बड़े सुधारों के बगैर बेमानी है लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप
पंकज चतुर्वेदी
17वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार का दूसरा चरण भी हो गया। आम जनता के मुद्दे नदारद है।। सांसद का चुनाव लड़ने वाले नाली साफ करवाने या बगीचा या सड़क बनवाने के वायदे कर रहे हैं, । असल में ये काम तो स्थानीय निकाय के पार्शद या सरपंच के होते हैं। न तो उम्मीदवार और न ही जनता समझ पा रही है कि हमें सरपंच के साथ-साथ सांसद की जरूरत क्यों है। और सांसद का असली काम क्या है। चुनाव प्रचार में गाय, जिन्ना, पाकिस्तान और उससे आगे निजी आरोप-गालीगलौज की जो भरमार हुई उससे साफ हो गया कि सियासत का जन सरोकार से कोई वास्ता रह नहीं गया है। चुनाव के प्रचार अभियान ने यह साबित कर दिया कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव ना केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि सियासी दल जिस तरह एक दूसरे पर शुचिता के उलाहने देते दिखेे, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित करते रहे हैंें, असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। वास्तव में यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र था, यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है।
आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं। कहीं पर हजारों मतदाताओं के नाम गायब हैं तो नगालैंड में एक राजनेता कैमरे के सामने 11 वोट डाल लेता है। गाजियाबाद में रहने वाले पुर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या कर्नाटक निर्वान आयोग के ब्रंाड एंबेसेडर राहुल द्रविड का नाम ही मतदाता सूची में नहीं होता और किसी भी जिम्मेदार पर कड़ी कार्यवाही होती नहीं। कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता प्रतीत होता है।
जाति, गौत्र, धर्म के नाम पर या शराब, साड़ी के लालच में या फिर बाहुबल से धमका कर मतदान को अपने पक्ष में करने की जुगाड़ तलाशना जब दिल्ली जैसे शिक्षित, जागरूक व सत्ता-शिखर में सरेआम होती दिखती है तो जरा कल्पना करें उन गांवंों की जहां सरकारी अमला पहुंचता नहीं है, मीडिया को उसका पता ही नहीं है, वहां क्या हाल होता होगा। बड़े-बड़े रणनीतिकार मतादता सूची का विश्लेशण कर तय करे लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां एक वोट या पांच लाख वोट से जीते दोनेां तरह के सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के। केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।
कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राशि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयशुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याशी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रशासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याशी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं । सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याशी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविशेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजुट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मशीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्दों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देश के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है ।
यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा।
इस समय चुनाव करवाना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर यदि किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही ही है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम भी आचार संहिता के कारण रूके रहते हैं । ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव(कम से कम दो तो अवश्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एकसाथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता को तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी; के आधार पर पांच साल के लिए हो।
सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सशक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याशी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। सनद रहे कि 16 से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीली भी है और जटिल भी। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो किसी भी चुनावों में लड़ने से रोकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग हैं।
1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा । चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाता है तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा करती हैं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है । यहां तक कि नई नई राजनीति में आई आम आदमी पार्टी पर अपने विदेशी चंदे के हिसाब को सबके सामने रखने में गोलमोल करने के आरोप हैैंं।
एक बात और हमें पाकिस्तान से सीख लेना चाहिए कि चुनाव से पहले सरकार भ्ंाग हो और किसी वरिश्ठ न्यायाधीश को कार्यवाहक सरकार का जिम्मा दे दी जाए। इससे चुनाव में सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल की कुरीति से बचा जा सकता हे। आज प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री सरकारी जहाज व सुविधा पर प्रचार करते हैं, कई जगह अफसरों को प्रभाचित करने की खबरें भी आती हैं।
पंकज चतुर्वेदी ,
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376
पंकज चतुर्वेदी
17वीं लोकसभा के चुनाव प्रचार का दूसरा चरण भी हो गया। आम जनता के मुद्दे नदारद है।। सांसद का चुनाव लड़ने वाले नाली साफ करवाने या बगीचा या सड़क बनवाने के वायदे कर रहे हैं, । असल में ये काम तो स्थानीय निकाय के पार्शद या सरपंच के होते हैं। न तो उम्मीदवार और न ही जनता समझ पा रही है कि हमें सरपंच के साथ-साथ सांसद की जरूरत क्यों है। और सांसद का असली काम क्या है। चुनाव प्रचार में गाय, जिन्ना, पाकिस्तान और उससे आगे निजी आरोप-गालीगलौज की जो भरमार हुई उससे साफ हो गया कि सियासत का जन सरोकार से कोई वास्ता रह नहीं गया है। चुनाव के प्रचार अभियान ने यह साबित कर दिया कि लाख पाबंदी के बावजूद चुनाव ना केवल महंगे हो रहे हैं, बल्कि सियासी दल जिस तरह एक दूसरे पर शुचिता के उलाहने देते दिखेे, खुद को पाक-साफ व दूसरे को चोर साबित करते रहे हैंें, असल में समूचे कुंए में ही भांग घुली हुई हैं। लोकतंत्र के मूल आधार निर्वाचन की समूची प्रणाली ही अर्थ-प्रधान हो गई हैं और विडंबना है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव सुधार के किसी भी कदम से बचते रहे हैं। वास्तव में यह लोकतंत्र के समक्ष नई चुनौतियों की बानगी मात्र था, यह चरम बिंदू है जब चुनाव सुधार की बात आर्थिक -सुधार के बनिस्पत अधिक प्राथमिकता से करना जरूरी है। जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी दल ईमानदारी से चुनाव सुधारों की दिशा में काम नहीं करना चाहता है।
आधी-अधूरी मतदाता सूची, कम मतदान, पढ़े-लिखे मध्य वर्ग की मतदान में कम रूचि, महंगी निर्वाचन प्रक्रिया, बाहुबलियों और धन्नासेठों की पैठ, उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या, जाति-धर्म की सियासत, चुनाव करवाने के बढ़ते खर्च, आचार संहिता की अवहेलना - ये कुछ ऐसी बुराईयां हैं जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए जानलेवा वायरस हैं और इस बार ये सभी ताकतवर हो कर उभरी हैं। कहीं पर हजारों मतदाताओं के नाम गायब हैं तो नगालैंड में एक राजनेता कैमरे के सामने 11 वोट डाल लेता है। गाजियाबाद में रहने वाले पुर्व मुख्य चुनाव आयुक्त या कर्नाटक निर्वान आयोग के ब्रंाड एंबेसेडर राहुल द्रविड का नाम ही मतदाता सूची में नहीं होता और किसी भी जिम्मेदार पर कड़ी कार्यवाही होती नहीं। कई बार निर्वाचन आयोग असहाय सा दिखा और फिर आयोग ने ही अपने खर्चे इतने बढ़ा लिए हैं कि वह आम आदमी के विकास के लिए जरूरी बजट पर डाका डालता प्रतीत होता है।
जाति, गौत्र, धर्म के नाम पर या शराब, साड़ी के लालच में या फिर बाहुबल से धमका कर मतदान को अपने पक्ष में करने की जुगाड़ तलाशना जब दिल्ली जैसे शिक्षित, जागरूक व सत्ता-शिखर में सरेआम होती दिखती है तो जरा कल्पना करें उन गांवंों की जहां सरकारी अमला पहुंचता नहीं है, मीडिया को उसका पता ही नहीं है, वहां क्या हाल होता होगा। बड़े-बड़े रणनीतिकार मतादता सूची का विश्लेशण कर तय करे लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां एक वोट या पांच लाख वोट से जीते दोनेां तरह के सांसदों के समान अधिकार होते हैं। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के। केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर सांसदों का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा।
कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राशि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयशुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याशी चुनने में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रशासनिक दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याशी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं । सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याशी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविशेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजुट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मशीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्दों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देश के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है ।
यह एक विडंबना है कि कई राजनीतिक कार्यकर्ता जिंदगीभर मेहनत करते हैं और चुनाव के समय उनके इलाके में कहीं दूर का उम्मीदवार आ कर चुनाव लड़ जाता है और ग्लेमर या पैसे या फिर जातीय समीकरणों के चलते जीत भी जाता है। ऐसे में सियासत को दलाली या धंधा समझने वालों की पीढ़ी बढ़ती जा रही है। संसद का चुनाव लड़ने के लिए निर्वाचन क्षेत्र में कम से कम पांच साल तक सामाजिक काम करने के प्रमाण प्रस्तुत करना, उस इलाके या राज्य में संगठन में निर्वाचित पदाधिकारी की अनिवार्यता ‘जमीन से जुड़े’’ कार्यकर्ताओं को संसद तक पहुंचाने में कारगर कदम हो सकता है। इससे थैलीशाहों और नवसामंतवर्ग की सियासत में बढ़ रही पैठ को कुछ हद तक सीमित किया जा सकेगा।
इस समय चुनाव करवाना बेहद खर्चीला होता जा रहा है, तिस पर यदि किसी राज्य में दो चुनाव हो जाएं तो सरकारी खजाने का दम तो निकलता ही ही है, राज्य के काम भी प्रभावित होते हैं। विकास के कई आवश्यक काम भी आचार संहिता के कारण रूके रहते हैं । ऐसे में नए चुनाव सुधारों में तीनों चुनाव(कम से कम दो तो अवश्य) लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय एकसाथ करवाने की व्यवस्था करना जरूरी है। रहा सवाल सदन की स्थिरता को तो उसके लिए एक मामूली कदम उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का चुनाव खुले सदन में वोट की कीमत यानी जो जितने वोट से जीता है, उसके वोट की सदन में उतनी ही अधिक कीमत होगी; के आधार पर पांच साल के लिए हो।
सांसद का चुनाव लड़ने के लिए क्षेत्रीय दलों पर अंकुश भी स्थाई व मजबूत सरकार के लिए जरूरी है। कम से कम पांच राज्यों में कम से कम दो प्रतिशत वोट पाने वाले दल को ही सांसद के चुनाव में उतरने की पात्रता जैसा कोई नियम ‘दिल्ली में घोडा़ मंडी’’ की रोक का सशक्त जरिया बन सकता है। ठीक इसी तरह के बंधन राज्य स्तर पर भी हो सकते हैं। निर्दलीय चुनाव लड़ने की षर्तों को इस तरह बनाना जरूरी है कि अगंभीर प्रत्याशी लोकतंत्र का मजाक ना बना पाएं। सनद रहे कि 16 से अधिक उम्मीदवार होने पर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन की एक से अधिक यूनिट लगानी पड़ती है, जो खर्चीली भी है और जटिल भी। जमानत जब्त होने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को अगले दो किसी भी चुनावों में लड़ने से रोकना जैसे कुछ कड़े कानून समय की मांग हैं।
1984 में भी चुनाव खर्च संशोधन के लिए एक गैर सरकारी विधेयक लोकसभा में रखा गया था, पर नतीजा वही ‘ढ़ाक के तीन पात’ रहा । चुनाव में काले धन के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताने के घड़ियाली आंसू हर चुनाव के पहले बहाए जाते हैं। 1964 में संथानम कमेटी ने कहा था कि राजनैतिक दलों का चंदा एकत्र करने का तरीका चुनाव के दौरान और बाद में भ्रष्टाचार को बेहिसाब बढ़ावा देता है । 1971 में वांचू कमेटी अपनी रपट में कहा था कि चुनावों में अंधाधुंध खर्चा काले धन को प्रोत्साहित करता है । इस रपट में हरेक दल को चुनाव लड़ने के लिए सरकारी अनुदान देने और प्रत्येक पार्टी के एकाउंट का नियमित ऑडिट करवाने के सुझाव थे । 1980 में राजाचलैया समिति ने भी लगभग यही सिफारिशें की थीं । ये सभी दस्तावेज अब भूली हुई कहानी बन चुके है ।
अगस्त-98 में एक जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे कि उम्मीदवारों के खर्च में उसकी पार्टी के खर्च को भी शामिल किया जाए । आदेश में इस बात पर खेद जताया गया था कि सियासती पार्टियां अपने लेन-देन खातों का नियमित ऑडिट नहीं कराती हैं । अदालत ने ऐसे दलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के भी निर्देश दिए थे । चुनाव आयोग ने जब कड़ा रुख अपनाता है तब सभी पार्टियों ने तुरत-फुरत गोलमाल रिर्पोटें जमा करती हैं । आज भी इस पर कहीं कोई गंभीरता नहीं दिख रही है । यहां तक कि नई नई राजनीति में आई आम आदमी पार्टी पर अपने विदेशी चंदे के हिसाब को सबके सामने रखने में गोलमोल करने के आरोप हैैंं।
एक बात और हमें पाकिस्तान से सीख लेना चाहिए कि चुनाव से पहले सरकार भ्ंाग हो और किसी वरिश्ठ न्यायाधीश को कार्यवाहक सरकार का जिम्मा दे दी जाए। इससे चुनाव में सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल की कुरीति से बचा जा सकता हे। आज प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री सरकारी जहाज व सुविधा पर प्रचार करते हैं, कई जगह अफसरों को प्रभाचित करने की खबरें भी आती हैं।
पंकज चतुर्वेदी ,
साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 फोन-9891928376
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