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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

Dug Wells Can Quench Thirst of Bundelkhand

 कुओं से ही बुझेगी बुंदेलखंड की प्यास 

पंकज चतुर्वेदी 

अमर उजाला 5-2-2020
बुंदेलखंड की प्यास, पलायन, अल्प वर्षा  अब किसी की संवेदना का जाग्रत नहीं करती। सभी मान बैठे हैें कि यह इस इलाके की नियति है। अभी जरा होली बीतने दें, गांव के गांव खाली हो जाएंगे। कई हजार करोड़ का बुंदेलंखंड विशेष  पैकेज यहां के कंठ तर नहीं कर पाया। एक दशक के दौरान कम से कम तीन बार उम्मीद से कम मेघ बरसना बुंदेलखंड की सदियों की परंपरा रही है। यहां के पारंपरिक कुएं,तालाब और पहाड़ कभी भी समाज को इं्रद्र की बेरूखी के सामने झुकने नहीं देते थे। यह बात अब समझना होगा कि इस क्षेत्र की प्यास का हल किन्ही बड़ी परियोजनाआं में नहीं है, इसका स्थाई समाधान पारंपरिक जल स्त्रोतों को स्थानीय स्तर पर सहेजने में ही है। खासकर मजरे-गांव- मुहल्लों की प्यास की कुंजी उन कुओं के पास ही है, जिन्हें समाज नल से घर तक पानी आने की आस में नष्ट  कर चुका है।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा  नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नश्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली।  बड़े करीने से यहां के आदि-समाज ने बूंदों को बचाना सीखा था। । दो तरह के तालाब- एक केवल पीने के लिए , दूसरे केवल मवेशी व ंिसंचाई के। पहाड़ की गोदी में बस्ती और पहाड़ की तलहटी में तालाब। तालाब के इर्द गिर्द कुएं ताकि समाज को जितनी जरूरत हो, उतना पानी खींच कर इस्तेमाल कर ले। अभी सन 60 तके इस अंचल में 60 हजार से ज्यादा कुएं और कोई 25 हजार छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे।
 बुंदेलखंड की पुश्तों पुरानी परंपरा रही है कि घर में बच्चे का जन्म हो या फिर नई दुल्हन आए, घर-मुहल्ले के कुंए की पूजा की जाती है-- जिस इलाके में जल की कीमत जान से ज्यादा हो वहां अपने घर के इस्तेंमाल का पानी उगाहने वाले कुंए को मान देना तो बनता ही है।  बीते तीन दशकों के दौरान भले ही प्यास बढ़ी हो, लेकिन सरकारी व्यवस्था ने घर में नल या नलकूप का ऐसा प्रकोप बरपाया कि पुरखों की परंपरा के निशान कुएं गुम होने लगे। यह सभी जानते हैं कि बुंदेलखंड की जमीन की गहराई में ग्रेनाईट जैसे  कठोर चट्टानों का बसेरा है और इसे चीर कर भूजल निकालना लगभग नामुमकिन। असल में  यहां स्थापित अधिकांश हैंडपंप बरसात के सीपेज जल पर टिके हैं जोकि गरमी आते सूखने लगते हैं। 
छतरपुर जिला मुख्यालय के पुराना महोबा नाके की छोटी तलैया के आसपास अभी सन 90 तक दस से ज्यादा कुएं होते थे। इनमें से एक कुंए पर तो बाकायदा नगर पालिका का पंप था जिससे आसपास के घरों को जल-आपूर्ति होती थी। पुराने नाके के सामने का एक कुआं लगभग दो सौ साल पुराना है। पतली ककैया ईंटों व चूने की लिपाई वाले इस कुएं के पानी का इस्तेमाल पूरा समाज करता था। यहां से निकलने वाले पानी की कोई बूंद बरबाद ना हो, इस लिए इसकी पाल को बाहर की तरफ ढलवां बनाया गया था। साथ ही इसके ‘‘ओने’’ यानी जल निकलने की नाली को एक टैंक से जोडा गया था ताकि इसके पानी से मवेशी अपना गला तर कर सकें। सिद्धगनेशन, कोरियाना मुहल्ला, साहू मुहल्ला आदि के कुओं में सालभर पानी रहता था और समाज सरकार के भरेसे पानी के लिए नहीं बैठता था। यह गाथा अकेले महोबा रेाड की नहीं, शहर के सभी पुराने मुहल्लों की थी- गरीबदास मार्ग, तमरहियाई, शुक्लाना, कड़ा की बरिया, महलों के पीछे, हनुमान टौरिया सभी जगह शानदार कुएं थे, जिनकी सेवा-पूजा समाज करता था। ठीक यही हाल टीकमगढ़,पन्ना और दमोह के थे।
बांदा शहर में तो अभी भी 67 कुएं जिंदा है।ं इस शहर के मुहल्लों के नाम कुओं पर ही थे जैसे- राजा का कुआं,कुन्ना कुआं आदि। सन 2018 में वहां जिला प्रशासन ने 470 पंचायतों में जनता के सहयोग से कुओं को जिंदा करने का एक कार्यक्रम चलाया था और उसका सकारात्मक असर पिछले साल यहां दिखा भी। सागर जिले की रहली तहसील के रजवांस गांव में तो एक सदानीरा कुएं पर हैंड पंप लगा कर सारे गांव की प्यास बुझाई जा रही है। वहीं इलाके के सैंकड़ों कुए ऐसे भी जहां यदि किसी ने कूद कर आत्महत्या कर ली तो समाज ने उसे मिट्टी से भर कर समाप्त कर दिया। झांसी के खंडेराव गेट के षीतलामाता मंदिर की पंचकुईयां में आज भी सैंकड़ों मोटरें पड़ी हैं जो यहां के कई सौ परिवारों के पानी का साधन हैं । यह कुंए कभी भी सूखे नहीं।
प््रााचीन जल संरक्षण व स्थापत्य के बेमिसाल नमूने रहे कुओं को ढकने, उनमें मिट्टी डाल पर बंद करने और उन पर दुकान-मकान बना लेने की रीत  सन 90 के बाद तब शुरू  हुई जब लोगों को लगने लगा कि पानी, वह भी घर में मुहैया करवाने की जिम्मेदारी सरकार की है और फिर आबादी के बोझ ने जमीन की कीमत प्यास से महंगी कर दी। पुराने महोबा नाके के सामने वाले कुएं की हालत अब ऐसी है कि इसका पानी पीने लायक नही रहा। सनद रहे जब तक कुएं से बालटी डाल कर पाानी निकालना जारी रहता है उसका पानी शुद्ध रहता है, जैसे ही पानी ठहर जाता है, उसकी दुर्गति शुरू हो जाती है।
कई करोड़ की जल- आपूर्ति योजनाएं अब जल-स्त्रोत की कमी के चलते अपने उद्देयों को पूरा नहीं करपा रही हैं। यह समझना जरूरी है कि बुंदेलखंड में लघु व स्थानीय परियोजनाएं ही जल संकट से जूझने में समर्थ हैं। चूंकि बुंदेलखंड में पर्यावास तथा उसके बीच के कुएं ताल-तलैयों के ईदगिर्द ही बसती रही हैं, ऐसे में कुएं , तालाबों से पानी का लेन-देन कर धरती के जल-स्तर को सहेजने, मिट्टी की नमी बनाए रखने जैसे कार्य भी करते हैं।  छतरपुर षहर में अभी भी कोई पांच सौ पुराने कुएं इस अवस्था में है कि उन्हें कुछ हजार रूप्ए खर्च कर जिंदा किया जा सकता हे। ऐसे कुंओं को जिला कर उनकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की जल बिरादरी बना कर सौप दी जाए तो हर कंठ को प्याप्त जल मुहैया करवाना कोई कठिन कार्य नहीं होगा। यदि बुंदेलखंड के सभी कुओं का अलग से सर्वेक्षण करा कर उन्हें पुनर्जीवित करने की एक योजना शुरू की जाए तो यह बहुत कम कीमत पर जन भागीदारी के साथ हर घर को पर्याप्त पानी देने का सफल प्रयोग हो सकता है।



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