मछुआरों पर तो सहमति बना ले भारत-पाक
पंकज चतुर्वेदी
छह अप्रैल, 2019 को पाकिस्तान के एक बड़े अंग्रेजी अखबार 'डॉन' ने पेज तीन पर दो कॉलम की बड़ी खबर छापी, जिसमें भारत के 360 'बंदी' रिहा करने की बात थी। हालांकि ये बंदी नहीं, बल्कि तकदीर के मारे वे मछुआरे थे जो जल के अथाह सागर में कोई सीमा रेखा नहीं खिंचे होने के कारण सीमा पार कर गए थे और हर दिन अपनी जान की दुहाई मांगकर जिंदगी काट रहे थे। ठीक उसी दिन इसी अखबार के पहले पन्ने के ऊपरी हिस्से में और फिर पेज तीन पर बड़ी स्टोरी छापी, जिसमें भारत की जेल में बंद नूर उल आलिम की लाश बाघा सीमा के जरिए करांची पहुंचने की खबर है। अखबार कहता है कि मृतक की दोनों आंखें व किडनी गायब थी, उसका सिर फटा हुआ था। कहा गया कि भारतीय जेल में हुई मारापीटी में उसकी मौत हुई। एक तरफ निर्दोष मछुआरों को छोड़ने के प्रयास हैं तो दूसरी तरफ दोनों तरफ की समुद्री सीमओं के रखवाले चौकन्ने हैं कि मछली पकड़ने वाली कोई नाव उनके इलाके में न आ जाए।
जैसे ही कोई मछुआरा मछली की तरह दूसरे के जाल में फंसा, स्थानीय प्रशासन व पुलिस अपनी पीठ थपथपाने के लिए उसे जासूस घोषित कर ढेर सारे मुकदमे ठोक देती है और पेट पालने को समुद्र में उतरने के लिए जान जोखिम में डालने वाला मछुआरा किसी अंजान जेल में नारकीय जिंदगी काटने लगता है। सनद रहे यह दिक्कत केवल पाकिस्तान की सीमा पर ही नहीं है, श्रीलंका के साथ भी मछुआरों की धरपकड़ ऐसे ही होती रहती है। जो 360 बंदी रिहा हो रहे हैं उनके अलावा हमारे देश के कई सौ ऐसे मछुआरे और भी हैं जो गलती से पानी की सीमा पार कर दूसरी तरफ चले गए और वहां नारकीय जीवन जी रहे हैं।
ठीक ऐसा ही पाकिस्तान के मुछआरों के साथ भी है जो पेट भरने के लिए मछली पकड़ने दरिया में उतरे, लेकिन खुद ही सुरक्षा बलों के जाल में फंस गए। कसाब वाले मुंबई हमले व अन्य कुछ घटनाओं के बाद समुद्र के रास्तों पर संदेह होना लाजिमी है, लेकिन मछुआरों व घुसपैठियों में अंतर करना इतना भी कठिन नहीं है जितना जटिल एक-दूसरे देशों की जेल में समय काटना है। एक तो पकड़े गए लोगों की आर्थिक हालत ऐसी नहीं होती कि वे दूसरे देश में कानूनी लड़ाई लड़ सकें। दूसरा दीगर देशों के उच्चायोग के लिए मछुआरों के पकड़े जाने की घटना उनकी चिंता का विषय नहीं होती। पिछले साल गुजरात का एक मछुआरा दरिया में तो गया था मछली पकड़ने, लेकिन लौटा तो उसके शरीर पर गोलियां छिदी हुई थीं। उसे पाकिस्तान की समुद्री पुलिस ने गोलियां मारी थीं। इब्राहीम हैदरी (कराची) का हनीफ जब पकड़ा गया था तो महज 16 साल का था, जब वह 23 साल बाद घर लौटा तो पीढ़ियां बदल गर्इं, उसकी भी उमर ढल गई। इसी गांव का हैदर अपने घर तो लौट आया, लेकिन वह अपने पिंड की जुबान 'सिंधी' लगभग भूल चुका है, उसकी जगह वह हिंदी या गुजराती बोलता है। उसके अपने साथ के कई लोगों का इंतकाल हो गया और उसके आसपास अब नाती-पोते घूम रहे हैं जो पूछते हैं कि यह इंसान कौन है? दोनों तरफ लगभग एक से किस्से हैं, दर्द हैं- गलती से नाव उस तरफ चली गई, उन्हें घुसपैठिया या जासूस बता दिया गया, सजा पूरी होने के बाद भी रिहाई नहीं, जेल का नारकीय जीवन, साथ के कैदियों द्वारा शक से देखना, अधूरा पेट भोजन, मछली पकड़ने से तौबा....। पानी पर लकीरें खींचना नामुमकिन है, लेकिन कुछ लोग चाहते हैं कि हवा, पानी, भावनाएं सब कुछ बांट दिया जाए। एक-दूसरे देश के मछुआरों को पकड़ कर वाहवाही लूटने का यह सिलसिला न जाने कैसे 1987 में शुरू हुआ और तब से तुमने मेरे इतने पकड़े तो मैं भी तुम्हारे उससे ज्यादा पकड़ूंगा की तर्ज पर समुद्र में इंसानों का शिकार होने लगा। भारत और पाकिस्तान में साझा अरब सागर के किनारे रहने वाले कोई 70 लाख परिवार सदियों से समुद्र से निकलने वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए हैं। आखिर समुद्र के असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए। कच्छ के रन के पास सर क्रकी विवाद सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। असल में वहां पानी से हुए कटाव की जमीन को नापना लगभग असंभव है, क्योंकि पानी से आए दिन जमीन कट रही है और वहां का भूगोल बदल रहा है। कई बार तूफान आ जाते हैं तो कई बार मछुआरों को अंदाज नहीं रहता कि वे किस दिशा में जा रहे हैं। परिणामस्वरूप वे एक-दूसरे के सीमाई बलों द्वारा पकड़े जाते हैं। जब से शहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किमी तक तेल रिसने, शहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूषणों के कारण समुद्री जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है।
अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जो खुले समु्रद में आए तो वहां सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव होता है और वहीं दोनों देशों के बीच के कटु संबंध, शक और साजिशों की संभावनाओं के शिकार मछुआरे हो जाते हैं। जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा तलाशी करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिए गए लोगों को वापिस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है। इन गरीब मछुआरों के पास पैसा-कौड़ी तो होता नहीं, सो ये 'गुड वर्क' के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिए, जासूस, खबरी जैसे मुकदमें उन पर होते हैं। वे दूसरे तरफ की बोली-भाषा भी नहीं जानते, सो अदालत में क्या हो रहा है, उससे बेखबर होते हैं। कई बार इसी का फायदा उठा कर प्रोसिक्यूशन उनसे जज के सामने हां कहलवा देता है और वे अनजाने में ही देशद्रोह जैसे आरोप में फंस जाते हैं। दो महीने पहले रिहा हुए पाकिस्तान के मछुआरों के एक समूह में एक 8 साल का बच्चा अपने बाप के साथ रिहा नहीं हो पाया, क्योंकि उसके कागज पूरे नहीं थे। वह बच्चा आज भी जामनगर की बच्चा जेल में है। ऐसे ही हाल में पाकिस्तान द्वारा रिहा किए गए 163 भारतीय मछुआरों के दल में एक 10 साल का बच्चा भी है, जिसने सौंगध खा ली कि वह भूखा मर जाएगा, लेकिन मछली पकड़ने को अपना व्यवसाय नहीं बनाएगा। यहां जानना जरूरी है कि दोनों देशों के बीच सर क्रीक वाला सीमा विवाद भले ही न सुलझे, लेकिन मछुआरों को इस जिल्लत से छुटकारा दिलाना कठिन नहीं है। एमआरडीसी यानि मेरीटाइम रिस्क डिडक्शन सेंटर की स्थापना कर इस प्रक्रिया को सरल किया जा सकता है। यदि दूसरे देश का कोई व्यक्ति किसी आपत्तिजनक वस्तु जैसे- हथियार, संचार उपकरण या अन्य खुफिया यंत्रों के बगैर मिलता है तो उसे तत्काल रिहा किया जाए। पकड़े गए लोगों की सूचना 24 घंटे में ही दूसरे देश को देना, दोनों तरफ माकूल कानूनी सहायता मुहैया करवा कर इस तनाव को दूर किया जा सकता है। वैसे संयुक्त राष्ट्र के समुद्री सीमाई विवाद के कानूनों यूएनसीएलओ में वे सभी प्रावधान मौजूद हैं जिनसे मछुआरों के जीवन को नारकीय होने से बचाया जा सकता है। जरूरत तो बस उनके दिल से पालन करने की है।
वरिष्ठ पत्रकार
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