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शनिवार, 20 अप्रैल 2019

Easter

21 अप्रेल 2015
ईस्टर पर विशेष
वसंत का पर्व है ईस्टर
पंकज चतुर्वेदी
ईसाइयों के सबसे महत्वपूर्ण पर्वों में से एक है ईस्टर। यह हमेशा 22 मार्च से 25 अपै्रल के बीच किसी रविवार के दिन मनाया जाता है। वसंत ऋतु की पहली पूर्णमासी के बाद आने वाला पहला रविवार। शुरुआत में इस बात पर बड़ा विवाद था, क्योंकि ईस्टर का आरंभ यहूदी फसह पर्व से जुड़ा हुआ था, जो महीने के चौदहवें दिन मनाया जाता था। 325वें रोमन केथोलिक सम्राट कांस्टेंटाइन ने नीकिया में अपने साम्राज्य के सारे धर्मगुरुओं का महा-अधिवेशन बुलाया और यह प्रस्ताव रखा कि मध्य वसंत की पहली पूर्णमासी के बाद आने वाले रविवार को ईस्टर घोषित करें। 1752 में ब्रिटिश संसद ने इस तिथि को धर्मनियम की संसद के जरिए कानूनी जामा पहनाया।

ईस्टर, ईसामसीह के दुखों, सलीब पर मृत्यु और तीसरे दिन उनके पुनर्जीवन की याद में मनाया जाता है। ‘ईस्टर’ का मतलब पुरानी ‘ऐंग्लो-सेक्शन जाति की वसंत की देवी ‘ओस्टर’ है, जिसके नाम पर ‘ईस्टर का महीना’ यानी अपै्रल का महीना था। नार्वे की भाषा में वसंत ऋतु में फसह का पर्व मनाते थे। यहूदियों के मिस्र की गुलामी से मुक्ति तथा फसल कटाई दोनों का प्रतीक था। फसह के दिन करीब तीन बजे  ईसामसीह को सलीब पर लटकाया गया था। लेकिन वे तीसरे दिन पुनर्जीवित हो गए थे। यह इस्राइली नबियों की प्राचीन नबूवतों के अनुसार हुआ। इस तरह यहूदी फसह पर्व में ईसा के पुनर्जीवन का नया तत्व जुड़ गया। शुरूआत में यहूदी ही ईसा के मानने वाले बने थे।

फसह की तरह ही ईसामसीह के पुनर्जीवन की याद में ईस्टर मनाया जाने लगा। प्राचीन यूनानी और पूर्वी यूरोप के ईसाई ईस्टर को पवित्रा और महान मानते हैं, और इस दिन एक-दूसरे का ‘ईसा जी उठे हैं’ कहकर अभिवादन करते हैं। निस्संदेह वह जी उठे हैं। कहकर उत्तर दिया जाता है।

शुरू में ईस्टर शनिवार के उपवास के बाद शनिवार शाम से रविवार सूर्योदय तक मनाया जताा था। रात के अंधकार के बाद सूर्योदय का प्रकाश नवजीवन का प्रतीक है। इसलिए चर्चों में रविवार की सुबह बपतिस्मा संस्कार किया जाता है। ईस्टर रात में मनाया जाता था इसलिए ‘ज्योति पर्व’ के रूप में मनाया जाने लगा। ईस्टर पर गिरजाघर, गांव और शहर, मोमबत्तियों, बिजली के लट्टुओं से प्रकाशित किए जाते हैं। ‘यरूशलम के गिरजाघरों में आठ दिन तक मोमबत्तियां जलायी जाती हैं।

लोक कथाओं में खरगोश का निवास चंद्रमा बताया जाता । चीन में इन राजवंश के युग कौंसे का एक आईना खुदाई में मिला, जिस पर यह चित्र अंकित है; खरगोश चंद्रमा में ऊखल से मूसल से अमृत की औषधि कूट रहा है।’ दक्षिण अफ्रीका की खोइ और सन् जनजातियों की संस्कृति में भी खरगोश का निवास चंद्रमा माना गया है। यूनानी-रोमन संस्कृति में खरगोश की कई उपयोगिताएं हैं। वह कामुकता का प्रतीक माना जाता है। वह उभयलिंगी होता है और उसका मांस खाने से कामोत्तेजना बढ़ती है। कामदेवता इरोस को, जो पशुओं का शिकार करता है, उसका मांस प्रिय है। सबसे महत्वपूर्ण संबंध है डायोनिस देवता के साथ। यह प्रेम उर्वरता, जीवन, मृत्यु तथा अमरत्व का देवता है। यूनानी रोमन खरगोश का शिकार करते, उसके टुकड़े-टुकड़े करते, उसको खाते और एक-दूसरे के प्रति प्रेम प्रकट करने के लिए मांस का उपहार देते थे।

अंडा नवजीवन का प्रतीक है। नवजीवन बड़े (अर्थात मृत्यु को) अंडकवच को तोड़कर बाहर निकलता है। यह ईसाई धर्म के शुरू होने से बहुत पहले शायद सारी दुनिया की संस्कृतियों में प्रचलित था। शुरूआत से ही अंडा को मनुष्य को आश्चर्यचकित करता रहा है कि इस कठोर जीवनरहित चिकनी वस्तु में से कैसे जीवित चूजा निकल पड़ता है। वह यह रचनात्मक-प्रक्रिया जानना चाहता था। सृष्टि की रचना केसे हुई?

ईसा पूर्व 1569-1085 में लिखित और मिस्र में प्राप्त पपीरस (पटेरा, तालपत्रा) पांडुलिपि में बताया गया है कि धरती एक अंडा थी, जो आदिम जलाशय में से ऊपर निकलता है। भारतीय ग्रंथों में-उपनिषद में सृष्टि रचना का प्रथम कार्य अंडे का दो भागों में विभाजन है। ऋग्वेद में सृष्टिकर्ता, प्रजापति, सृष्टि-जल को उर्वर बनाते हैं और वह स्वर्ण अंडे में परिवर्तित हो जाता है। उसके भीतर ब्रह्मा शयन करते हैं और उनके साथ भूमि, सागर, पर्वत,  नक्षत्रा देवता तथा समस्त मानवजाति है। ऐसी कथाएं चीन तथा बौद्ध जातकों में भी पाई जाती हैं।

यहूदी परंपरा में अंडे का महत्व उल्लेखनीय है, फसह पर्व तथा पेंतिकुस्त पर्वों के मध्य तैंतीसवें दिन रब्बी शिमौन बार मौखई की स्मृति में ‘लग-बा-उमेर’ नामक आनंद उल्लास का एक पर्व मनाया जाता है। माता-पिता अपने बच्चों के साथ खुले मैदान में पिकनिक मनाते हैं और रंगीन अंडे खाते हैं। फसह के भोजन में उबला अंडा खाया जाता है, जो पुनर्जन्म का प्रतीक माना गया है।

ईसाइयों के लिए ईस्टर अंडा ईसा के मृतकोत्थान का प्रतीक है। जैसे चूजा अंडा फोड़कर बाहर निकलता है, वैसे ही ईसामसीह कब्र के बाहर पुनर्जीवित होकर निकल आते हैं। किसी-किसी गिरजाघर में कब्र की अनुकृति बनाकर उस पर अंडा रखा जाता है और पुरोहित, आराधकों का अभ्विादन करता है, ‘ईसा फिर जीवित हो गये हैं’ आराधक उत्तर देते हैं, ‘निश्चय ही ईसा जीवित हो गये हैं।’

सच तो यह है कि सारी दुनिया की संस्कृतियों में अंडा जीवन, सृष्टि, उर्वरता और पुनरुत्थान का प्रतीक है। जीवन चक्र की संपूर्ण घटनाओं से यह जुड़ा है: जन्म, प्रेम, विवाह, बीमारी तथा मृत्यु। अंडे से शक्ति प्राप्त होती है, क्योंकि अंडे में जीवन का बीज है। चर्च के शुरूआती वर्षों में मृतक के साथ कब्र में अंडे रख दिए जाते थे। बाद में अंडे को ईस्टर से जोड़ दिया गया। चर्च ने इस गैर ईसाई प्रथा का विरोध नहीं किया, क्योंकि अंडा पुनरुत्थान का एक सशक्त प्रतीक था। वह मृत्यु को जीवन में परिवर्तित करता था।

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