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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

cash crop needs to control by demand and supply basis

खेती हो ऐसी जो लाए खुशहाली


उत्तर प्रदेश के आलू उत्पादक जिलों के कोल्ड स्टोरेज में पिछले साल का माल भरा है और नई फसल आने के बाद मंडी में इतने दाम गिर गए कि एक साल से सहेज कर रखे गए आलू को सड़क पर फेकना पड़ा है। मध्य प्रदेश के नीमच में यही हाल प्याज का हो रहा है। मंडी में कई ढेरी की तो नीलामी तक नहीं हो पा रही है। मंडी में माल खरीदी के इंतजार के लिए शहर में ठहरना किसान को महंगा पड़ रहा है, लिहाजा वह अपनी उपज को छोड़ कर चले जाते हैं। रतलाम जिले की सैलाना मंडी में प्याज, लहसुन और मटर की इतनी आवक हुई कि न तो खरीदार मिल रहे और न ही मंडी में माल रखने की जगह। राजस्थान के झालावाड़ में लहसुन का उत्पादन कोई 27 हजार एकड़ में होता है। वहां फसल तो बहुत बढ़िया हुई, लेकिन माल को इतने कम दाम पर खरीदा जा रहा है कि लहसुन की झार से ज्यादा आंसू उसके दाम सुन कर आ रहे हैं। मुल्ताई में कोई 6,400 एकड़ में किसानों ने पत्ता गोभी लगाई और उसकी शानदार फसल भी हुई, लेकिन बाजार में उसका खरीदार 40 से 50 पैसे प्रति किलो से अधिक देने को राजी नहीं।
यह हाल इन दिनों पूरे देश में है, कहीं टमाटर तो कहीं मिर्ची की शानदार फसल लागत भी नहीं निकल पा रही है। वहीं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों की तो बात ही छोड़िए, भोपाल, जबलपुर, कानपुर जैसे शहरों में ये सब्जियां मंडी की खरीदी के दाम से दस-बीस गुना ज्यादा दाम में उपभोक्ता को मिल रही हैं। इस तरह फसल की बर्बादी केवल किसान का नुकसान नहीं है, यह उस देश में खाद्य पदार्थ की बर्बादी है जहां हर दिन करोड़ों लोग भरपेट या पौष्टिक भोजन के लिए तरसते हैं। यह देश की मिट्टी, जल, पूंजी सहित कई अन्य ऐसी चीजों का नुकसान है जिसका विपरीत असर देश, समाज की प्रगति पर पड़ता है। सनद रहे यदि ग्रामीण अंचल की अर्थव्यवस्था ठीक होगी तो देश के धन-दौलत के हालात भी सशक्त होंगे। यदि हर साल किसानों का कर्ज माफ करने की जरूरत नहीं होगी तो उस धन को विकास के अन्य कार्यो में लगाया जा सकता है। दूसरी ओर कर प्रणाली की मार भी आम लोगों पर कम पड़ेगी।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसद लोगों के पसीने से पैदा होता है। दुखद यह कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है। पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा- कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों। किसान जब ‘कैश क्रॉप’ यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचैलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है।
दुर्भाग्य है कि संकर बीज, खाद, दवा बेचने वाली कंपनियां शानदार फसल का लोभ दिखा कर अपने उत्पाद किसान को बेच देती हैं। चूंकि किसान को प्रबंधन की सलाह देने वाला कोई होता नहीं, सो वे प्रचार के फेर में फंस कर एक सरीखी फसल उगा लेते हैं। वे न तो अपने गोदाम में रखे माल को बेचना जानते हैं और न ही मंडियां उनके हितों की संरक्षक होती हैं। किसी भी इलाके में स्थानीय उत्पाद के अनुरूप प्रसंस्करण उद्योग हैं नहीं। जाहिर है कि लहलहाती फसल किसान के चेहरे पर मुस्कान नहीं ला पाती।
समय की मांग है कि प्रत्येक जिले में फल-सब्जी उगाने वाले किसानों को उत्पाद को सीमित कोटा दिया जाए। मध्य प्रदेश के मालवा अंचल के जिन इलाकों में लोग लहसुन व अन्य उत्पाद के माकूल दाम न मिलने से हताश हैं वहीं रतलाम जिले में किसान विदेशी अमरूद की ऐसी फसल उगा रहे हैं जो कम समय में पैदा होती है, एक महीने तक पका अमरूद खराब नहीं होता और फल का आकार भी बड़ा होता है। यहां कुछ किसान अंगूर उगा रहे हैं। जाहिर है स्थानीय बाजार के अनुरूप सीमित उत्पाद उगाने से किसान को पर्याप्त मुनाफा मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में ही कुल उपलब्ध कोल्ड स्टोरेज की क्षमता, उसमें पहले से रखे माल, नए आलू के खराब होने की अवधि और बाजार की मांग का आकलन यदि सटीक तौर पर किया जाए तो आलू की फसल को ही लाभ में बदला जा सकता है। जो किसान आलू से वंचित किया जाए उसे मटर, धनिया, गोभी, विदेशी गाजर, शलजम, चुकंदर जैसी अन्य ‘नगदी फसल’ के लिए प्रेरित किया जा सकता है।
देश के जिन इलाकों में टमाटर या ऐसी फसल की अफरात के कारण किसान हताश है जो कि जल्द इस्तेमाल न होने पर खराब हो सकती है, उसके रकबे को मांग- सप्लाई के अनुसार सीमित किया जाना चाहिए। यदि हर जिले में मंडी में शीत-गृह वाले ट्रक हों तो ऐसे माल को कुछ ज्यादा दिन सुरक्षित कर बाहर भेजा जा सकता है। सबसे बड़ी बात, इन सभी सब्जियों के न्यूनतम खरीदी मूल्य घोषित किए जाएं और इससे कम की खरीद को दंडनीय अपराध बनाया जाए। साथ ही किसान के मंडी पहुंचने के 24 घंटे के भीतर माल खरीदना सुनिश्चित करना भी उनके लिए लाभदायक होगा। चूंकि अब मोबाइल पर इंटरनेट की पहुंच गांव तक है, सो सब्जी-फल उगाने वाले का रिकार्ड रखना, उन्हें मंडी के ताजा दाम बताना और ऑनलाइन खरीद का दाम व समय तय करना कठिन काम नहीं है।
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे गौण दिखते हैं। कई नकदी फसलों को बगैर सोचे-समङो प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल और तेलहन समेत अन्य खाद्य पदार्थो के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे, इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। इसके अलावा कोल्ड स्टोरेज और खाद्य प्रसंस्करण से जुड़ी किसानी हितैषी नीतियों को भी समग्रता से लागू करना होगा।

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