क्वारंटाइन सेंटरों की भी लें सुध
कोरोना संक्रमण और उसके कुप्रभावों को देश व दुनिया को लंबे समय तक झेलना है। ऐसे में समाज को उसकी इच्छा-शक्ति के साथ ही इससे उबारा जा सकता है। आज जरूरी है कि केंद्र सरकार क्वारंटीन सेंटर के हर पहलू पर एक एसओपी जारी करे।
बीते दो महीने के दौरान कोरोना से बचाव के लिए क्वारंटीन सेंटर या एकांतवास में रखे गए कम से कम 20 लोग आत्महत्या कर चुके हैं। इसमें उत्तर प्रदेश के शामली के निर्माणाधीन अस्पताल में क्वारंटाइन या एकांतवास के लिए लाया गया युवक भी है और सिडनी (आस्ट्रेलिया) से लौट कर सफदरजंग अस्पताल के सातवें तल्ले से कूद कर आत्महत्या करने वाला भी। पूरी दुनिया के लिए चुनौती बने लाइलाज नावेल कोरोना वायरस संक्रमण का अभी तक खोजा गया बसे माकूल उपाय सामाजिक दूरी बनाए रखनाा और संदिग्ध मरीज को समाज से दूर रख देना ही है। समाज में मामूली खांसी या बुखार वाला भी कोरोना से संक्रमित हो सकता है और इस बीमारी के लक्ष्ण उभरने या खुद ब खुद ठीक हो जाने में कोई 14 दिन का समय लगता है। यह समय इंसान व उसके परिवार, उसके संपर्क में आए लोगों के जीवन-मरण का प्रश्न होता है। तभी संभावित मरीज को समाज से दूर रखना ही सबसे माकूल इलाज माना गया। जिस बीमारी के कारण पूरी दुनिया थम गई हो, उसकी भयावहता से बचने के लिए कुछ दिन अलग रहने से समाज एक वर्ग का बचना या लापरवाही करना व्यापक स्तर पर नुकसानदेह हो सकता है। दुर्भाग्य है कि भारत में इस बीमारी के सवा सौ दिन हो रहे हैं, लेकिन अभी तक इससे जूझने के सबसे सशक्त पक्ष ‘क्वारंटीन सेंटर’ कैसा हो? उसमें कितने लोग हों? कितने दिन के लिए हों? उनका खानपान कैसा हो?
गाजियाबाद में 32 दिन से क्वारंटीन सेंटर में ‘बंद’ लोगों की जब कोई सुध लेने नहीं आया तो लोगों ने अनशन शुरू कर दिया। चूंकि वहां निरुद्ध लोगों का अभी तक पुलिस सत्यापन नहीं हुआ, इस लिए उन्हें छोड़ा नहीं जा रहा। अमरोहा में भी लोगों को एकांतवास में 30 से ज्यादा दिन हो गए, लेकिन उन्हें मुक्त नहीं किया गया। देश की राजधानी दिल्ली में भी यही हाल हैं और तब्लीगी जमात वाले लोग एक महीने से अधिक समय से क्वारंटीन में ही हैं। बृंदावन के एकांतवास केंद में तो तीन दिन धरना चला। वहां केवल लोगों को बंद कर दिया गया। न भोजन, न सफाई, न मेडिकल। यहां एक साथ रखे गए लोगों में वे परिवार भी हैं, जिन्हें कोरोना पॉजीटिव पाया गया। पंद्रह दिन में न तो ऐसे परिवारजनों के कोरोना का परीक्षण किया गया और ना ही अन्य लोगों का। जाहिर है कि यदि उनमें से कोई एक भी संक्रमित होगा तो यह क्वारंटीन सेंटर ही ‘हॉट स्पाट’ बन जाएगा। विडंबना यह है कि क्वारंटीन सेंटर एक चिकित्सा केंद्र है लेकिन वहां स्वास्थ्यकर्मी के स्थान पर पुलिस वाले होते हैं जो प्रत्येक बीमारी का इलाज डंडा, गली या धमकी समझते हैं।
एकांतवास जैसी बेहद संवेदनशील और महत्वपूर्ण निषेध उपाय के प्रति कोताही का आलम यह है कि हर राज्य और जिले के अपने कायदे-कानून व बजट हैं। झारखंड के 24 जिलों में कुल 3813 क्वारंटीन सेंटर बनाए गए हैं, जिनमें इस समय कोई ग्यारह हजार लोग हैं। इनके नाश्ता व दो समय के भाजन का सरकारी बजट महज 60 रुपये प्रतिदिन-प्रति व्यक्ति है। मथुरा में प्रति व्यक्ति 500 रुपये का प्रावधान हैं। बिहार के सीवान का जिला प्राशासन हर दिन एक व्यक्ति पर भोजन, साबुन व स्वच्छता पर 1700 रुपये खर्च का दावा कर रहा है तो उत्तर प्रदेश के महाराजगंज में यह खर्च 80 रुपये ही है। राजस्थान में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2440 रुपये का प्रावधान हैं। हर जगह अलग-अलग नीति व क्रियान्वयन। जबकि यह जानना जरूरी है कि कोरोना से जूझने के लिए इंसान के शरीर की प्रतिरोध क्षमता सशक्त होना अनिवार्य है और इसके लिए उसके नियमित पौष्टिक आहार, व्यक्तिगत स्वच्छता और साफ हवापानी अनिवार्य हैं। देश के अधिकांश क्वारंटीन सेंटर इस मूलभूत जरूरत के ठीक उलट बंहद गंदे, घटिया भोजन और स्वस्थ्य व चिकित्सा के मामले में बेहद लापरवाह हैं। इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि जेल जैसे भीड़भरे ऐसे एकांत केंद्रों में रह कर इंसान भले ही कोरोना से बच जाए, लेकिन उसके कई अन्य बीमारी अपना शिकार बना सकती हैं। कई जगह तपेदिक , त्वचा रोग जैसे संक्रामक रोगों के मरीजों को अन्य लोगों के साथ रख दिया गया। इसके बाद क्वारंटीन सेंटर में रखे गए लोगों को अछूत के नजरिये से देखने की सामाजिक बुराई का हल अभी खोजा नहीं जा सका है।
जान लें, कोरोना संक्रमण और उसके कुप्रभावों को देश व दुनिया को लंबे समय तक झेलना है। ऐसे में समाज को उसकी इच्छा-शक्ति के साथ ही इससे उबारा जा सकता है। आज जरूरी है कि केंद्र सरकार क्वारंटीन सेंटर के हर पहलू पर एक एसओपी जारी करे। उसके बजट, वहां नियुक्त स्टाफ, भोजन, शौचालय, जांच व रिपोर्ट आने की समय सीमा, वहां निरुद्ध किए लोगों को वापिस भेजन का समय जैसे मसलों पर एकीकृत नीति जारी करे। वहां रखे गए लोगों को मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग, उन्हें व्यस्त रखने के लिए मनोरंजन, शारीरिक श्रम, उनके रचनात्मक योगदान आदि पर कड़े निर्देश समय की अनिवार्य मांग है।
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