आयोजन कर सड़कों पर डायवर्सन और जाम को न्यौता दे चुकी है।
अभी एक दशक पहले तक चीन की राजधानी पेईचिंग में अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी मैदान बीच शहर में ही था। जब स्थानीय सरकार को समझ आया कि सालभर चलने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों से बीच शहर में जाम लगने लगा है तो शहर से कोई 25 किलोमीटर दूर डांगचेंग में एक विशाल प्रदर्शनी स्थल बनाया गया। उससे पहले वहां मेट्रो सेवा, अंतरराष्ट्रीय होटल, मॉल आदि भी तैयार कर दिए गए। वर्ष 2011 के बाद से सभी अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियां वहीं लगने लगीं।
इसके विपरीत दिल्ली में पूरी तरह से टूटे-फूटे प्रगति मैदान में ‘ट्रेड फेयर’ यानि व्यापार मेला लगाया जा रहा है और एनजीटी से कुछ ही दूर स्थित प्रगति मैदान की सड़कें पूरा दिन जाम रहती हैं। विडंबना है कि आने वाले दिनों के भयावह यातायात जाम की संभावना को जानते-परखते हुए भी बीच शहर में प्रगति मैदान को विस्तार दिया जा रहा है। यह कुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि हम राजधानी दिल्ली में सांस लेने के लिए शुद्ध हवा पर मंडरा रहे भयानक संकट से कितने बेपरवाह हैं और हमारी चिंताएं अपनी सहूलियत के आगे आत्मसमर्पण कर देती हैं।
राजधानी में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब कोई वाहन खराब होने से यातायात के संचालन में बाधा ना आए। रही-बची कसर जगह-जगह चल रहे मेट्रो या ऐसे ही निर्माण कार्यों ने पूरी कर दी है। भले ही अभी दीवाली के बाद जैसा स्मॉग ना हो, लेकिन हवा का जहर तो जानलेवा स्तर पर ही है। लोगों की सांस की मानिंद पूरा यातायात व सिस्टम हांफ रहा है। यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर वर्ष करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार होकर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक दुनियाभर में 33 लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण के शिकार होते हैं।
यही नहीं सड़कों पर बेवजह घंटों जाम में फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए-दिन सड़कों पर ‘रोड रेज’ (सड़क पर उबलता गुस्सा) के तौर पर बहता खून दिखता है। वाहनों की बढ़ती भीड़ के चलते सड़कों पर थमी रफ्तार से लोगों की जेब में होता छेद व विदेशी मुद्रा व्यय कर मंगवाए र्गए इंधन का अपव्यय होने से देश का नुकसान है सो अलग।
यह हाल केवल देश की राजधानी के ही नहीं है, देश के सभी छह महानगर, सभी प्रदेशों की राजधानियों के साथ-साथ तीन लाख आबादी वाले 600 से ज्यादा शहरों-कस्बों के भी हैं। दुखद है कि दिल्ली, कोलकाता जैसे शहरों में हर पांचवा आदमी मानसिक रूप से अस्वस्थ है। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि बीते दो दशकों के दौरान देश में ऑटोमोबाईल उद्योग ने बेहद तरक्की की है और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया है। यह किसी विकासशील देश की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है कि वहां संचार व परिवहन की पहुंच आम लोगों तक हो। विडंबना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई है और निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया है। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी है और अब इंसान दो कदम पैदल चलने की बजाए दुपहिया वाहन लेने में संकोच नहीं करता। असल में सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे लोग इस खतरे से अंजान ही हैं कि उनके बढ़ते तनाव या चिकित्सा बिल के पीछे सड़क पर रफ्तार के मजे का उनका शौक भी जिम्मेदार है।
शहर हों या हाईवे, जो मार्ग बनते समय इतना चौड़ा दिखता है वही दो-तीन सालों में गली बन जाता है। यह विडंबना है कि हमारे महानगर से लेकर कस्बे तक और सुपर हाईवे से लेकर गांव की पक्की हो गई पगडंडी तक, सड़क पर मकान व दुकान खोलने व वहीं अपने वाहन या घर का जरूरी सामान रखना लोग अपना अधिकार समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैरकानूनी है, लेकिन सबसे ज्यादा सड़क घेर कर वाहन खड़े करने का काम उसी लुटियन दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत, हाईकोर्ट, नीति आयोग या साउथ ब्लाक के बाहर होता है। जाहिर है, जो सड़क वाहन चलने के लिए बनाई गई हो उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही। दिल्ली में सड़क निर्माण व सार्वजनिक बसस्टाप की योजनाएं भी गैर-नियोजित हैं। फ्लाई-ओवर से नीचे उतरते ही बने बस स्टाप जमकर जाम रहते हैं। वहीं कई जगह तो निर्बाध परिवहन के लिए बने फ्लाई-ओवर पर ही बसें खडी रहती हैं। राजधानी में मेट्रो स्टेशन के बाहर बैटरी रिक्शा इन दिनों जाम के बड़े कारण बने हैं। बगैर पंजीयन के, क्षमता से अधिक सवारी लादे ये रिक्शे गलत दिशा में चलने पर कतई नहीं ड़रते और इससे मोटर वाहनों की गति थमती है।
यह भी जानना जरूरी है कि बस या अन्य वाहन चाहे सीएनजी से चलें या और किसी ईंधन से, यदि वह क्षमता से अधिक वजन लादते हैं तो उनकी गति तो कम होती ही है, उससे निकलने वाला उत्सर्जन भी बढ़ता है। राजधानी में बसों में क्षमता से अधिक भीड़ तो आम बात है, तिपहिया में तीन की जगह तेरह लोगों को भरना, पुराने स्कूटरों में तीन पहिए लगा कर उनसे सामान या स्कूली बच्चों को ढोना सामान्य बात है। दस साल पुराने डीजल व 15 साल पुराने पेट्रोल वाहनों पर पाबंदी का आदेश कछुआ-चाल को भी मात दे रहा है।
पूरे देश में स्कूलों व सरकारी कार्यालयों के खुलने व बंद होने के समय लगभग एक समान है। आमतौर पर स्कूलों का समय सुबह है। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, लेकिन इसका परिणाम हर छोटे-बड़े शहर में सुबह से सड़कों पर जाम के रूप में दिखता है। ठीक यही हाल दफ्तरों के वक्त में होता है। यह सभी जानते हैं कि नए मापदंड वाले वाहन यदि चालीस या उससे अधिक की गति में चलते हैं तो उनसे बेहद कम प्रदूषण होता है, लेकिन यदि ये पहले गियर में रैंगते हैं तो इनसे सॉलिड पार्टिकल, सल्फर-डाय-आक्साईड व कार्बन -मोनो-ऑक्साईड बेहिसाब उत्सर्जित होता है। क्या स्कूलों के खुलने व बंद होने के समय में अंतर या बदलाव कर इस जाम के तनाव से मुक्ति नहीं पाई जा सकती? इसी तरह कार्यालयों में भी किया जा सकता है। कुछ कार्यालयों की छुट्टी का दिन शनिवार-रविवार की जगह अन्य दिन किया जा सकता है, जिसमें अस्पताल, बिजली, पानी के बिल जमा होने वाले काउंटर आदि हैं। यदि कार्यालयों में साप्ताहिक दो दिन की छुट्टी के दिन अलग-अलग किए जाएं तो हर दिन कम-से-कम 30 प्रतिशत कम भीड़ सड़क पर होगी। कुछ कार्यालयों का समय आठ या साढ़े आठ से करने व उनके बंद होने का समय भी साढ़े चार या पांच होने से सड़क पर एक साथ भीड़ होने से रोका जा सकेगा। यही नहीं इससे वाहनों की ओवरलोड़िंग भी कम होगी। सड़क पर जाम से उपज रहे जहर से जूझने के उपाय तो हजारों हैं, बशर्तें उन पर ईमानदारी से क्रियान्वयन की इच्छा-शक्ति हो। (सप्रेस)
श्री पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र लेखक हैं।
पंकज चतुर्वेदी
यूं तो बढ़ते औद्योगिकीकरण ने प्रदूषण, खासकर वायु प्रदूषण को हमारे जीवन पर सदा छाया रहने वाला संकट बना दिया है, लेकिन ठंड के मौसम में इसमें विशेष इजाफा होता है। देश की राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक राजधानी दिल्ली में पिछले कुछ सालों से यह मौसम भारी खतरे के साथ आता है, लेकिन इससे निपटने के लिए राज्य और केन्द्र की सरकारें और समाज क्या कर रहे हैं ? प्रस्तुत है, इस विषय पर गहराई से प्रकाश डालता पंकज चतुर्वेदी का यह लेख। संपादक।
दो साल पहले नवंबर में ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि राजधानी की सड़कों पर ट्रैफिक जाम ना लगे, यह बात सुनिश्चित की जाए। एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा था कि यातायात धीमा होने या फिर लाल बत्ती पर अटकने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन जाया होता है, जिससे दिल्ली की हवा दूषित हो रही है।
सारा समाज और सरकार दिल्ली में घुटते दम पर बयानबाजी या चिंता तो जाहिर कर रहे हैं, लेकिन एनजीटी के उक्त महत्वपूर्ण आदेश का कभी गंभीरता से पालन ही नहीं किया गया। जो नवंबर सबसे जहरीला है, उसी नवंबर में दिल्ली के बीचों-बीच कम-से-कम पांच अलग-अलग धर्मों और मत के ऐसे विशाल जुलूस निकाले गए जिनसे समूची दिल्ली की यातायात व्यवस्था तहस-नहस हुई और जाम लगे। इसी नवंबर महीने में सरकार मध्य दिल्ली में ही दो बार मैराथान दौड़ के आयोजन कर सड़कों पर डायवर्सन और जाम को न्यौता दे चुकी है।
अभी एक दशक पहले तक चीन की राजधानी पेईचिंग में अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनी मैदान बीच शहर में ही था। जब स्थानीय सरकार को समझ आया कि सालभर चलने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों से बीच शहर में जाम लगने लगा है तो शहर से कोई 25 किलोमीटर दूर डांगचेंग में एक विशाल प्रदर्शनी स्थल बनाया गया। उससे पहले वहां मेट्रो सेवा, अंतरराष्ट्रीय होटल, मॉल आदि भी तैयार कर दिए गए। वर्ष 2011 के बाद से सभी अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियां वहीं लगने लगीं।
इसके विपरीत दिल्ली में पूरी तरह से टूटे-फूटे प्रगति मैदान में ‘ट्रेड फेयर’ यानि व्यापार मेला लगाया जा रहा है और एनजीटी से कुछ ही दूर स्थित प्रगति मैदान की सड़कें पूरा दिन जाम रहती हैं। विडंबना है कि आने वाले दिनों के भयावह यातायात जाम की संभावना को जानते-परखते हुए भी बीच शहर में प्रगति मैदान को विस्तार दिया जा रहा है। यह कुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि हम राजधानी दिल्ली में सांस लेने के लिए शुद्ध हवा पर मंडरा रहे भयानक संकट से कितने बेपरवाह हैं और हमारी चिंताएं अपनी सहूलियत के आगे आत्मसमर्पण कर देती हैं।
राजधानी में शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो जब कोई वाहन खराब होने से यातायात के संचालन में बाधा ना आए। रही-बची कसर जगह-जगह चल रहे मेट्रो या ऐसे ही निर्माण कार्यों ने पूरी कर दी है। भले ही अभी दीवाली के बाद जैसा स्मॉग ना हो, लेकिन हवा का जहर तो जानलेवा स्तर पर ही है। लोगों की सांस की मानिंद पूरा यातायात व सिस्टम हांफ रहा है। यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर वर्ष करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार होकर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक दुनियाभर में 33 लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण के शिकार होते हैं।
यही नहीं सड़कों पर बेवजह घंटों जाम में फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए-दिन सड़कों पर ‘रोड रेज’ (सड़क पर उबलता गुस्सा) के तौर पर बहता खून दिखता है। वाहनों की बढ़ती भीड़ के चलते सड़कों पर थमी रफ्तार से लोगों की जेब में होता छेद व विदेशी मुद्रा व्यय कर मंगवाए र्गए इंधन का अपव्यय होने से देश का नुकसान है सो अलग।
यह हाल केवल देश की राजधानी के ही नहीं है, देश के सभी छह महानगर, सभी प्रदेशों की राजधानियों के साथ-साथ तीन लाख आबादी वाले 600 से ज्यादा शहरों-कस्बों के भी हैं। दुखद है कि दिल्ली, कोलकाता जैसे शहरों में हर पांचवा आदमी मानसिक रूप से अस्वस्थ है। यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि बीते दो दशकों के दौरान देश में ऑटोमोबाईल उद्योग ने बेहद तरक्की की है और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया है। यह किसी विकासशील देश की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है कि वहां संचार व परिवहन की पहुंच आम लोगों तक हो। विडंबना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई है और निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया है। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी है और अब इंसान दो कदम पैदल चलने की बजाए दुपहिया वाहन लेने में संकोच नहीं करता। असल में सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे लोग इस खतरे से अंजान ही हैं कि उनके बढ़ते तनाव या चिकित्सा बिल के पीछे सड़क पर रफ्तार के मजे का उनका शौक भी जिम्मेदार है।
शहर हों या हाईवे, जो मार्ग बनते समय इतना चौड़ा दिखता है वही दो-तीन सालों में गली बन जाता है। यह विडंबना है कि हमारे महानगर से लेकर कस्बे तक और सुपर हाईवे से लेकर गांव की पक्की हो गई पगडंडी तक, सड़क पर मकान व दुकान खोलने व वहीं अपने वाहन या घर का जरूरी सामान रखना लोग अपना अधिकार समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैरकानूनी है, लेकिन सबसे ज्यादा सड़क घेर कर वाहन खड़े करने का काम उसी लुटियन दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत, हाईकोर्ट, नीति आयोग या साउथ ब्लाक के बाहर होता है। जाहिर है, जो सड़क वाहन चलने के लिए बनाई गई हो उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही। दिल्ली में सड़क निर्माण व सार्वजनिक बसस्टाप की योजनाएं भी गैर-नियोजित हैं। फ्लाई-ओवर से नीचे उतरते ही बने बस स्टाप जमकर जाम रहते हैं। वहीं कई जगह तो निर्बाध परिवहन के लिए बने फ्लाई-ओवर पर ही बसें खडी रहती हैं। राजधानी में मेट्रो स्टेशन के बाहर बैटरी रिक्शा इन दिनों जाम के बड़े कारण बने हैं। बगैर पंजीयन के, क्षमता से अधिक सवारी लादे ये रिक्शे गलत दिशा में चलने पर कतई नहीं ड़रते और इससे मोटर वाहनों की गति थमती है।
यह भी जानना जरूरी है कि बस या अन्य वाहन चाहे सीएनजी से चलें या और किसी ईंधन से, यदि वह क्षमता से अधिक वजन लादते हैं तो उनकी गति तो कम होती ही है, उससे निकलने वाला उत्सर्जन भी बढ़ता है। राजधानी में बसों में क्षमता से अधिक भीड़ तो आम बात है, तिपहिया में तीन की जगह तेरह लोगों को भरना, पुराने स्कूटरों में तीन पहिए लगा कर उनसे सामान या स्कूली बच्चों को ढोना सामान्य बात है। दस साल पुराने डीजल व 15 साल पुराने पेट्रोल वाहनों पर पाबंदी का आदेश कछुआ-चाल को भी मात दे रहा है।
पूरे देश में स्कूलों व सरकारी कार्यालयों के खुलने व बंद होने के समय लगभग एक समान है। आमतौर पर स्कूलों का समय सुबह है। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, लेकिन इसका परिणाम हर छोटे-बड़े शहर में सुबह से सड़कों पर जाम के रूप में दिखता है। ठीक यही हाल दफ्तरों के वक्त में होता है। यह सभी जानते हैं कि नए मापदंड वाले वाहन यदि चालीस या उससे अधिक की गति में चलते हैं तो उनसे बेहद कम प्रदूषण होता है, लेकिन यदि ये पहले गियर में रैंगते हैं तो इनसे सॉलिड पार्टिकल, सल्फर-डाय-आक्साईड व कार्बन -मोनो-ऑक्साईड बेहिसाब उत्सर्जित होता है। क्या स्कूलों के खुलने व बंद होने के समय में अंतर या बदलाव कर इस जाम के तनाव से मुक्ति नहीं पाई जा सकती? इसी तरह कार्यालयों में भी किया जा सकता है। कुछ कार्यालयों की छुट्टी का दिन शनिवार-रविवार की जगह अन्य दिन किया जा सकता है, जिसमें अस्पताल, बिजली, पानी के बिल जमा होने वाले काउंटर आदि हैं। यदि कार्यालयों में साप्ताहिक दो दिन की छुट्टी के दिन अलग-अलग किए जाएं तो हर दिन कम-से-कम 30 प्रतिशत कम भीड़ सड़क पर होगी। कुछ कार्यालयों का समय आठ या साढ़े आठ से करने व उनके बंद होने का समय भी साढ़े चार या पांच होने से सड़क पर एक साथ भीड़ होने से रोका जा सकेगा। यही नहीं इससे वाहनों की ओवरलोड़िंग भी कम होगी। सड़क पर जाम से उपज रहे जहर से जूझने के उपाय तो हजारों हैं, बशर्तें उन पर ईमानदारी से क्रियान्वयन की इच्छा-शक्ति हो। (सप्रेस)
श्री पंकज चतुर्वेदी स्वतंत्र लेखक हैं।
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