My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

expansion of urbanisation is eating traditional water resources

पारंपरिक जल-निधियों को उजाड़ कर हो रहा नगरीय विस्तार

पंकज चतुर्वेदी 

दिल्ली का चमचमाती सड़कें, बंगलूरू के आलीषान आफिस या हैदराबाद व चैन्ने के बड़े-बड़े कारखाने भले ही हमें देष के वैभव व संपन्नता पर गर्व करने का एहसास कराते हों, लेकिन हकीकत यह है कि इस भौतिक चमक-दमक पाने के लिए हमने उन जल-निधियों की कुर्बानी दी है जिनके बगैर धरती पर इंसान के अस्तित्व को खतरा है। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और, उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचाैंंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि षहरों का विस्तार हो रहा है और इस बढ़ती आबादी के लिए आवास, सड़क, रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के लिए अनिवार्य जमीन की मांग को पूरा करेने के लिए उन नदी-तालाब- झील-बावली को उजाड़ा जा रहा है जो सदियों-पुष्तों से समाज को जिंदा रखने के लिए जलापूर्ति करते रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में कई ऐसी बस्तियों हैं जहां गगनचुंबी इमारतें भले ही भव्य दिखती हों, लेकिन जल-संपदा के मामले में वे कंगाल हैं और इसका कारण है कि हजारों की प्यास बुझाने वाले संसाधन को सुखा कर वे इमारतें खड़ी की गईं।


महानगर या षहर की ओर पलायन देष की सबसे बड़ी त्रासदी है तो इसे अर्थषास्त्र की भाशा में सबसे बड़ी प्रगति कहा जाता है। चौड़ी सड़कें, चौबीसों घंटे बिजली, दमकते बाजार, बेहतर स्वास्थ्य और षिक्षा सुविधाएं केवल इंसान को ही नहीं व्यापार-उद्योग को भी अपनी तरफ खींचती हैं। बीते एक दषक में महानगरों में आबादी विस्फोट हुआ और बढ़ती आबादी को सुविधांए देने के लिए खूब सड़कें-ब्रिज, भवन भी बने। यह निर्विवाद तथ्य है कि पानी के बगैर मानवीय सभ्यता के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। विकास के प्रतिमान बने इन षहरों में पूरे साल तो जल संकट रहता है और जब बरसात होती है तो वहां जलभराव के कारण कई दिक्क्तें खड़ी होती हैं। षहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना जिसका परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए , दैनिक कार्यों के लिए , नाकि उसमें गंदगी बहाने के लिए। और दूसरी तरफ षहर हैं कि हर साल बढ़ रहे हैं। देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गयी है । जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे । यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है । इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गयी है । पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गये हैंं । विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है । विष्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले षहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देष के सकल घरेलू उत्पाद मे ंयोगदान 70 प्रतिषत होगा।

राजधानी दिल्ली के नदी-तालाब रूठे
राधानी दिल्ली की बढ़ती बेतहाषा आबदी, पानी की कमी और उस पर सियासत किसी से छुपी नहीं है। कहने को दिल्ली की सीमा में यमुना जैसी सदानीरा नदी 28 किलोमीटर बहती है, लेकिन दिल्ली में यमुना को जो नुकसान होता है उससे वह अपने विसर्जन-स्थल तक नहीं उबर पाती। राजधानी में यमुना में हर दिन लाखों लीटर घरों के निस्तार व काराानों का जहरीला पानी तो मिलता ही है, इसके तटों को सिकोड़ कर निर्माण करना, इसके तटों के पर्यावास से छेड़छाड़ निरंकुष है परिणाम  है कि जिस यमुना के कारण दिल्ली षहर को बसाया गया, वही यमुना अब षहर की बैरन हो गई है। दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घन मीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है। हर साल गरमी के दिनों में पानी की मांग और सप्लाई के बीच कोई 300 एमजीडी पानी की कमी होना आम बात है।  राजधानी का चमकता चेहरा कई तालाबों की बलि चढ़ा कर किया गया है, यह बात अदालतें भी जानती हैं।
दिल्ली-गुड़गांव अरावली पर्वतमाला के तले है और अभी सौ साल पहले तक इस पर्वतमाला पर गिरने वाली हर एक बूंद ‘डाबर‘ में जमा होती थी। ‘डाबर यानि उत्तरी-पश्चिम दिल्ली का वह निचला इलाका जो कि पहाड़ों से घिरा था। इसमें कई अन्य झीलों व नदियों का पानी आकर भी जुड़ता था। इस झील का विस्तार एक हजार वर्ग किलोमीटर हुआ करता था जो आज गुडगांव के सेक्टर 107, 108 से ले कर दिल्ली के नए हवाई अड्डे के पास पप्पनकलां तक था। इसमें कई प्राकृतिक नहरें व सरिता थीं, जो दिल्ली की जमीन, आवोहवा और गले को तर रखती थीं। आज दिल्ली के भूजल के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक बना नजफगढ़ नाला कभी जयपुर के जीतगढ़ से निकल कर अलवर, कोटपुतली, रेवाड़ी व रोहतक होते हुए नजफगढ़ झील व वहां से दिल्ली में यमुना से मिलने वाली साहिबी या रोहिणी नदी हुआ करती थी । इस नदी के जरिये नजफगढ़ झील का अतिरिक्त पानी यमुना में मिल जाया करता था।
ठीक इसी तरह  दिल्ली से सटे गाजियाबाद में मकान का सुरसामुख हर प्राकृतिक संरचना को निरंकुष रूप से उदरस्थ कर रहा । अकेले गाजियाबाद नगरनिगम क्षेत्र के 95 तालाबों पर पक्के निर्माण हो गए। षहर के 28 तालाब अभी भी अपने अस्तित्व की लड़ाई समाज से लड़ रहे हैं जबकि 78 तालाबों को रसॅूखदार लोग पी गए। जाहिर है कि जब बाड़ ही खेत चर रही है तो उसका बचना संभव ही नहीं है। अब एक और हास्यास्पद बात सुनने में आई है कि कुछ सरकारी महकमे हड़प किए गए तालाबों के बदले में और कहीं जमीन देने व तालाब खुदवाने की बात कर रहे हैं।  कंक्रीट का विस्तार यहीं नहीं रूका, हिंडन नदी के तट पर दस हजार से ज्यादा मकान खड़े कर दिए गए। सदानीरा हिंडन में घरों व कारखानों का इतना कचरा गिराया गया कि अब इसमें जीव या वनस्पित का नामोनिशान नहीं है या यों कहें कि नदी अब मृतप्राय है।
यह तो बानगी है दिल्ली व उससे सटे महानगरीय क्षेत्रों की। बंगलूरू में तो सरकारी रिकार्ड में 167 तालाबों पर सड़क, कालेानी, स्टेडियम, कारखाने बना दिए गए। अब किसी भी षहर में जाएं कुछ दषक पहले तक जहां पानी लहलहाता था, अब कंक्रीट संरचनांए दिख रही हैं। यह समझना जरूरी है कि समाज जिन जल-निधियों को उजाड़ रहा है, वैसी नई संरचनांए बनाना असंभव है क्योंकि उन जल निधियों को हमारे पूर्वजों ने अपने पारंपरिक ज्ञान व अनुभव से इस तरह रचा था कि कम से कम बरसात में भी समाज का गला तर रहे।आज समय की मांग है कि मानवीय अस्तित्व को बचाना है तो महानगरों के विस्तार के बनिस्पत  जल संरचनओं को अक्षुण्ण रखना अनिवार्य हे।






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...