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शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2020

Desert destroying Farm land

खेतों की तरफ बढ़ता मरूस्थल

पंकज चतुर्वेदी 
Jnasandesh Times
एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा का बढना, साथ में ओजोन परत में हुए छेद में दिनों-दिन विस्तार से उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव लगातार जलवायु परिवर्तन के रूप में तो सामने आ ही रहा है, जंगलों की कटाई व कुछ अन्य कारकों के चलते दुनिया में तेजी से पांव फैला रहे रेगिस्तान का खतरा धरती पर जीवन की उपस्थिति को दिनों-दिन कमजोर करता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानि यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाऊ या हरियाली वाली जमीन  रेत के ढेर से ढक रही है और इसका असर एक अरब लेागों पर पड़ रहा है। भारत में रेगिस्तान के विस्तार को भूजल के मनमाने दुरूपयोग ने पंख दे दिए  हैं।
इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से महज 24 फीसदी ही थार के इर्द गिर्द के हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हैक्टर जमीन रेगिस्तान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरूस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगिस्तान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हैक्टर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध््राप्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जम कर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लाख हैक्टर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। बंिटंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत हैं।
Janwani meerut

पांच सदानीरा नदियों का पंजाब अब पानी के बढ़ते संकट के चलते रेगिस्तान में तब्दील होने को बढ़ रहा है। इस खतरे को राज्य सरकार ने भी भांप लिया है लेकिन  संकट यह है कि इस त्रासदी को न्योता देने वाला मुख्य कारक,खेती,  राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। पंजाब के खेतों की सालाना पानी की मांग 43.7 लाख हैक्टेयर मीटर है और इसका 73 फीसदी भूजल से उगाहा जा रहा है। यही नहीं राज्य की नदियों में जल की उपलब्धता भी 17 मिलियन एकड़ फुट से घट कर 13 मिलियन एकड़ फुट रह गई है।  जब सरकार ने ज्यादा पानी पीने वाली फसलों और धरती की छाती चीर कर पानी निकालने वाली योजनाओं को खूब प्रोत्साहन दिया तो पानी की खपत के प्रति आम लोगों में बेपरवाही भी बढ़ी और देष के औसत जल इस्तेमला- 150 लीटर प्रति व्यक्ति, प्रति दिन की सीमा यहां दुगनी से भी ज्यादा 380 लीटर हो गई।
पंजाब मृदा संरक्षण और केंद्रीय भूजल स्तर बोर्ड के एक संयुक्त सैटेलाईट सर्वें में यह बात उभर कर आई कि यदि राज्य ने इसी गति से भूजल दोहन जारी रखा तो आने वाले 18 साल में केवल पांच फीसदी क्षेत्र में ही भूजल बचेगा। सभी भूजल स्त्रोत पूरी तरह सूख जाएंगे और आज के बच्चे जब जवान होंगे तो उनके लिए ना केवल जल संकट, बल्कि जमीन के तेजी से रेत में बदलने का संकट भी खड़ा होगा। सन 1985 में पंजाब के 85 फीसदी हिस्से की कोख में लबालब पानी था। सन 2018 तक इसके 45 फीसदी में बहुत कम और छह फीसदी में लगभग खतम के हालात बन गए हैं। आज वहां 300 से एक हजार फीट गहराई पर नलकूप खोदे जा रहे हैं।

राज्य में 14 लाख से अधिक ट्यूब वेल रोप दिए गए । यही कारण है कि यहां हर साल औसतन 50 सेंटीमीटर भूजल स्तर नीचे जा रहा है।  सारे देष का पेट भरने के लिए मषहूर पंजाब में सन 1960 में महज 2.27 हैक्टेयर में धान की खेती होती थी- आखिरकार धान पंजाब के लोगों के भेाजन का हिस्सा था ही नहीं। वे मोटा अनाज, गेहूं, चना आदि उगाते थे- पहले खुद के लिए रखा फिर पूरे देष को बांट दिया।  उसके बाद यहां धान लगाने का चस्का ऐसा लगा कि सन 2018 तक इसका रकवा बढ़ कर 64.80 लाख हैक्टर हो गया।  सन 2009 में सरकार को इस संकट की थाह लगी तो धान बोआई  का एक कानून बना दिया और बोआई का महीना तपती गरमी के मई से खिसक कर जून कर दिया गया। इस उम्मीद में कि कुछ दिन में बरसात होगी और किसान की जल की जरूरत प्रकृति पूरा कर देगी। लेकिन नीति निर्धारक जलवायु परिवर्तन के संकट को भांप नहीं पाए, उसी का कुप्रभाव है कि बरसात होने के दिन भी ना केवल खिसक रहे हैं, बल्कि अनियमित भी हो रहे हैं। वैसे बीते साल राज्य सरकार ने धान की खेती से उपज रहे जल संकट के प्रति लोगों को  जागरूक किया तो उसका असर भी दिखा। सन 2019 में कोई साढे साल लाख हैक्टर कम रकवे में धान बोया गया है। इसकी जगह किसानों ने कपास, मक्का और फल-सब्जी बोई।

भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं। बारिकी से देखेें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है। हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी  वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी छोटी, स्थानीय तालाब , कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिसतान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा लेकिन उनकी चराई की जगह कम हो गई। परिणामतः मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन नंगी हो जाती है। जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है. मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई  वनस्पति और पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है. गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं।

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