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बुधवार, 24 अप्रैल 2019

Irrigation from Ponds can able to sustain agriculture

तालाबों से सिंचाई के जरिये बच सकती है खेती
पंकज चतुर्वेदी 

भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भले ही खेती-किसानी का योगदान महज 17 फीसदी हो लेकिन आज भी यह रोजगार मुहैया करवाने का सबसे बड़ा माध्यम हे। ग्रामीण भारत की 70 प्रतिशत आबादी का जीवकोपार्जन खेती-किसानी पर निर्भर है।  लेकिन दुखद पहलु यह भी है कि हमारी लगभग 52 फीसदी खेती इंद्र देवता की मेहरबानी पर निर्भर है। महज 48 फीसदी खेतों को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है और इसमें भी ाूजल पर निर्भरता बढ़ने से बिजी, पंप, खाद, कीटनााशक के मद पर खेती की लागत बढ़ती जा रही है। एक तरफ देश की बढ़ती आबादी के लिए अन्न जुटाना हमारे लिए चुनौती है तो दूसरी तरफ लगातार घाअे का सौदा बनती जा रही खेती-किसानी को हर साल छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। खेती-किसानी भारत की संस्कृति का हिस्सा है और इसे सहेजने के लिए जरूरी है कि अन्न उगाने की लगात कम हो और हर खेत को सिंचाई सुविधा मिले।
जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव अब सभी के सामने है, मौसम की अनिश्तिता और चरम हो जाने की मार सबसे ज्यादा किसान पर है। भूजल के हालात पूरे देश में दिनों-दिन खतरनाक होते जा रहे हैं। उधर बड़े बांधों के असफल प्रयोग  और कुप्र्रभावों के चलते पूरी दुनिया में इनका बहिष्कार हो रहा है। बड़ी सिंचाई परियोजनाएं एक तो बेहद महंगी होती हैं, दूसरा उनके विस्थापन व कई तरह की पर्यावरणीय समस्याएं खड़ी होती हैं। फिर इनके निर्माण की अवधि बहुत होती है। ऐसे में खेती को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए भारतीय समाज को डअपनी जड़ों की ओर लौटना होगा- फिर से खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों पर निर्भरता। यह जमीन की नमी सहेजने सहित कई पर्यावरणीय संरक्षण के लिए तो सकातरात्मक है ही, मछली पालन, मखाने, कमल जैसे उत्पादों के उगाने की संभावना के साथ किसान को अतिरिक्त आय का जरिया भी देता है। तालाबा को सहेजने और उससे पानी लेने का व्यय कम है ही। यही नहीं हर दो-तीन साल में तालाबों की सफाई से मिली गाद बेशकीमती खाद के रूप में किसान की लागत घटाने व उत्पादकता बढ़ाने का मुफ्त माध्यम अलग से है।
आजादी के बाद सन 1950-51 में लगभग 17 प्रतिशत खेत(कोई 36 लाख हैक्टेयर) तालाबों से सींचे जाते थे। आज यह रकवा घट कर 17 लाख हैक्टेयर अर्थात महज ढाई फीसदी रह गया है। इनमें से भी दक्षिणी राज्यों ने ही अपनी परंपरा को सहजे कर रखा। हिंदी पट्टी के इलाकों में तालाब या तो मिट्टी से भर कर उस पर निर्माण कर दिया गया या फिर तालाबों को घरेलू गंदे पानी के नाबदान मे बदल दिया गया। यह बानगी है कि किस तरह हमो किसानों ने सिंचाई की परंपरा से विमुख हो कर अपने व्यय, जमीन की बर्बादी को आमंत्रित किया।
आजादी के पहले पूरे देश में तालाबों को सहेजने, उसके पानी के इस्तेमाल करने की कई स्थानीय संस्थाएं थीं। दक्षिणी राजयों मे ‘एरी’ को संभालने का काम समाज ही करता था। बुंदेलखंड में काछी-ढीमर जैसे समाज के लेाग तालबों की देखााल करते थे और उसके एवज में वे तालबा की मछली, सब्जी आदि बेचते थे। जैसे ही तालबों के ठके उठने शुरू हुए, ज्यादा मछली और सब्जियों व अन्य उत्पाद के लोभ में ठेकेदारों ने इसमें रसायन, विदेशी मछली के बीज , ज्यादा पानी निकालने के लिए तालाब की संरचना से छेड़छाड़ और उसके जलआगम क्षेत्र में निर्माण जैसी कुरीतियों का प्रारंभ हुआ। अब ठेकेदार का उद्देश्य तो ज्यादा पैसा कमाना होता सो उसके  पानी या तालाब की परवाह क्यों कर होती।
कागजों पर तालाब संरक्षण के  प्रयोग भी खूब हुए। अब जिसने बोरिंग मशीन खरीदी है, उसे तो ज्यादा नलकूप खोदने के लिए घर-आंगन व खेतों के कुओं व तालाबों पर ग्रहण डालना ही था। सरकरों की नीति पर तालाबों के प्रति सकारात्मक नहीं रही। पहल सभी तालाब सन 2012 की ‘वेटलैंड नीति’ के तहत आर्द्रभूमि माना जता था।, एक जल स्त्रोत। सन 2017 की नीति में छोटे तालाबों से आर्द्रभूमि का रूतबा छीन लिया गया और इससे तालाबों पर अतिक्रमण करना, नष्ट करना और सरल हो गया। आज जब पाताल की गहराई तक सीना चीरने पर भी पानी की बूद नहीं मिल रही है तो समाज को याद आ रहा है कि यही तालाब जमीन को तर रखते थे।
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में औसतन 1170 मिमी पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है।  देश में कोई पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं।  यदि औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1.12 हैक्ेयर जमीन पर तालाब बने हों तो  देश की कोई 78 करोड़ आबादी के लिए पूरे साल पीने, व अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जम किया जा सकता है। एक हैक्टेयर जमीन पर महज 100मिमी बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है। देश के अभी भी अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनांए उपलब्ध हैं जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उसमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की। ठीक इसी तरह यदि इतने क्षेत्रफल के तालाबों को निर्मित किया जाए तो किसान को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा। चूंिक तालाब लबालब होंगे तो जमन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा, साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे।
बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले में 41 करोड़ खर्च कर सदानीरा जामनी नदी से चंदेलकालीन(900 से 1100वी सदी कंे बीच) तालाबों को जोड़ कर 188 एकड अतिरिक्त सिंचाई का रकवा बढ़ाने का प्रयोग हो चुका है। इस तरह की परियोजनाओं में इसान या जंगल के विसथापन की कोई संभावना नहीं रहतीं नहरें भी छोटी होती हैं तो उनकारख्रखाव स्थानीय समाज सहजता से कर सकता है।

यदि देश में खेती-किसानी को बचना है, अपी आबादी का पेट भरने के लिए विदेश से अन्न मंगवा कर विदेशी मुद्रा के व्यय  से बचना है, यदि शहर की ओर पलायन रोकना है तो जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध तालाबों की ओर लौटा जाए। खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों के इस्तेमाल को बढ़ाया जाए और तालाबों को सहजेने के लएि सरकारी महकमों के बनिस्पत स्थानीय समजा को ही शामिल किया जाए।


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