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शुक्रवार, 22 मई 2020

time to invest in health services


ऐसा डॉक्टर तो पैसा कमाएगा ही
पंकज चतुर्वेदी
 कोरोना जैसी वैश्विक बीमारी के भारत में पांव पसारते ही हमारी यह कलई खुलने लगी कि भारत का चिकित्सा तंत्र किसी भी तरह के आकस्मिक आपदा के लिए तैयार हैं। जनवरी के आखिरी सप्ताह में केरल में पहला मामला सामने आया और तब चीन में इसका आतंक बुरी तरह था, इसके बावजूद हम अपने डाक्टर, चिकित्साकर्मियों को ही इससे नहीं बचा पाए। दुर्भाग्य है कि दिल्ली में तो सभी बड़े सरकारी अस्पताल ही कोरोना के हॉट स्पाट बन गए। यह सच है कि आने वाले दिनों में सारी दुनिया में विकास, विज्ञान और विचार के मापदंड बहुत बदले-बदले होंगे। पूरे विश्व की गतिविधियां कोरोना- पूर्व और उत्तर-कोरोना काल में स्पष्ट विभाजित दिखेंगी। ऐसे में भारत को भी प्रगति की परिभाषा को बदलते हुए देखना होगा कि हम स्वास्थ्य सेवाओं में इतने पिछड़े क्यों हैं।  केरल जैसे राज्य ने अपनी स्वास्थ्य सेवओं पर लगातार निवेश किया था तभी वहां विदेश से आने वालों की बड़ी संख्या के बावजूद कोरोना ना केवल सबसे कम फैला, बल्कि उससे ठीक होने वालों का औसत भी देश में सबसे बेहतर है।
पिछले सत्र में  ही सरकार ने संसद में स्वीकार किया कि देष में कोई 8.18 लाख डॉक्टर मौजूद हैं , यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाए तो औसतन प्रति हजार व्यथ्तिक पर एक डाक्ट का आंकडज्ञ भी बहुत दूर लगता है। तिस पर मेडिकल की पढ़ाई इतनी महंगी कर दी है कि जो भी बच्चा डाक्टर बनेगा, उसकी मजबूरी होगी कि वह दोनेा हाथों से केवल नोट कमाए। मेडिकल कालेज में प्रवेश के आकांक्षी बच्चे दसवीं कक्षा पास कर ही नामी-गिरामी कोचिंग संस्थानों  की शरण में चले जाते हैं जिसकी फीस कई-कई लाख होती है। इतनी महंगी है मेडिकल की पढ़ाई, इतना अधिक समय लगता है इसे पूरा करने में , बेहद कठिन है उसमें दाखिला होना भी---- पता नहीं क्यों इन तीन समस्याओं पर सरकार कोई माकूल कदम क्यों नही उठा पा रह है। हर राजनीतिक दल चुनाव के समय ‘सभी को स्वास्थ्य’’ के ंरंगीन सपने भी दिखाता है, लेकिन इसकी हकीकत किससी सरकारी अस्पताल में हनीं बल्कि कसिी पंच सितारा किस्म के बड़े अस्पताल में जा कर उजागर हो जाती है- भीड़, डाक्टरों की कमी, बेतहाशा फीस और उसके बावजूद भी बदहवास तिमारदार। सनद रहे हमारे देष में पहले से ही राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ईएसआई, सीजीएचएस जैसी कई स्वास्थ्य योजनाएं समाज के विभिन्न वर्गों के लिए हैं व सभी के हितग्राही असंतुश्ट, हताष  हैं। देषभर के सरकारी अस्पताल मषीनरी, डाक्टर तकनीषियनों के स्तर पर कितने कंगाल हैं, उसके किस्से आए रोज हर अखबार में छपते रहते हैं । भले ही केाई कुछ भी दावे कर ले, लेकिन हकीकत तो यह है कि हमारे यहां इतने डाक्टर ही नहीं है कि सभी को इलाज की कोई भी योजना सफल हो। यदि डाक्टर मिल भी जाएं तो आंचलिक क्षेत्र की बात दूर है, जिला स्तर पर जांच-दवा का इस स्तर का मूलभूत ढ़ांचा विकसित करने में दषकों लगेंगे ताकि मरीज महानगर की ओर ना भागे। 
सुप्रीम कोर्ट के निर्देष पर इस बार मेडिकल कालेजों में प्रवेष की परीक्षा राश्ट्रीय स्तर पर आयोजित की गई। अब बच्चे हर राज्य में जा कर वहां के मेडिकल कालेजों में अपनी प्राथमिकता दर्ज करवा रहे हैं, इसके लिए उन्हें उस राज्य की यात्रा करनी पड़ रही है। मान लें कि यदि दिल्ली का कोई बच्चा कर्नाटक, महाराश्ट्र और त्रिपुरा राज्यों के कालेजों में जा कर अपना विकल्प भरता है। यानि बच्चा और उसके माता या पिता को साळथ जाना होगा, वक्त कम है अर्थात हवाई यात्रा की मजबूरी होगी। फिर उस राजधानी में जा कर कम से कम दो दिन ठहरना, भोजन, परिवहन आदि यानि तीन राज्यों के कालेजों के लिए ही कम से कम दो लाख जेब में होना जरूरी है। इसके बाद भी यह गारंटी नहीं कि प्रवेष हो ही जाएगा। खर्च यहीं नहीं थमते , यदि प्रवेष मिल गया तो एक साल की ट्यूषन फीस कम से कम आठ लाख। हॉस्टल, पुस्तकें व अन्य व्यय हर महीने कम से कम चालीस हजार  यानि पांच साल में चालीस लाख फीस और न्यूनतम पच्चीस लाख उपर से। अब महज एमबीबीएस करने से काम चलता नहीं है, यदि पोस्ट ग्रेजुएट किया तो एक से डेढ करोड प्रवेष व ट्यूषन फीस। आठ साल लगा कर दो करोड़ रूप्ए व्यय कर जो डाक्टर बनेगा, वह किसी गांव में जा कर सेवा करेगा या फिर मरीजों पर दया करेगा, इसकी संभावना बहुत कम रह जाती है।
गाजियाबाद  दिल्ली से सटा एक विकसित जिला कहलाता है, उसे राजधानी दिल्ली का विस्तार कहना ही उचित होगा। कोई 43 लाख आबादी वाले इस जिले में डाक्टरों की संख्या महज 1800 है, यानी एक डाक्टर के जिम्मे औसतन तीस हजार मरीज। इनका बीस फीसदी भी आम लोगों की पहुंच में नहीं है, क्योंकि अधिकांष डाक्टर उन बड़े-बड़े अस्पतालो में काम कर रहे है, जहां तक औसत आदमी का पहुंचना संभव नहीं होता। राजधानी दिल्ली में ही चालीस फीदी आबादी झोला छाप , नीमहकीमों या छाड़-फूंक वालों के बदौलत अपने स्वास्थ्य की गाड़ी खींचती है। कहने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ सेवा की बानगी उ.प्र. का ‘‘एन एच आर एम’’ घेाटाला है। विष्व स्वास्थ्य सांख्यिकी संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में 13.3 लाख फीजिषियन यानी सामान्य डाक्टरों की जरूरत है जबकि उपलब्ध हैं महज 6.13 लाख।  सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1667 व्यक्ति पर औसतन एक डाक्टर उपलब्ध है। अब गाजियाबाद जैसे षहरी जिले और सरकार के आंकड़ों को आमने-सामने रखें तो सांख्यिकीय-बाजीगरी उजागर हो जाती है। यहां जानना जरूरी है कि अमेरिका में आबादी और डाक्टर का अनुपात 1ः 375 है, जबकि जर्मनी में प्रति 283 व्यक्ति पर एक डाक्टर उपलब्ध है। भारत में षहरी क्षेत्रों में तो डाक्टर हैं भी, लेकिन गांव जहां 70 फीसदी आबादी रहती है, डाक्टरों का टोटा है। षहरों में भी उच्च आय वर्ग या आला ओहदों पर बैठे लोगों के लिए तो स्वास्थ्य सेवाएं सहज हैं, लेकिन आम लोगों की हालत गांव की ही तरह है।
जब तब संसद में जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो सरकार डाक्टरों का रोना झींकती है, लेकिन उसे दूर करने के प्रयास कभी ईमानदारी से नहीं हुए। हकीकत में तो कई सांसदों या उनके करीबियों के मेंडिकल कालेज हैं और वे चाहते नहीं हैं कि देष में मेडिकल की पढ़ाई सहज उपलब्ध हो। बकौल मेडिकल कांउसिंल भारत में 335 मेडिकल कालेजों में 40,525 सीटें एमबीबीएस की हैं। कुछ साल पहले तब के केंद्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी, लेकिन सरकारी दम पर उसका क्रियान्वयन संभव था हीं नहीं, और प्राईवेट कालेज वाले ऐसी किसी को परवान चढ़ने नहीं देना चाहते।  हमारे देश के लगभग 400 जिलो में विशाल व सुविधा संपन्न सरकारी जिला अस्पताल हैं जहां अनुभवी डाक्टर भी हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं है कि ऐसे  अस्पतालों में महज 20 या 40 सीट के मेडिकल कालेज शुरू कर दिए जाएं। इससे स्थानीय डाक्टर को ऐकेडमिक येागदान का अवसर भी मिलेगा, साथ ही सरकारी अस्पतालों की परिसंपत्ति व संसाधन का इस्त्ेमाल बहुत कम लागत में एक रचनात्मक कार्य के लिए हो सकेगा।  तात्कालीक जरूरत तो इस बात की है कि हर राज्य में जा कर काउंसलिंग के नाम पर अपने दस्तावेज परीक्षण करवाने के आदेष पर रोक लगा कर इसकी कोई केंद्रीकृत व आनलाईन व्यवस्था लागू की जाए। साथ ही निजी या सरकारी मेडिकल कालेज में ट्यूषन फीस कम करना, सबसिडी दर पर पुस्तकें उपलब्ध करवाने जैसे प्रयोग किये जा सकते है। ताकि भारत में सभी को स्वास्थ्य का नारा साकार रूप ले सके।
हाल के वर्शों में इंजीनियरिंग और बिजनेस की पढ़ाई के लिउ जिस तरह से कालेज खुले, उससे हमारा देष तकनीकी षिक्षा और विषेशज्ञता के क्षेत्र में दुनिया के सामने खड़ा हुआ है। हमारे यहां महंगी मेडिकल की पढ़ाई, उसके बाद समुचित कमाई ना होने के कारण ही डाक्टर लगातार विदेषों की ओर रूख कर रहे हैं। यदि मेडिकल की पढ़ाई सस्ती की जाए, अधिक मेडिकल कालेज खोलने की पहल की जाए, ग्रामीण क्षेत्र में डाक्टरों को समुचित सुविधाएं दी जाएं तो देष के मिजाज को दुरूस्त करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन मेडिकल की पढ़ाई में जिस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को विस्तार से रोक रखा है, जिस तरह अंधाधुंध फीस ली जा रही है; उससे तो यही लगता है कि सरकार ही नहीं चाहती कि हमारे यहां डाक्टरों की संख्या बढ़े। और जब तक डाक्टर नहीं बढ़ेंगे सबके लिए स्वास्थ्य की बात महज लफ्फाजी से ज्यादा नहीं होगी।

केरल ने कैसे हराया कोरोना
यदि पुराने सरकारी रिकार्ड को खंगालेंगे तो पता चलेगा कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन 1929 में पहली बार एकीकृत स्वास्थ्य परियोजना लागू की थी जिसमें संक्रमित रेागों से आम लोगों को बचाने आदि का उल्लेख था लेकिन केरल में गैरसरकारी स्तर पर ग्रामीण क्षेत्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र का प्रारंभ लगभग 1921 में हो गया था। इसमें कोई शक नहीं कि उच्च साक्षरता दर के कारण केरल में स्वास्थ्य के प्रति आम लेाग भी जागरूक हैं। केरल ने कोविड 19 से लड़ने के उपाय जनवरी में ही शुरू कर दिए थे जबकि देश ने मार्च तक का इंतज़ार किया। अस्ल में साल 2018 में राज्य ने निपाह वायरस का प्रकोप देखा था इसलिए वायरस के खिलाफ जंग छेड़ते हुए केरल ने बहुत पहले ही अतीत से सबक लिया और अपने अस्पतालों को तैयार किया और कॉंटैक्ट ट्रेसिंग, आइसोलेशन व टेस्ट रणनीति संबंधी असरदार निर्देश जारी किए।
राज्य की सबसे बड़ी ताकत ग्राम स्तर तक स्वास्थ्य कार्यकताओं का सशक्त नेटवर्क है।  यहां ग्रामीण इलाक़ों में लिंक वर्कर्स या आशा (एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं. शहरी इलाक़ों में ऊषा (अर्बन सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) वर्कर्स हैं। इन्हें प्रशिक्षित किया जाता है कि कि आम लोगों को कैसे समझाना है। हर आशा क़रीब 1,000 लोगों की इंचार्ज होती है। इनके साथ जूनियर पब्लिक हेल्थ नर्स (जेपीएचएन) भी होती हैं जो कि 10,000 लोगों की आबादी की इंचार्ज होती हैं. इनके ऊपर एक जूनियर हेल्थ इंस्पेक्टर होता है जो 15,000 लोगों के लिए उत्तरदायी होता है । इसके अलावा, स्वास्थ्य विभाग और सामाजिक न्याय विभाग के बीच एक लिंक आंगनवाड़ी वर्कर्स का भी होता है. एक आंगनवाड़ी वर्कर 1,000 लोगों की इंचार्ज होती है।

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