हमें चाहिए नए जमाने के शिक्षक
पंकज चतुर्वेदी
जब भारत के समााजिक-आर्थिक समीकरण बदल रहे हैं, जाति-समाज-लिंग की दीवारें छोटी हो रही हैं, जब शिक्षा बदलाव, रोजगार का साधन बन रही है, तब भारत की शिक्षा नीति महज आंकड़ों, दावों और नारों में उलझी है। सरकारें बदलते ही भाषा और इतिहास को बदलने की सियासत शुरू हो जाती है। आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । शिक्षा या स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में ब्लेक बोर्ड, हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया ।दूसरी तरफ बच्चे के लिए शिक्षा एकालाप है, एक तरफ से सवाल दूसरी तरफ से जवाब और उसी से तय हो जाता है कि बच्चा कितना योग्य है। योग्य? किस बात के लिए योग्य? समाज में जीने के लिए प्रकृति को पहचानने के , रोजगार के या -- ऐसे ही किसी जमीनी धरातल के ? नहीं महज एक ऐसा कागज का टुकड़ा पाने के योग्य हो जाता है जिससे उसका स्कूल का कमरा तो बदल जाता है लेकिन जीवन की असलियत से सामना करने की क्षमता बढ़ती नहीं।
जिस देश में मोबाईल कनेक्शन की संख्या देश की कुल आबादी के लगभग करीब पहुंच रही हो, जहां किशोर ही नहीं 12 साल के बच्चे के लिए मोबाईल स्कूली-बस्ते की तरह अनिवार्य बनता जा रहा है, वहां बच्चों को डिजिटल साक्षरता, जिज्ञासा, सृजनशीलता, पहल और सामाजिक कौशलों की ज़रूरत । हालांकि यह भी सच है कि स्कूल में बच्चों को मोबाईल का इस्तेमाल शिक्षा के राते में बाधक माना जाता है, परिवार भी बच्चों को अनचाहे तरीके से कड़ी निगरानी(जहां तक संभव हो) के बीच मोबाईल थमाते हैं। वास्तविकता यह है कि सस्ते डाटा के साथ हाथों में बढ़ रहे मोबाईल का सही तरीके से इस्तेमाल खुद को शिक्षक कहने वालों के लिए एक खतरा सरीखा है। हमारे यहां बच्चों को मोबाईल के सटीक इस्तेमाल का कोई पाठ किताबांें में हैं ही नहीं।
भारत में शिक्षा का अधिकार व कई अन्य कानूनों के जरिये बच्चों के स्कूल में पंजीयन का आंकड़ा और साक्ष्रता दर में व ृद्धि निश्चित ही उत्साहवर्धक है लेकिन जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात आताी है तो यह आंकड़ा हमें शर्माने को मजबूर करता है कि हमारे यहां आज भी 10 लाख शिक्षकों की कमी है। जो शिक्षक हैं भी वे महज उनको दिए गए कोर्स को पढ़ाने को ही अपनी ड्यूटी समझते हैं। कुछ इक्का-दुक्का नवाचार की बात करते हैं तो उन्हें सिस्टम का सहयोग मिलता नहीं है।
आज स्कूली बच्चे को मिडडे मील लेना हो या फिर वजीफा हर जगह डिजिटल साक्षरता की जरूरत महसूस हो रही है। हम पुस्तकों में पढ़ाते हैं कि गाय रंभाती है या शेर दहाड़ता है। कोई भी शिक्षक यह सब अब मोबाईल पर सहजता से बच्चों को दिखा कर अपने पाठ को कम शब्दों में सहजता से समझा सकता है। मोबाईल पर सर्च इंजन का इस्तेमाल, वेबसाईट पर उपलब्ध सामग्री में यह चीन्हना कि कोैन सी पुष्ट-तथ्य वाली नहीं है, अपने पाठ में पढ़ाए जा रहे स्थान, ध्वनि, रंग , आकृति को तलाशना व बूझना प्राथमिक शिक्षा में शमिल होना चाहिए। किसी दृश्य को चित्र या वीडिया के रूप में सुरक्षित रखना एक कला के साथ-साथ सतर्कता का भी पाठ है। मैंने अपने रास्ते में कठफोडवा देखा, यह जंगल महकमे के लिए सूचना हो सकती है कि हमारे यहां यह पक्षी भी आ गया है। साथ ही आवाजों को रिकार्ड करना, भी महत्वूपर्ण कार्य है।
दुखद है कि जब डिजिटल गजेट्स हमारे लेन-देन, व्यापार, परिवहन, यहां तक कि अपनी पहचान के लिए अनिवार्य होते जा रहे हैं हम बच्चों को वहीं घिसे-पिटे विषयों पर ना केवल पढ़ा रहे हैं, बल्कि रटवा रहे हैं। हाथ व सामज में गहरे तक घुस गए मोबाईल का इस्तेमाल छोटेपन से ही सही तरीके से ना सिखा पाने का ही कुपरिणाम है कि बच्चे पोर्न, अपराध देखने के लिए इस ज्ञान के भंडार का इस्तेमाल कर रहे हैं। यूट्यूब ऐसे वीडियो से पटी पड़ी है जिनमें सुदूर गांव-देहात में किन्हीं लड़के-लड़कियों के मिलन के दृश्य होते हैं। काश अपने पाठ के एक हिस्से से संबंधित फिल्म बनाने जैसा कोई अभ्यास इन बच्चों के सामने होता तो वे काले अक्ष्रों में छपी अपनी पाठ्य पुस्तक को दृश्य-श्रव्य से सहजता से प्रस्तुत करते। जान लें इस यंत्र को जागरूकता के लिए इस्तेमाल करने का प्रारंभ स्कूली स्तर से ही होना है।
हमारे शिक्षक आज भी बीएड, एलटी या बीएलएड पाठ्यक्रमांे को उर्त्तीण कर आ रहे है जहां कागज के चार्ट, थर्माकोल के मॉडल या बेकार पड़ी माचिस, आईसक्रीम की डंडी से कुछ बना कर बच्चों को विषय समझाने की प्रक्रिया से गुणवत्ता का निर्धारण होता है। रंग और परिकल्पना के क्षेत्र में वैचारिक रूप से कंगाल हो रहे बच्चों को नकल या नदी-झोपड़ी-पहाड़ वाली सीनरी खींचने से उबारने के लिए शिक्षकों को नई तकनीक का सहरा लेना होगा। एक मोटा अनुमान है कि अभी हमें ऐसे कोई साढ़े छह लाख शिक्षक चाहिए जो कि सूचना-विस्फोट के युग में तेजी से किशोर हो रहे बच्चों में शिक्षा की उदासी व उबासी दूर कर, नए तरीके से , नई दुनिया की समझ विकसित करने में सहायक हों। यह भी कुटु सत्य है कि अभी इस तरह का कोई पाठ्यक्रम शिक्षकों के लिए ही उपलब्ध नहीं है, बच्चों की बात कौन करे।
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छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देष के आठ षिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यषपाल कर रहे थे । समिति ने देषभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी । उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है ना समझ पाने का बोझ । बेहतर समझ के लिए ही हमें नई तकनीकी के सही इस्तेमाल कक्षा में करने वाले शिक्षक चाहिए। एक मोटा अनुमान है कि आठ करोड़ बच्चे प्राथमिक स्कूल के बाद पढना छोड़े देते हैं। धनाभाव, स्कूल ना होना जैसे कारकों के अलावा सबसे बड़ा कारण है कि बच्चे पढ़ाई में आनंद नहीं ले पाते।
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किसी सुदूर गांव के ऐसे विद्यालय का गंभीरता से आकलन करें तो पाएंगे कि वहां की शिक्ष व्यवस्था की धुरी पाठ् पुस्तक है। बिल्कुल हमारी व्यवस्था को औपनिवेषिक चरित्र प्रदान करती एक किताब । इस किताब से उपजते हैं भय- बच्चे का भय कम अंक लाने का और शिक्षक का भय अच्छा रिजल्ट ना आने का। शिक्षक भी अनमने मन से उसे पढ़ाता है क्यों कि उसे तो किताब पूरी तरह रट गई है, उसका कोई रस या आनंद बचा नहीं है।
बच्चे का अपना विस्तारित अनुभव जगत, बच्चे का ज्ञान, बच्चे के अपने अनुभवउन सबका यहां ना तो काई अर्थ है ना ही कदर। ऐसे में डिजिटल साक्षरता के उद्देश्य से किए गए कुछ प्रयोग बच्चों को हर दिन कुछ नया करने के उत्साह में स्कूल की ओर खंीच लाएंगे।